यदि झारखंड का ही उदाहरण लें तो हाल ही में आॅपरेशन एनाकोंडा के शिकार कितने आदिवासी हुए हैं। लोगों के आंखे फोड़ी जा रही है तो कहीं पुलिस बलात्कार कर रही है। खुद पुलिस भी इस बात को स्वीकार करती है कि चाईबासा जिले के गांव बलवा का रहने वाला मंगल की मौत गलती से हुई है। आज न जाने कितने मंगल देश के जंगलों में मिल जाएंगे।
अविनाश कुमार चंचल
यदि आप विदेशी हैं और केवल दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों तक घूमे हैं तो मुमकिन है आप इस देश को विकसित राष्ट्र के श्रेणी में आराम से रख सकते हैं। जैसा कि पिछले दिनों ओबामा ने भी माना। कभी सांप और जंगलों के लिए मशहूर भारत में आज जंगल शब्द के मायने ही बदल गये हैं। आज कथित विकसित भारत की आत्मा किसी गांव या जंगल में नहीं बसती। दिल्ली और बंगलौर को देखकर ही हम उसे भारत की आत्मा समझ लेते हैं। और इस भारत की नयी आत्मा में रहनेवाले लोग जंगल और जंगलवासियों को जैसे देखते हैं वह देखने का सभ्य तरीका तो बिल्कुल नहीं है। जंगल को वे निहायत जंगली सोच के साथ देखते हैं।
जिस तरह से सरकार जंगलों को कॉरपोरेट हाथों में बिना किसी हिचक के देती जा रही है उससे जंगलों में रहने वाले आदिवासियों के अस्तित्व पर ही खतरा मंडराता नजर आता है। एक तो साल-दर-साल जारी आंकड़े में जंगलों का क्षेत्रफल सिमटता जा रहा है। फिर भी यदि हमारी सरकार सचेत नहीं होती है तो यह चिंताजनक बात है।
जिस तरह से सारे विश्व में पर्यावरण को लेकर चिंताएं जतायी जा रही हैं। क्योटो से लेकर कोपनहेगन तक चर्चा और बहस का दौर गर्म है। ऐसे में चंद कॉरपोरेट हितों को साधने के लिए जंगलों को नष्ट करना न तो देश हित में है और न ही सदियों से जंगलो में रहते आ रहे समुदायों के हित में। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि जिस सरकार पर इन आदिवासियों के लिए विकास की व्यवस्था करने की जिम्मेदारी थी, वही सरकार इन पर गोलियां बरसा रही है। यदि झारखंड का ही उदाहरण लें तो हाल ही में आॅपरेशन एनाकोंडा के शिकार कितने आदिवासी हुए हैं। लोगों के आंखे फोड़ी जा रही है तो कहीं पुलिस बलात्कार कर रही है। खुद पुलिस भी इस बात को स्वीकार करती है कि चाईबासा जिले के गांव बलवा का रहने वाला मंगल की मौत गलती से हुई है। आज न जाने कितने मंगल देश के जंगलों में मिल जाएंगे।
दिल्ली मुंबई की चकाचौंध में हम अक्सर देश के जंगलों और वहां रहने वाले लोगों को भूल जाते हैं। हमारी मीडिया भी इन जंगलों की समस्या को नहीं दिखाना चाहती क्योंकि उनका दर्शक वर्ग अभिजात्य मध्य वर्ग है जिसकी दिलचस्पी कार और नये मोबाईल हैंडसेट में ज्यादा है। यदि मीडिया इन जंगलों के बारे में दिखाती भी है तो तब जब किशनजी या आजाद जैसे नक्स्ली नेताओं की कथित मुठभेड़ में मौत हो जाती है। किसी शहरी मध्यमवर्गीय परिवार के लड़की की हत्या पर जो मीडिया पानी पी-पी कर देश के कानून व्यवस्था को गाली देता है, वही मीडिया जब सोनी सोरी के साथ हुए अमानवीय पुलिसिया जुल्म के खिलाफ आह तक नहीं निकालती तो उसके जनसरोकारी होने का दावा खोखला साबित होता है.आखिर क्या कारण है कि जो मीडिया शहरी महिलाओं के खिलाफ हो रहे जूल्म के लिए आंदोलन करती है वही मीडिया आदिवासी महिलाओं के साथ हो रहे ज्यादतियां पर चुप्पी साधे रहती है।
समस्या तब और गहरी हो जाती है जब कथित सभ्य समाज रोज-ब-रोज आदिवासियों पर हो रहे जूल्म के खिलाफ चुप्पी धारण किये रहता है। वैसे भी जिस आधुनिक समाज ने आदवासियों को जंगलों की तरफ धकेल कर अपना जगह बनाया हो उससे इससे अधिक उम्मीद भी नहीं की जा सकती। मीडिया ने जंगलों की इस तरह से छवि निर्माण किया है कि आज जंगल शब्द का नाम सुनते ही माओवादी याद आते हैं, एक पिछड़ी हुई जगह याद आती है और साथ में डर भी। सरकार और माओवादियों के बीच आदिवासी मरने को विवश हैं। पुलिस माओवादी होने के नाम पर पकड़ लेती है तो दूसरी और माओवादी जबरदस्ती हाथों में बंदुक थमा देते हैं। या तो सरकारों के द्वारा कोई स्कुल नहीं बनाया जाता और यदि भूले-भटके ऐसा किया भी जाता है तो उसे माओवादी विस्फोट कर उड़ा देते हैं।
झारखंड में तो कॉरपोरेट ताकतों की गिद्ध नजर जंगलों और प्राकृतिक संपदा पर टिकी हुई है. उनकी इच्छा तो सिर्फ सस्ता खनिज अयस्क, सस्ते मजदूर, और मोटा मुनाफा कमाने की है। वे पहाड़ खोद रहे हैं, नदियों को सुखा रहे हैं, आदिवासियों को सस्ते मजदूर के रुप में इस्तेमाल कर रहे हैं और अपना घर भर रहे हैं। माओवादियों के नाम पर सरकार जंगलों में पुलिसिया राज कायम कर रही है। आम लोगों को डराया धमकाया जा रहा है, जिससे ये लोग जंगल खाली करने पर मजबूर हैं.और यह सब इसलिए हो रहा है कि कॉरपोरेट कंपनियां आसानी से प्राकृतिक संसाधनों को लूट सके।
पिछले दस सालों में झारखंड सरकार ने बड़ी-बड़ी कॉरपोरेट कंपनियों के साथ लगभग 104 समझौते पर दस्तखत किए हैं। चढ़ते-फिसलते सेंसेक्स की
ऊचाइयों में हमें याद भी नहीं रहता कि आज भी हमारे जंगलों में रहने वाले लोग बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं. आज भी उन तक पीने का पानी, स्वास्थ्य सुविधायें आदि पहुँचा पाने में हमारी सरकार असफल रही है। इस तथाकथित विकास ने बड़े पैमाने पर इन आदिवासियों का विस्थापन किया है। आज कोई नहीं जानता कि वे कहां हैं, किस दशा में हैं. आज जंगलों की पहचान, भाषा, इतिहास, संस्कृति, पहाड़ प्रकृति सब कुछ दांव पर लगा हुआ है औ? इनकों बचाने के लिए उनका संघर्ष भी जारी है।
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अविनाश कुमार चंचल
यदि आप विदेशी हैं और केवल दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों तक घूमे हैं तो मुमकिन है आप इस देश को विकसित राष्ट्र के श्रेणी में आराम से रख सकते हैं। जैसा कि पिछले दिनों ओबामा ने भी माना। कभी सांप और जंगलों के लिए मशहूर भारत में आज जंगल शब्द के मायने ही बदल गये हैं। आज कथित विकसित भारत की आत्मा किसी गांव या जंगल में नहीं बसती। दिल्ली और बंगलौर को देखकर ही हम उसे भारत की आत्मा समझ लेते हैं। और इस भारत की नयी आत्मा में रहनेवाले लोग जंगल और जंगलवासियों को जैसे देखते हैं वह देखने का सभ्य तरीका तो बिल्कुल नहीं है। जंगल को वे निहायत जंगली सोच के साथ देखते हैं।
जिस तरह से सरकार जंगलों को कॉरपोरेट हाथों में बिना किसी हिचक के देती जा रही है उससे जंगलों में रहने वाले आदिवासियों के अस्तित्व पर ही खतरा मंडराता नजर आता है। एक तो साल-दर-साल जारी आंकड़े में जंगलों का क्षेत्रफल सिमटता जा रहा है। फिर भी यदि हमारी सरकार सचेत नहीं होती है तो यह चिंताजनक बात है।
जिस तरह से सारे विश्व में पर्यावरण को लेकर चिंताएं जतायी जा रही हैं। क्योटो से लेकर कोपनहेगन तक चर्चा और बहस का दौर गर्म है। ऐसे में चंद कॉरपोरेट हितों को साधने के लिए जंगलों को नष्ट करना न तो देश हित में है और न ही सदियों से जंगलो में रहते आ रहे समुदायों के हित में। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि जिस सरकार पर इन आदिवासियों के लिए विकास की व्यवस्था करने की जिम्मेदारी थी, वही सरकार इन पर गोलियां बरसा रही है। यदि झारखंड का ही उदाहरण लें तो हाल ही में आॅपरेशन एनाकोंडा के शिकार कितने आदिवासी हुए हैं। लोगों के आंखे फोड़ी जा रही है तो कहीं पुलिस बलात्कार कर रही है। खुद पुलिस भी इस बात को स्वीकार करती है कि चाईबासा जिले के गांव बलवा का रहने वाला मंगल की मौत गलती से हुई है। आज न जाने कितने मंगल देश के जंगलों में मिल जाएंगे।
दिल्ली मुंबई की चकाचौंध में हम अक्सर देश के जंगलों और वहां रहने वाले लोगों को भूल जाते हैं। हमारी मीडिया भी इन जंगलों की समस्या को नहीं दिखाना चाहती क्योंकि उनका दर्शक वर्ग अभिजात्य मध्य वर्ग है जिसकी दिलचस्पी कार और नये मोबाईल हैंडसेट में ज्यादा है। यदि मीडिया इन जंगलों के बारे में दिखाती भी है तो तब जब किशनजी या आजाद जैसे नक्स्ली नेताओं की कथित मुठभेड़ में मौत हो जाती है। किसी शहरी मध्यमवर्गीय परिवार के लड़की की हत्या पर जो मीडिया पानी पी-पी कर देश के कानून व्यवस्था को गाली देता है, वही मीडिया जब सोनी सोरी के साथ हुए अमानवीय पुलिसिया जुल्म के खिलाफ आह तक नहीं निकालती तो उसके जनसरोकारी होने का दावा खोखला साबित होता है.आखिर क्या कारण है कि जो मीडिया शहरी महिलाओं के खिलाफ हो रहे जूल्म के लिए आंदोलन करती है वही मीडिया आदिवासी महिलाओं के साथ हो रहे ज्यादतियां पर चुप्पी साधे रहती है।
समस्या तब और गहरी हो जाती है जब कथित सभ्य समाज रोज-ब-रोज आदिवासियों पर हो रहे जूल्म के खिलाफ चुप्पी धारण किये रहता है। वैसे भी जिस आधुनिक समाज ने आदवासियों को जंगलों की तरफ धकेल कर अपना जगह बनाया हो उससे इससे अधिक उम्मीद भी नहीं की जा सकती। मीडिया ने जंगलों की इस तरह से छवि निर्माण किया है कि आज जंगल शब्द का नाम सुनते ही माओवादी याद आते हैं, एक पिछड़ी हुई जगह याद आती है और साथ में डर भी। सरकार और माओवादियों के बीच आदिवासी मरने को विवश हैं। पुलिस माओवादी होने के नाम पर पकड़ लेती है तो दूसरी और माओवादी जबरदस्ती हाथों में बंदुक थमा देते हैं। या तो सरकारों के द्वारा कोई स्कुल नहीं बनाया जाता और यदि भूले-भटके ऐसा किया भी जाता है तो उसे माओवादी विस्फोट कर उड़ा देते हैं।
झारखंड में तो कॉरपोरेट ताकतों की गिद्ध नजर जंगलों और प्राकृतिक संपदा पर टिकी हुई है. उनकी इच्छा तो सिर्फ सस्ता खनिज अयस्क, सस्ते मजदूर, और मोटा मुनाफा कमाने की है। वे पहाड़ खोद रहे हैं, नदियों को सुखा रहे हैं, आदिवासियों को सस्ते मजदूर के रुप में इस्तेमाल कर रहे हैं और अपना घर भर रहे हैं। माओवादियों के नाम पर सरकार जंगलों में पुलिसिया राज कायम कर रही है। आम लोगों को डराया धमकाया जा रहा है, जिससे ये लोग जंगल खाली करने पर मजबूर हैं.और यह सब इसलिए हो रहा है कि कॉरपोरेट कंपनियां आसानी से प्राकृतिक संसाधनों को लूट सके।
पिछले दस सालों में झारखंड सरकार ने बड़ी-बड़ी कॉरपोरेट कंपनियों के साथ लगभग 104 समझौते पर दस्तखत किए हैं। चढ़ते-फिसलते सेंसेक्स की
ऊचाइयों में हमें याद भी नहीं रहता कि आज भी हमारे जंगलों में रहने वाले लोग बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं. आज भी उन तक पीने का पानी, स्वास्थ्य सुविधायें आदि पहुँचा पाने में हमारी सरकार असफल रही है। इस तथाकथित विकास ने बड़े पैमाने पर इन आदिवासियों का विस्थापन किया है। आज कोई नहीं जानता कि वे कहां हैं, किस दशा में हैं. आज जंगलों की पहचान, भाषा, इतिहास, संस्कृति, पहाड़ प्रकृति सब कुछ दांव पर लगा हुआ है औ? इनकों बचाने के लिए उनका संघर्ष भी जारी है।
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