Tuesday, 3 April 2012
Sunday, 1 April 2012
एक वह छात्रसंघ, एक यह लोकतंत्र
दिल्ली देश की राजधानी है और संविधान की पटरानी है इसलिए हम अपने लोकतांत्रिक समस्याओं के लिए हमेशा दिल्ली की ओर देखते रहते हैं। लेकिन क्या रे वह ठूंठ संसद और क्या उसके निठल्ले सांसद। सरल सवालों का भी जटिल जवाब मिलता है। समस्या सुलझती नहीं बल्कि उलझ जाती है। अरविन्द केजरीवाल के संसदीय सवालों के गैर संसदीय जवाब जरूर मिल रहे हैं लेकिन जनतंत्र की समस्या बनते जनप्रतिनिधि क्या उस हिन्दू कालेज की तरफ देखेंगे जो अपने आपमें लोकतंत्र का अनूठा प्रयोग कर रहा है, सालों से। हमारी लोकतांत्रिक समस्याओं का जवाब शायद हिन्दू कालेज के छात्रसंघ के पास है, जो दिल्ली से दूर नहीं बल्कि दिल्ली में ही है।
संजय स्वेदश
स्कूलों में पढ़ते हुए ही हमें परिभाषा बताई जाती है कि- लोकतंत्र- जनता की सरकार, जनता के लिए जनता के द्वारा चुनी जाती है। कुल मिलाकर यह समझाया जाता है कि जनता अपने ऊपर शासन स्वयं करती है। इस लिहाज से देश में जनता ही सर्वोच्च हुई, लेकिन हकीकत ऐसी है नहीं। देश की बहुसंख्यक जनता को दरकिनार कर दिया जाता है। जनता ने जब अपने ऊपर अपने शासन के लिए जनप्रतिनिधियों को अधिकार दे दिया तो उन्होंने खुद को सर्वोच्च मान लिया। जितनी समय अवधि के लिए चुना गया, उसके लिए जनता के प्रतिनिधि कहीं से भी अपने आप को आम नहीं मानते हैं। आम के प्रतिनिधि होकर वे खास बादशाह की तरह व्यवहार करते हैं। ऐसा तब तक होता रहेगा, जब तक जनप्रतिनिधि चुनाव में हारने वाले ढेरों उम्मीदवारों के पीछे खड़ी कुल बहुसंख्यक जनता को सम्मान न मिले। जीत का ताज पहनने वाले प्रतिनिधि बहुसंख्यक का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। इसे असानी से समझने के लिए एक उदाहरण है-एक चुनाव क्षेत्र में मान ले कि साठ प्रतिशत मतदान हुआ। मतलब चालीस प्रतिशत जनता तो पहले ही चुनावी मैदान में उतरे उम्मीदवारों के साथ खड़ी नहीं है। बाकी बची साठ प्रतिशत जनता। इन्हीं बाकी बची जनता में जिन्हें सबसे अधिक मत मिलता है वह विजयी घोषित होता है। अंक गणित के सिद्धांत के अनुसार जिन्हें सबसे ज्यादा मत मिला वे जीते। उनकी जीत निकटतम प्रतिद्वंदी से हुई। अब यहां इस गणित को ऐसे समझते हैं। मान लीजिए एक चुनाव क्षेत्र में 100 वोट हैं। इन सौ वोटों में 40 ने पहले ही वोट देने से मना कर दिया। बाकी बचे साठ वोटों में जिन्हें सर्वाधिक वोट मिले वह विजेता घोषित हुआ। लेकिन इन साठ वोटों में भी छीना झपटी है। मारामारी है। कई बार बीस मत पानेवाला विजयी होता है और उन्नीस मत पानेवाला पराजित करार दे दिया जाता है। अब उन्नीस बीस या यह अंतर निर्णायक अंतर बन जाता है। लेकिन हकीकत में क्या होता है?
हकीकत में होता यह है कि 100 मतदाताओं में 20 मतदाताओं का समर्थन पानेवाला उम्मीदवार बाकी बचे 80 मतदाताओं का भी जनप्रतिनिधि मान लिया जाता है। क्या यह तर्कसंगत और न्यायसंगत है? क्या 100 में सिर्फ 20 मतदाताओं का समर्थन पानेवाला उम्मीदवार जनप्रतिनिधि घोषित किया जा सकता है? अगर उसे हम जनप्रतिनिधि मान भी लें और उन चालीस को भूल जाएं जिन्होंने मतदान प्रक्रिया में हिस्सेदारी नहीं की तो भी उन चालीस का क्या हुआ जिन्होंने मतदान प्रक्रिया में हिस्सेदारी की थी? हमारे लोकतंत्र के पास इस खामी को पाटने का कोई तरीका नहीं है और शायद इसी एक बड़ी खामी की वजह से राजनीति गंदा नाला बनती जा रही है और राजनीतिक नेता गंदी नाली के कीड़े। ऐसा इसलिए क्योंकि चुनाव के बाद बाकी बचे पांच साल के लिए जीतने वाले उम्मीदवार के पास प्रशासन की बागडोर होती है तो हारे हुए उम्मीदवार जनता के बीच से गायब हो जाते हैं और वह करते हैं जो न तो राजनीति होती है और न ही समाजसेवा।
लिहाजा, उपाय क्या है। एक सुझाव है। सुझाव की सफलता का पहले उदारहण देखे। दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित हिंदू कॉलेज में अन्य कॉलेज की तरह छात्रसंघ चुनाव होता है। लेकिन यहां की कार्यप्रणाली सभी कॉलेज के छात्र संघों से अलग है। अध्यक्ष पद के लिए जो भी छात्र जीतता है, उसे प्रधानमंत्री कहा जाता है और हारने वाले निकटम प्रतिद्वंदी को नेता प्रतिपक्ष का सम्मान मिलता है। ठीक देश की संसदीय प्रणाली की तरह। छात्रसंघ का जो बजट और कार्य होता है, उसे छात्रसभा में बहस के बाद मंजूरी मिलती है। इसमें नेता प्रतिपक्ष की भूमिका भी महत्वपूर्ण होती है। इस बहस में प्रस्तावों पर नेता प्रतिपक्ष के विचारों के अनुसार आवश्यक संशोधन भी हो जाते हैं।
मतलब हारने वाले निकटतम प्रतिद्वंद्वी के पक्ष में मतदान करने वाले छात्रों का मत भी व्यर्थ नहीं जाता है। उसके पीछे खड़े छात्रों की बात भी सुनी जाती है। लेकिन वहीं जन प्रतिनिधियों के चयन के मामले में स्थिति बिलकुल ही उलट है। यहां हारने वाले निकटतम प्रतिनिधियों का कोई महत्व नहीं है। भले ही वह लाखों वोट पा कर दो-चार मत से ही क्यों न पिछड़ गया हो। कुछ वोटों से जीतने वाला उसका बादशाह बन जाता है। कहने के लिए तो चुना हुआ प्रतिनिधि पूरी जनता का प्रतिनिधि हो जाता है। लेकिन तार्किक रूप से देंखे तो वह अल्पसंख्यक जनता का ही प्रतिनिधि होता है। अब अल्पसंख्यक जनता के प्रतिनिधि की बातें या विकास कार्य का सुझाव, विकास के लिए जगह का चयन या यूं कहें तो पूरी कार्यप्रणाली में उसकी ही मनमर्जी चलती है। बाकी जनता की भावना को कोई पूछने वाला नहीं है। विरोध करने वाले विरोध करते रहे, जीत से मिली पद के मद में चुर अपेक्षित जनता की सुध लेने जरूरत नहीं समझी जाती है।
क्या हिंदू कॉलेज के छात्र संघ कार्यप्रणाली की नकल अथवा संसदीय कार्यप्रणाली का तर्ज चुनावी क्षेत्र में लागू नहीं किया जा सकता है? कम से कम हारे हुए निकटतम प्रतिद्वंदी को किसी न किसी रूप में महत्व देकर जनता की गरीमा बढ़ाई जा सकती है। क्षेत्र में विकास के प्रस्ताविक कार्यों में हारे हुए प्रतिनिधि से भी अनिवार्य सुझाव व समहति लेने से लोकतंत्र का गौरव नहीं घेटेगा।
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