Thursday 16 February 2012

शहर के पानी की बदबूदार कहानी

सुनीता नारायण

अगर जल जीवन है तो सीवेज इस जीवन की असली कहानी कहता है। स्टेट आॅफ इंडिया इन्वायरमेन्ट रिपोर्ट की सातवीं रिपोर्ट हमारा ध्यान जीवन की इसी कहानी की ओर आकर्षित कर रहा है। रिपोर्ट बता रही है अपनी जरूरतों के लिए कैसे हमारे शहर पानी सोख रहे हैं और नदियों को नष्ट कर रहे हैं। शहरों के पानी के बारे में जानना हो तो सिर्फ इतना पूछना जरूरी होगा कि हमारे शहर पानी पाते कहां से हैं और उनका सीवेज जाता कहां पर है? लेकिन पानी सिर्फ इस एक सवाल जवाब का सवाल नहीं है। सिर्फ प्रदूषण और बबार्दी का भी मसला नहीं है। मसला यह है कि हमारे शहर किस तरह से विकसित हो रहे हैं?
इसमें हमारे किसी भी योजनाकार को कोई शक नहीं है कि शहरीकरण जिस गति से बढ़ रहा है उसमें और अधिक तेजी आएगी। लेकिन इस तेज गति से बढ़ते शहरों को पानी कहां से मिलेगा और वे अपने सीवेज का निष्पादन कैसे करेंगे? जिस रिपोर्ट का हम यहां जिक्र कर रहे हैं, उस रिपोर्ट में सीएसई ने इसी सबसे महत्वपूर्ण सवाल का जवाब तलाशने की कोशिश की है। लेकिन अपनी पड़ताल के दौरान हमें बहुत आश्चर्य हुआ कि इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर देश में न तो कहीं ठीक से डाटा उपलब्ध है, न ही इस बारे में कोई महत्वपूर्ण शोध हुए हैं और सोच के स्तर पर भी गजब का खालीपन है। शहर में रहनेवाले लोगों को पानी उनके घर के अंदर मिल जाता है। वे पानी का उपयोग करने के बाद जो सीवेज निर्मित करते हैं, वह नदियों के हवाले कर दिया जाता है जिससे वही नदियां मरने लगती हैं जो शहरों को अपना पानी देकर जीवित रखती हैं। लेकिन हमारा शहरी समाज पानी और नदी के बीच इतना सा भी संबंध जोड़ना नहीं जानता है कि टायलेट फ्लश करने से नदी के मरने का क्या संबंध है? वे जानना तो नहीं चाहते, लेकिन उन्हें जानने की जरूरत है।
शहरी समाज की इस लापरवाही का कारण आखिर क्या है? क्या यह हमारे ऊपर भारतीय जाति व्यवस्था का असर है कि घर से कचरा हटाना हमारा नहीं बल्कि किसी और का काम है? या फिर हम इस बारे में इतने लापरवाह इसलिए हैं क्योंकि हमें लगता है कि यह काम तो सरकार का है इसलिए इस बारे में हमें सोचने की जरूरत नहीं है या फिर यह भारतीय समाज के अति अहंकार का प्रतीक है जो यह मानता है कि संपन्नता से सभी समस्याओं का समाधान निकाला जा सकता है? वैसे भी हमारी सरकारें हमें यही सिखाती हैं कि संपन्नता से हम बड़े बड़े इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट तैयार करेंगे और पानी तथा सीवेज की समस्या से निजात पा लेगें?
हम चाहे जिस रूप में ऐसा व्यवहार कर रहे हों लेकिन एक बात साफ है कि हम भारतीय पानी के बारे में बहुत अज्ञानी हो चले हैं। सीएसई में अपने इस शोध के दौरान हमने शहर दर शहर डाटा तलाशने के लिए ऐसे कार्यालयों के चक्कर लगाये जहां शायद ही कोई शोधार्थी कभी जाता हो। इस किताब में जिन 71 शहरों के बारे में हमने शोध किया है, उसमें उस शहर के पानी के वर्तमान की ही कहानी नहीं है, बल्कि उस शहर में पानी के अतीत और भविष्य का भी वर्णन है। 90 के दशक में ही पर्यावरणविद अनिल अग्रवाल ने कहा था कि इस देश में कचरा पैदा करने के राजनीतिक अर्थशास्त्र को समझने की जरूरत है जो कि अपनी सुविधा के लिए दूसरे के सिर पर अपनी गंदगी फेंक आता है। अब जबकि हम गंदगी फेंकने के राजनीतिक अर्थशास्त्र को समझने की कोशिश कर रहे हैं तो एक तथ्य ऐसा उभरकर सामने आ रहा है जो निश्चित रूप से हमें गुस्से से भर देता है। आज हम अपने शहर में जिसे गंदा नाला कहते हैं, अतीत में अधिकांश ऐसे गंदे नाले नदियां हुआ करती थीं। अपने अध्ययन के दौरान हमारे सामने यह चौंकानेवाला तथ्य सामने आया है।
अधिकतर शहरों के आज के गंदे नाले अतीत की साफ नदियां हुआ करती थीं। दिल्ली के लोग नजफगढ़ नाले के बारे में जानते होंगे। यह नजफगढ़ नाला रोजाना शहरी की गंदगी यमुना के हवाले करता है, लेकिन दिल्लीवालों को यह शायद नहीं मालूम है कि इस नाले का उद्गमस्थल शहरी घरों के टायलेट नहीं है बल्कि इसका उद्गम साहिबी झील से होता था। लेकिन अब साहिबी झील का भी कहीं पता नहीं है। कोढ़ में खाज यह है कि दिल्ली के ठीक बगल में आजकल जो नया शहर गुड़गांव दुनिया के सामने अपनी चमक दमक दिखा रहा है वह गुड़गांव साहिबी झील की तर्ज पर ही नजफगढ़ झील को अपने सीवेज से समाप्त कर रहा है।
लुधियाना का बुढ्ढा नाला अपनी गंदगी और बदबू के कारण जाना जाता है। लेकिन बहुत वक्त नहीं बीता है, जब बुद्धा नाला नहीं बल्कि बुढ्ढा दरिया होता था। सिर्फ एक पीढ़ी ने इस साफ पानी के दरिया को गंदे बदबूदार नाले में परिवर्तित कर दिया।
मुंबई की मीठी नदी तो सीधे सीधे इस शहर के शर्म की कहानी ही कहती है। 2005 में जब मुंबई में बाढ़ आई थी तो अचानक लोगों को मीठी नदी की याद आई। याद इसलिए कि मीठी नदी इतनी अधिक गाद से भरी हुई थी कि वह शहर का पानी समुद्र तक ले जाने में अक्षम साबित हुई। लेकिन इसके लिए मीठी नदी को शर्म करने की जरूरत कत्तई नहीं है। इसके लिए तो मुंबईवालों को शर्म करने की जरूरत है। मीठी नदी आज इतनी गंदी हो चुकी है कि इसे नाले के रूप में देखा जाता है, लेकिन यह नाला नहीं बल्कि समुद्र के किनारे मीठे पानी की ही नदी थी। हमारे सरकारी विभागों के रिकार्ड में भी अब मीठी नदी का नाम नहीं बचा है। वहां भी अब मीठी नदी को नाले के रूप में चिन्हित कर लिया गया है।
अपनी नदियों को इस तरह नालों में तब्दील करने पर भी क्या हमें किसी प्रकार की कोई शर्म आती है? क्या हमें कभी आश्चर्य होता है? हम अपने शहरी घरों और शहरी उद्योगों के लिए इन्हीं नदियों से पानी लेते हैं और गंदा करके नदियों को वापस कर देते हैं। अच्छी खासी साफ सुथरी नदी को अपने स्पर्श से हम नाले में तब्दील कर देते हैं। क्या हम शहरी लोग कभी इस बारे में सोचते हैं?
अगर अब तक हमने नहीं सोचा तो अब हमें सोचने की जरूरत है। अभी भी हमने अपने पानी के व्यवहार के बारे में नहीं सोचा और इसी तरह से नदियों को नालों में बदलते रहे तो बाकी बची हुई नदियां हमारा साथ छोड़ देंगी। आज हम नजफगढ़, मीठी और बुढ्ढा नदी को नाले के रूप में देख रहे हैं, हमारी आनेवाली पीढ़िया यमुना, दामोदर और कावेरी नदियों को भी नाले के रूप में पहचानेगी? क्या हम अपने आनेवाली पीढ़ियों को यही भविष्य देना चाहते हैं?
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जंगल को जानने का असभ्य नजरिया

यदि झारखंड का ही उदाहरण लें तो हाल ही में आॅपरेशन एनाकोंडा के शिकार कितने आदिवासी हुए हैं। लोगों के आंखे फोड़ी जा रही है तो कहीं पुलिस बलात्कार कर रही है। खुद पुलिस भी इस बात को स्वीकार करती है कि चाईबासा जिले के गांव बलवा का रहने वाला मंगल की मौत गलती से हुई है। आज न जाने कितने मंगल देश के जंगलों में मिल जाएंगे।

अविनाश कुमार चंचल

यदि आप विदेशी हैं और केवल दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों तक घूमे हैं तो मुमकिन है आप इस देश को विकसित राष्ट्र के श्रेणी में आराम से रख सकते हैं। जैसा कि पिछले दिनों ओबामा ने भी माना। कभी सांप और जंगलों के लिए मशहूर भारत में आज जंगल शब्द के मायने ही बदल गये हैं। आज कथित विकसित भारत की आत्मा किसी गांव या जंगल में नहीं बसती। दिल्ली और बंगलौर को देखकर ही हम उसे भारत की आत्मा समझ लेते हैं। और इस भारत की नयी आत्मा में रहनेवाले लोग जंगल और जंगलवासियों को जैसे देखते हैं वह देखने का सभ्य तरीका तो बिल्कुल नहीं है। जंगल को वे निहायत जंगली सोच के साथ देखते हैं।
जिस तरह से सरकार जंगलों को कॉरपोरेट हाथों में बिना किसी हिचक के देती जा रही है उससे जंगलों में रहने वाले आदिवासियों के अस्तित्व पर ही खतरा मंडराता नजर आता है। एक तो साल-दर-साल जारी आंकड़े में जंगलों का क्षेत्रफल सिमटता जा रहा है। फिर भी यदि हमारी सरकार सचेत नहीं होती है तो यह चिंताजनक बात है।
जिस तरह से सारे विश्व में पर्यावरण को लेकर चिंताएं जतायी जा रही हैं। क्योटो से लेकर कोपनहेगन तक चर्चा और बहस का दौर गर्म है। ऐसे में चंद कॉरपोरेट हितों को साधने के लिए जंगलों को नष्ट करना न तो देश हित में है और न ही सदियों से जंगलो में रहते आ रहे समुदायों के हित में। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि जिस सरकार पर इन आदिवासियों के लिए विकास की व्यवस्था करने की जिम्मेदारी थी, वही सरकार इन पर गोलियां बरसा रही है। यदि झारखंड का ही उदाहरण लें तो हाल ही में आॅपरेशन एनाकोंडा के शिकार कितने आदिवासी हुए हैं। लोगों के आंखे फोड़ी जा रही है तो कहीं पुलिस बलात्कार कर रही है। खुद पुलिस भी इस बात को स्वीकार करती है कि चाईबासा जिले के गांव बलवा का रहने वाला मंगल की मौत गलती से हुई है। आज न जाने कितने मंगल देश के जंगलों में मिल जाएंगे।
दिल्ली मुंबई की चकाचौंध में हम अक्सर देश के जंगलों और वहां रहने वाले लोगों को भूल जाते हैं। हमारी मीडिया भी इन जंगलों की समस्या को नहीं दिखाना चाहती क्योंकि उनका दर्शक वर्ग अभिजात्य मध्य वर्ग है जिसकी दिलचस्पी कार और नये मोबाईल हैंडसेट में ज्यादा है। यदि मीडिया इन जंगलों के बारे में दिखाती भी है तो तब जब किशनजी या आजाद जैसे नक्स्ली नेताओं की कथित मुठभेड़ में मौत हो जाती है। किसी शहरी मध्यमवर्गीय परिवार के लड़की की हत्या पर जो मीडिया पानी पी-पी कर देश के कानून व्यवस्था को गाली देता है, वही मीडिया जब सोनी सोरी के साथ हुए अमानवीय पुलिसिया जुल्म के खिलाफ आह तक नहीं निकालती तो उसके जनसरोकारी होने का दावा खोखला साबित होता है.आखिर क्या कारण है कि जो मीडिया शहरी महिलाओं के खिलाफ हो रहे जूल्म के लिए आंदोलन करती है वही मीडिया आदिवासी महिलाओं के साथ हो रहे ज्यादतियां पर चुप्पी साधे रहती है।
समस्या तब और गहरी हो जाती है जब कथित सभ्य समाज रोज-ब-रोज आदिवासियों पर हो रहे जूल्म के खिलाफ चुप्पी धारण किये रहता है। वैसे भी जिस आधुनिक समाज ने आदवासियों को जंगलों की तरफ धकेल कर अपना जगह बनाया हो उससे इससे अधिक उम्मीद भी नहीं की जा सकती। मीडिया ने जंगलों की इस तरह से छवि निर्माण किया है कि आज जंगल शब्द का नाम सुनते ही माओवादी याद आते हैं, एक पिछड़ी हुई जगह याद आती है और साथ में डर भी। सरकार और माओवादियों के बीच आदिवासी मरने को विवश हैं। पुलिस माओवादी होने के नाम पर पकड़ लेती है तो दूसरी और माओवादी जबरदस्ती हाथों में बंदुक थमा देते हैं। या तो सरकारों के द्वारा कोई स्कुल नहीं बनाया जाता और यदि भूले-भटके ऐसा किया भी जाता है तो उसे माओवादी विस्फोट कर उड़ा देते हैं।
झारखंड में तो कॉरपोरेट ताकतों की गिद्ध नजर जंगलों और प्राकृतिक संपदा पर टिकी हुई है. उनकी इच्छा तो सिर्फ सस्ता खनिज अयस्क, सस्ते मजदूर, और मोटा मुनाफा कमाने की है। वे पहाड़ खोद रहे हैं, नदियों को सुखा रहे हैं, आदिवासियों को सस्ते मजदूर के रुप में इस्तेमाल कर रहे हैं और अपना घर भर रहे हैं। माओवादियों के नाम पर सरकार जंगलों में पुलिसिया राज कायम कर रही है। आम लोगों को डराया धमकाया जा रहा है, जिससे ये लोग जंगल खाली करने पर मजबूर हैं.और यह सब इसलिए हो रहा है कि कॉरपोरेट कंपनियां आसानी से प्राकृतिक संसाधनों को लूट सके।
पिछले दस सालों में झारखंड सरकार ने बड़ी-बड़ी कॉरपोरेट कंपनियों के साथ लगभग 104 समझौते पर दस्तखत किए हैं। चढ़ते-फिसलते सेंसेक्स की
ऊचाइयों में हमें याद भी नहीं रहता कि आज भी हमारे जंगलों में रहने वाले लोग बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं. आज भी उन तक पीने का पानी, स्वास्थ्य सुविधायें आदि पहुँचा पाने में हमारी सरकार असफल रही है। इस तथाकथित विकास ने बड़े पैमाने पर इन आदिवासियों का विस्थापन किया है। आज कोई नहीं जानता कि वे कहां हैं, किस दशा में हैं. आज जंगलों की पहचान, भाषा, इतिहास, संस्कृति, पहाड़ प्रकृति सब कुछ दांव पर लगा हुआ है औ? इनकों बचाने के लिए उनका संघर्ष भी जारी है।
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साजिश का शिकार हो गई अफीम

समूची दुनिया में कमाई देने वाले कारोबार पर कब्जा जमाने की होड़ मची है। लगता है, मालवा-मेवाड़ के लोग भी इसी कारोबारी साजिश का शिकार हो रहे है। अफीम से मार्फिन निकालने का काम निजी हाथों में सौंपे जाने का केन्द्र सरकार का निर्णय तो ये ही संकेत देता नजर आ रहा है। ये फैसला एनडीए सरकार के वक्त हुआ था और इस पर अमल अब यूपीए सरकार में होता नजर आ रहा है।

सुरेन्द्र सेठी 
नियम, शर्तंे पहले ही तय हो गई थी और दो कंपनियों को इस कारोबार करने के लायक भी मान लिया गया था। अब केन्द्रीय केबिनेट की मोहर लग जाने के बाद दोनों चुनी गई कंपनियां अपना काम काज संचालन की दिशा में आगे बढ़ा सकेगी! नई तकनीक से ये कंपनिया सीधे पापी केप्सुल( डोडा) से मार्फिन निकालेगी। अफीम का उत्पादन लेने के झंझट से ही मुक्ति। ना अफीम होगी और न होगी उसकी तस्करी।
साफ जाहिर है, ये धंधा ही मानों हुआ खत्म! पर, हकीकत ये नहीं है। वास्तविकता कुछ और है। धंधा खत्म नहीं हुआ। वे खत्म होंगे जो अफीम से मादक पदार्थ बना रहे थे। जब अफीम से ही तैयार मार्फिन की डिमांड है तो वो ही तो उन कंपनियों के कारखानों में बनेगा जो सीधे पापी केप्सुल से निकाला जाएगा। डोडा चूरी की खरीदी का झंझट भी खत्म होगा। अभी ये भी नहीं बताया गया है कि नई तकनीक से मार्फिन निकाले जाने पर पोस्ता दाना का क्या होगा। वो निकलेगा या नद्द हो जाएगा। कुल मिलाकर साफ दिख रहा है, मालवा मेवाड़ का अकुत धन संपदा देने वाला अफीम उद्योग अन्तर्राष्ट्रीय कारोबारी ताकतो की साजिश का शिकार हो रहा है। ये भी कांच की तरह साफ नजर आ रहा है, इस भारी भरकम उद्योग को कुचलने में कांग्रेस और भाजपा दोनों उन अन्तर्राष्ट्रीय ताकतों की साजिश का शिकार होने में बराबर की दोषी है।
जाहिर है, मालवा मेवाड़ के किसान की इस आर्थिक ताकत को कुचलने के पीछे उनके भी कोइ बड़े हित सधे होंगे जिन्होंने यह फैसला करवाया है। आश्चर्य है, इतना बड़ा फैसला हो जाने के उपरांत भी मालवा मेवाड़ का अफीम उत्पादक किसान चुप्पी साधे बैठा है। लगता है,वो किसान भी अफीम के खेतों में काम करते करते उसकी महक का शिकार होकर गाफिल हो गया है।
अफीम के पौधों से निकलने वाले मादक द्रव्यों के प्रसंस्करण का काम निजी हाथों में सौंपे जाने के फैसले से मालवा मेवाड़ के अफीम उत्पादक इस इलाके में दोनों मुख्य राजनीतिक दलों के समीकरण भी बदलते नजर आ रहे है! चूंकि फैसला (कांग्रेस)यूपीए सरकार के वक्त हुआ है तो अब सांसद मिनाक्षी मेडम सहित कांग्रेस के दुसरे नेताओं की मजबूरी हो गई है कि वे अब इस फैसले का स्वागत कर लोगों को ये बताये कि इससे तस्करी पर अंकुश लग जायेगा ! इधर भाजपा के नेताओं का सुर कांग्रेसी नेताओं के उलट है। वे इस प्रस्ताव का जोर शोर से विरोध करते हुवे यूपीए सरकार को कौसने में जुट गये है। विचित्र बदलाव दोनों दलों की राजनीति में सामने आया है।
आरंभिक प्रस्ताव एनडीए सरकार के वक्त हुआ था। वो भाजपा तो खुलकर किसानों के हित में खड़ी नजर आ रही है और कांग्रेस की भूमिका खलनायक की नजर आने लगी है। इतना बड़ा फैसला अफीम की खेती को लेकर कांग्रेस की सरकार ने कर लिया और हमारी जागरूक और ताकतवर मानी जाने वाली सांसद मीनाक्षी नटराजन इस पर संसद में एक शब्द भी नहीं बोल पाई। मीनाक्षी मैडम के लोक सभा सदस्य रहते हुए इस फैसले का खामियाजा अतंत: कांग्रेस को ही भोगना पड़ेगा।
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