Thursday 3 July 2014

तस्करी की मंडी में मासूम


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-देश के औसतन हर घंटे में एक बच्चा गायब होता है
-राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, लगभग 44,000 बच्चे हर साल लापता हो जाते हैं
- लापता बच्चों में करीब 11,000 का ही पता लग पाता है
यूएन की हालिया रिपोर्ट के अनुसार भारत मानव तस्करी का बड़ा बाजार बन चुका है
-देश की राजधानी दिल्ली मानव तस्करों की पसंदीदा जगह बनती जा रही है
- देश भर से बच्चों और महिलाओं को लाकर ना केवल आसपास के इलाकों बल्कि विदेशों में भी भेजा जा रहा है
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हर राज्य के अखबारों में बच्चों के गायब होने की खबर किसी ने किसी पन्ने के कोने में झांकती रहती है। देश बड़ा है। आबादी बड़ी है। संभव हो आपके आसपास कोई ऐसा नहीं मिले, जिसके बच्चे होश संभालने से पहले ही गायब हो चुके हो। इसलिए आपको जानकार थोड़ा आश्चर्य होगा, लेकिन हकीकत यह है कि आज देशभर में करीब .आठ सौ गैंग सक्रिय होकर छोटे-छोटे बच्चों को गायब कर मानव तस्करी के धंधे में लगे हैं। यह रिकार्ड सीबीआई का है।
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संजय स्वदेश

बीते दिनों केरल पुलिस के 16 अधिकारियों ने झारखंड के 123 बच्चों को केरल से जसीडीह स्टेशन पहुंचाया गया। ए बच्चे मानव तस्करी के जरिए केरल के अनाथालय में पहुंचाया गया था। पिछले वर्ष भी इसी तरह थोक में बच्चों की मानव तस्करी की एक और मामले का पदार्फाश हुआ था। राजस्थान के भरतपुर रेलवे स्टेशन से 184 बाल मजदूरों को मुक्त करा कर पटना पहुंचाया गया। आए दिन देश के हर राज्य के अखबारों में बच्चों के गायब होने की खबर किसी ने किसी पन्ने के कोने में झांकती रहती हंै। देश बड़ा है। आबादी बड़ी है। संभव हो आपके आसपास कोई ऐसा नहीं मिले, जिसके बच्चे होश संभालने से पहले ही गायब हो चुके हो। इसलिए आपको जानकार थोड़ा आश्चर्य होगा, लेकिन हकीकत यह है कि आज देशभर में करीब आठ सौ गैंग सक्रिय होकर छोटे-छोटे बच्चों को गायब कर मानव तस्करी के धंधे में लगे हैं। यह रिकार्ड सीबीआई का है। मां-बाप का जिगर का जो टुकड़ा दु:खों की हर छांव से बचता रहता है, वह इस गैंग में चंगुल में आने के बाद एक ऐसी दुनिया में गुम हो जाता है, जहां से न बाप का लाड़ रहता है और मां के ममता का आंचल। किसी के अंग को निकाल कर दूसरे में प्रत्यारोपित कर दिया जाता है, तो किसी को देह के धंधे में झोंक दिया जाता है, तो हजारों मजदूरी की भेंट चढ़ जाते हैं। पीड़ित में ज्यादातर दलित समाज से संबंद्ध हैं।
गुमशुदा होने के समान्य आंकड़ों के अनुसार देश के औसतन हर घंटे में एक बच्चा गायब होता है। मतलब देशभर में चौबीस घंटे में कुल 24 लोगों के जिगर के टुकड़ों को छिन कर जिंदगी के अंधेरे में ढकेल दिया जाता है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, लगभग 44,000 बच्चे हर साल लापता हो जाते हैं और उनमें से करीब 11,000 का ही पता लग पाता है। भारत में मानव तस्करी को लेकर यूएन की हालिया रिपोर्ट के अनुसार भारत मानव तस्करी का बड़ा बाजार बन चुका है और देश की राजधानी दिल्ली मानव तस्करों की पसंदीदा जगह बनती जा रही है, जहां देश भर से बच्चों और महिलाओं को लाकर ना केवल आसपास के इलाकों बल्कि विदेशों में भी भेजा जा रहा है। वर्ष 2009 से 2011 के बीच लगभग 1,77,660 बच्चे लापता हुए जिनमें से 1,22,190 बच्चों को पता चल सका, जबकि अभी भी 55 हजार से ज्यादा बच्चे लापता हैं जिसमें से 64 फीसदी यानी लगभग 35,615 नाबालिग लड़कियां हैं। वहीं इस बीच करीब 1 लाख 60 हजार महिलाएं लापता हुईं जिनमें से सिर्फ 1 लाख 3 हजार महिलाओं का ही पता चल सका। वहीं लगभग 56 हजार महिलाएं अब तक लापता हैं। रिपोर्ट के मुताबिक साल 2011-12 में एनजीओ की मदद से 1532 बच्चों को बचाया जा सका। वर्ष 2009-2011 के बीच लापता हुए लगभग 3,094 बच्चों का अबतक कोई सुराग नहीं लग पाया है जिनमें से 1,636 लड़कियां हैं तो वहीं इस दौरान गायब हुईं लगभग 3,786 महिलाएं भी अबतक लापता हैं।
गायब बच्चों के माता-पिता के आंखों के आंसू सूख चुके हैं। पर उनकी यादें हर दिन टिस मारती है। ऐसी बात नहीं है कि इन तरह के अपराधों के रोकथाम के लिए कानून नहीं है। कानून तो है, पर इसका क्रियान्वयन ठीक से नहीं हो पा रहा है। यदि क्रियान्वयन भी होता है तो इसमें इतनी खामियां हैं कि मानव तस्करों के गिरोह पर मजबूती से नकेल नहीं कसा जा पता है। कई मामलों में तो देखा गया है कि ऐसे कानूनों की जानकारी थाने में तैनात पुलिसवालों को भी नहीं होती है। हालांकि गृहमंत्रालय की विभिन्न इकायों के माध्यम से करीब 225 मानव तस्कर विरोधी इकाइयां सक्रिय हैं। गृह मंत्रालय की मानव तस्करी विरोधी इकाइयों 2011 से अब तक देश भर में 4000 से अधिक बचाव अभियान चलाए और 13742 पीड़ितों को बचाया। साथ ही 7087 मानव तस्करों को गिरफ्तार कराया। जल्द ही 100 और नई ऐसी इकाइयां गठित होने वाली है। लेकिन सरकार की मानव तस्कर विरोधी गतिविधियां जिस गति से सक्रिय है, उससे कई ज्यादा तेज तस्करों का गिरोह हैं। देश और देश के बाहर दूर दराज के गरीब ग्रामीणों व आदिवासी क्षेत्र के बच्चे इसी तरह मानव तस्करी की आग में जलते जा रहे हैं। भारत ने मानव तस्करी रोकने के लिए कई अंतरराष्ट्रीय संधियों को मंजूरी दी है। इनमें संयुक्त राष्ट्र ट्रांसनेशनल संगठित अपराध संधि और महिलाओं और बच्चों की तस्करी से जुडी दक्षेस संधि जैसे समझौते शामिल हैं। इसके अलावा बांग्लादेश के साथ द्विपक्षीय समझौता है। इसके बावजूद बांग्लादेश और नेपाल से लगी अंतरराष्ट्रीय सीमा पर मानव तस्करी जोरों पर होती है। बांग्लादेश और नेपाल से सीमा पार मानव तस्करी में संगठित गिरोह शामिल हैं, लेकिन सफल जांच और मुकदमे के शायद ही ऐसे कोई मामले हों, जो अपराधियों के मन में भय पैदा करते हों। कई बार यह देखा गया है कि मानव तस्करी से निपटने के लिए सीमा रक्षक बलों, राष्ट्रीय महिला आयोग, राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग जैसे आयोगों तथा राज्य की कानून प्रवर्तन एजेंसियों के बीच त्वरित समन्वय और सक्रियता की भी भारी कमी है। जब तक  तस्कर पीड़ित मासूमों को अपने परिवार का सदस्य समय कर मानव तस्करों के खिलाफ कार्य करने वाली सरकारी एजेंसियां सक्रिय होकर कार्य नहीं करेंगी, देश में इस काले अमावीय धंधे का थोक बाजार फलता फूलता रहेगा।
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झारखण्ड : नाबालिग आदिवासी आसान शिकार
रांची। झारखण्ड घरेलू नौकरों की सप्लाई और मानव तस्करी का एक अड्डा बन गया है। यहां गरीब आदिवासियों को घरेलू नौकर बनाने के नाम पर एक बड़ा धंधा पिछले कई दशक से निर्वाध रूप से चल रहा है। चल ही नहीं बड़े जोरों से फल फूल भी रहा है। नाबालिक गरीब आदिवासी लड़कियां इसके आसान शिकार बनाई जा रही हैं। काम दिलाने के नाम पर इन्हें राज्य और देश कि सीमाओं से बाहर के नगरों-महानगरों तक ले जाया जाता है, जहां ये अमानवीय स्थितियों में काम करने और जीने को अभिशप्त होती हैं, जिन घरों में ये काम के नाम पर कैद कर दी जाती हैं वहां उनके मालिक अमूमन इनके साथ कैसा बर्ताव करते हैं, यह आए दिन अखबारों में पढ़ने को मिलाता रहता है। करीब 6 हजार आदिवासी लड़कियों के लापता होने की सूचना पुलिस रिकार्ड में है। वास्तविक संख्या इससे कहीं ज्यादा होगी। आश्चर्य तो यह है कि इस समस्या से उबरने के लिए केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय ने कई गैर सरकारी संस्थाओं (एनजीओ) को प्रति व्यक्ति 19,400 रुपए के हिसाब से पैसों का भुगतान किया। उन्होंने इसे कंट्रोल करने के नाम पर उल्टे घरेलू नौकर बनाने का ही काम किया, वो भी सरकारी पैसे से। इन संस्थाओं ने राज्य और केंद्र को गलत रिपोर्टे सौंपी। फर्जी प्रशिक्षणार्थियों के नाम लिखकर पैसे निकाले। कई संस्थाओं ने तो प्रशिक्षण दिया किसी और को, नौकरी का रहा है कोई और, नौकरी भी कैसी-घरेलू नौकर की। हद तो यह है कि ये संस्थाएं आगे भी प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाने की इजाजत मांग रहीं हैं। एक खबर के अनुसार इन संस्थाओं को अब तक 300 करोड़ से भी अधिक की राशि का भुगतान किया जा चुका है। इसमें किसी सरकारी कर्मचारी और अफसरों ने कोई घूस नहीं खाई होगी, ऐसा मानने का दिल नहीं करता। देश की राजघानी दिल्ली समेत कई नगरों-महानगरों के अखबारों में तो बाजाब्ता विज्ञापन छपता है कि अगर आपको आदिवासी नौकरानी चाहिए तो संपर्क करें। नीचे पता और फोन नंबर भी होते हैं। कहने का अर्थ यह कि ये सब खुलेआम चल रहा है और कानून के लंबे हाथ यहाँ तक केवल चंदा वसूलने के लिए पहुंचते हैं।
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मध्यप्रदेश /हजारों नाबालिगों का सुराग नहीं
मध्य प्रदेश में पिछले 5 सालों 4990 नाबालिग लड़कियां लापता हुई हैं, जिनका अभी तक कोई सुराग नहीं मिल पाया है। बालिका जन्म को प्रोत्साहित करने के लिए चल रहे बेटी बचाओ अभियान पर नाबालिग लड़कियों के लापता होने की घटनाओं ने सवाल खड़े कर दिए हैं। यह खुलासा एक बार विधानसभा में सरकार की ओर से दिए गए जवाब में हुआ। कांग्रेस विधायक रामनिवास रावत ने विधानसभा में मानव तस्करी का मसला उठाया। उनका आरोप था कि राज्य में लड़कियों की मानव तस्करी के मामलों में 2008 से 2013 के बीच कई मामले सामने आए हैं। वहीं रावत के आरोपों को नकारते हुए गृहमंत्री उमाशंकर गुप्ता ने बताया कि पांच सालों में लड़कियों की मानव तस्करी के 178 मामले ही सामने आए हैं। इनमें 40 वयस्क और 138 नाबालिग लड़कियों से जुड़े मामले हैं। एमपी में पांच साल में लापता हो गईं पांच हजार लड़कियां। उमाशंकर गुप्ता के जवाब पर सवाल उठाते हुए रावत ने कहा कि पांच साल में लापता हुई नाबालिग लड़कियों में से 4990 का अब तक पता नहीं चल पाया है, लिहाजा यह भी मानव तस्करी से जुड़े मामले हैं। कांग्रेस के अन्य विधायकों ने भी इस बात का समर्थन किया। उमाशंकर गुप्ता ने बताया कि पांच सालों में 29,828 नाबालिग लड़कियां लापता हुई थी, इनमें से 4990 अब भी लापता की श्रेणी में है। कई बार गुम हुई लड़कियां घर वापस आ जाती हैं, मगर उनके परिजन पुलिस को सूचित नहीं करते हैं। लापता लड़कियों का सही ब्यौरा तैयार करने के लिए पुलिस द्वारा विशेष अभियान चलाया जाएगा। गुप्ता ने नाबालिग लड़कियों के लापता होने को मानव तस्करी मानने से ही इंकार कर दिया। गृहमंत्री के जवाब पर कांग्रेस विधायकों ने नाराजगी जताई और कहा कि सरकार एक तरफ बेटी बचाओ अभियान चला कर इस पर करोड़ों रुपए खर्च कर रही है, वहीं दूसरी ओर बेटियां लापता हो रही हैं। और सरकार उन्हें खोज नहीं पा रही है। सरकार के खिलाफ नारेबाजी करते हुए असंतुष्ट कांग्रेस विधायक सदन से बाहर निकल गए।
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छत्तीसगढ़ / सुनहरे सपनों के दलाल सक्रिय
जशपुर। छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले की 97 ग्राम पंचायतों के 258 गांवों की लगभग 3180 लड़कियां घर से लापता हैं। आशंका है कि इन्हें दलालों द्वारा बेच दिया गया है। दरअसल, छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल इलाकों में मानव तस्करी का व्यवसाय अनवरत जारी है। स्वयंसेवी संगठनों की आवाज भी मानव तस्करी को रोक पाने में असफल है। परिणाम यह है कि मासूम, भोली-भाली आदिवासी बालाओं की खरीद-बिक्री छत्तीसगढ़ के आदिवासी जिलों में बेरोकटोक जारी है। शासन-प्रशासन इस ओर ध्यान देने के लिए तैयार नहीं है। इस मामले को लेकर कई बार विधानसभा में भी सरकार से प्रश्न पूछे जा चुके हैं, लेकिन सरकार हमेशा इस पर गोलमोल जवाब देकर टाल देती है।
छत्तीसगढ़, झारखंड और उड़ीसा आदि राज्यों के सीमावर्ती गांवों की आदिवासी बालाओं को प्लेसमेंट एजेंसी के नाम पर दलाल सुनहरे भविष्य का सपना दिखाते हैं और उन्हें बड़े शहरों में ले जाकर बेच देते हैं। मानव व्यापार के मुद्दे ने 2007 में भी जोर पकड़ा था, जब मिशनरियों द्वारा संचालित कुनकुरी की स्वयंसेवी संस्था ने अपने सर्वेक्षण में 3718 युवतियों के गायब होने का खुलासा किया था। संस्था ने बताया था कि इन युवतियों को दिल्ली एवं अन्य महानगरों में बेचा गया। आदिवासी क्षेत्रों में लड़कियों को उठाने वाले दलालों के गिरोह भी सक्रिय हैं। वर्ष 2007 में तत्कालीन भाजपा विधायक राजलिन बेकमेन एवं राकपा के नोबेल वर्मा ने इस मामले को विधानसभा में भी उठाया था। पिछले साल का आई एक रिपोर्ट के अनुसार जशपुर जिले के विभिन्न थानों में 42 लड़कियों के गायब होने की रिपोर्ट दर्ज की गई है, जिनमें 36 मामलों पर पुलिस कार्रवाई कर रही है और 8 मामलों में विवेचना पूरी होने वाली है। आईपीएस एस सी द्विवेदी का मानना है कि लड़कियों के गायब होने के मामले काफी गंभीर होते हैं। इसलिए, किसी भी व्यक्ति या संस्थान के आंकड़ों और बयानों पर कुछ कहना उचित नहीं होगा। वे जिले से हजारों लड़कियों के गायब होने की खबर को वह तथ्यहीन बताते हैं। दूसरी ओर, समाजसेवी संगठनों का आरोप है कि ऐसे मामलों में पुलिस रिपोर्ट दर्ज करने से आनाकानी करती है. वैसे भी, दूरदराज के क्षेत्रों से पुलिस थाने तक पहुंच पाना आदिवासियों के वश की बात नहीं है।
प्लेसमेंट एजेंसी के नाम पर अशिक्षित या अर्धशिक्षित आदिवासी युवतियों को घरों में काम दिलाने के बहाने शहरों में पहुंचा देना कोई मुश्किल काम नहीं है। रोजगार की तलाश में ये युवतियां बड़े शहरों में पहुंचने के बाद असामाजिक तत्वों के चंगुल में फंस जाती हैं। दलालों के चंगुल से मुक्त होकर वापस आईं आदिवासी युवतियों में एड्स के लक्षण पाए गए। सामाजिक कार्यकतार्ओं के अनुसार, आदिवासी क्षेत्रों में मानव तस्करी निरंतर जारी है। लोदाम चौकी के अंतर्गत रहने वाली प्रभावती एवं झारखंड की खुरी निवासी मंजू बताती हैं कि उन्हें एक साल पहले एक महिला दलाल के माध्यम से प्लेसमेंट एजेंसी के हाथों बेचा गया था। दिल्ली के विकासपुरी इलाके में रहने वाले एक अग्रवाल परिवार के यहां इन्हें एक तरह से बंधक बनाकर रखा गया था। दोनों वहां आने-जाने वाले लोगों के कपड़े धोने और खाना बनाने का काम करती थीं। कुछ दिन तक सब कुछ सामान्य रहा। इस बीच अग्रवाल रोज देर रात घर आता और इन पर अत्याचार करता था। वेतन का एक भी पैसा इनके हाथ नहीं लगता था। लड़कियों ने बताया कि उनका वेतन दलाल ले जाता था। घर आने-जाने वाले मेहमान यदि खुश होते तो 10-20 रुपए टिप के रूप में दे देते थे। उन्हीं पैसों के सहारे दोनों लड़कियां किसी तरह अग्रवाल के चंगुल से भागने में सफल हुईं। इनमें से एक युवती को अपने गांव का पता तक नहीं मालूम है। हद तो तब हो गई, जब दोनों लड़कियां शिकायत दर्ज कराने लोदाम चौकी पहुंची। वहां मौजूद पुलिस अधिकारियों ने उनकी फरियाद सुनने तक से इंकार कर दिया था। चाईवासा जिले की चिड़िया गांव निवासी 23 वर्षीय गुरुवारी के पिता पंटू कोल ने बताया कि गांव के शिवलाल ने उसे लगभग दो वर्ष पूर्व दिल्ली में बेच दिया था। उसके साथ वहां दो लड़कियां और भी रहती थीं, जिन्हें संतोष नामक व्यक्ति ने खरीदा था। वहां उनके साथ वह अत्याचार करता था. अत्याचार करने से पहले उन्हें जबरन शराब पिलाई जाती थी। मना करने पर उन्हें बेरहमी से पीटा जाता था। एक दिन सामूहिक अत्याचार के प्रयास से पहले ही गुरुवारी माजरा समझ गई। जब उसने भागने की कोशिश की तो कुछ लोगों ने उसे जबरन शराब पिलाना शुरू कर दिया। यह देख उसने छत से छलांग लगा दी, जिससे उसके दोनों पैरों की हड्डियां टूट गईं। आनन-फानन में दलाल ने उसे ट्रेन पर बिठा दिया। शराब के नशे में धुत्त युवती किसी तरह रायगढ़ पहुंची, जहां एक समाजसेवी ने उसे जिला चिकित्सालय में दाखिल कराया। युवती की दशा देखते हुए भी जिला चिकित्सालय के डॉक्टरों ने उसे डिस्चार्ज कर दिया था।
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विश्व में ढाई करोड़ लोग चढ़े मानव तस्करी की भेंट

मानव तस्करी जैसा जघन्य अपराध हमारे देश में बड़े पैमाने पर जारी है। देश में ऐसे दानव तुल्य लोग भी हैं, जो मानव को बेचने और खरीदने का गोरखधंधा करते हैं और यह सारा कुछ समाज के बड़े-बड़े ठेकेदारों और बड़े-बड़े कर्णधारों की नाक तले होता आया है। हथियारों और मादक पदार्थों की तस्करी के बाद मानव तस्करी विश्व का सबसे अधिक लाभदायक गैर कानूनी व्यापार है।

राजेंद्र राठौर
मानव की खरीद-बिक्री कोई ऐसा कारोबार नहीं है, जिसे आसानी से चलने दिया जाए और कानून-व्यवस्था की जिम्मेदारी उठाने वाले लोग हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें। यह काला कारोबार मानवीयता, सभ्यता और कानून-व्यवस्था के साथ-साथ हमारे धर्मो को भी चुनौती देता है। वर्तमान समय में विश्व के बहुत से देशों को जिन चुनौतियों का सामना है उनमें से एक, मानव तस्करी की समस्या है। विश्व स्तर पर प्रकाशित होने वाले कुछ आंकड़ों से पता चलता है कि पूरे विश्व में ढाई करोड़ से अधिक लोग, मानव तस्करी की भेंट चढ़े हैं और मानव तस्करी में लिप्त लोगों ने इस अमानवीय व गैर कानूनी व्यापार से अरबों डालर कमाए हैं। मानव तस्करी का शिकार होने वाले लोग महिलाओं, बच्चों बल्कि पुरुषों सहित समाज के सभी वर्गों से संबंध रखते हैं। बच्चों को भीख और चोरी जैसे विभिन्न उद्देश्यों के लिए तथा महिलाओं को यौन व्यापार तथा घरों में काम करने और पुरुषों को उद्योगिक केन्द्रों तथा अत्याधिक कठिन व हानिकारक कामों के लिए मानव तस्करी का शिकार बनाया जाता है। मानव तस्करी का सबसे अधिक स्पष्ट व पीड़ादायक पहलू यह है कि अधिकांश मामलों में लोग स्वेच्छा से इसके लिए तैयार हो जाते हैं और उन्हें उसके परिणामों के बारे में सही जानकारी नहीं होती। यूरोपीय और पश्चिमी देशों के लिए अधिकांश मानव तस्कर, मनुष्यों का शिकार करते हैं। इस कारोबार से जुड़े लोगों के संबंध कई राजनेताओं से होते हैं, इस वजह से यह कारोबार धड़ल्ले से चल रहा है। युरोपीय आयोग की जांच से पता चलता है कि विभिन्न गैर सरकारी संस्थाओं, न्यायपालिका के विभागों, पलायनकतार्ओं से संबंधित संगठनों तथा कई सरकारी, क्षेत्रीय व अंतर्राष्ट्रीय संगठनों व संस्थाओं की गतिविधियों के बावजूद मानव तस्करी के संदर्भ में अभी तक विश्वस्त आंकड़ें प्राप्त नहीं हो सके हैं। मानव तस्करी का शिकार होने वालों की सही संख्या का पता लगाना असंभव है, क्योंकि यह पूरी प्रक्रिया गुप्त रूप से की जाती है। इस संदर्भ में तैयार की जाने वाली बहुत सी अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्टों में मानव तस्करी की बढ़Þती घटनाओं के बारे में सही आंकड़े मौजूद न होने पर बल दिया गया है, किंतु, प्रत्एक दशा में संयुक्त राष्ट्रसंघ की रिपोर्ट के अनुसार मानव तस्करी पर अंकुश लगाने के लिए विश्व समुदाय के भरसक प्रयासों के बावजूद, हर वर्ष लगभग 40 लाख लोग मानव तस्करी की भेंट चढ़ते हैं। इनमें अधिकांश महिलाएं और बच्चे होते हैं। हर वर्ष मानव तस्करी का शिकार होने वाले बच्चों और महिलाओं की संख्या 25 लाख से अधिक है। मानव तस्करी पूर्वी व केन्द्रीय यूरोप, आफ्रीका, एशिया तथा दक्षिणी अमरीका से बेल्जियम, जर्मनी, इटली, थाईलैंड, तुर्की, अमरीका जैसे देशों तथा इस्राईल के लिए की जाती है। ब्रिटेन के मानव तस्करी निरोधक विभाग ने वर्ष 2011 में अपनी रिपोर्ट में घोषणा की थी कि मानव तस्करी का शिकार होकर ब्रिटेन पहुंचने वाले लोगों में से 11 प्रतिशत को घरों में काम पर लगाया गया, वहीं 1 प्रतिशत लोगों के अंगों की तस्करी की गई, जबकि 17 प्रतिशत लोगों को अपराधिक गतिविधियों में ढकेला गया और 22 प्रतिशत लोगों से बेगार कराया गया। इसके अलावा 31 प्रतिशत लोगों का यौन शोषण किया गया और 18 प्रतिशत लोगों की तस्करी के कारणों का पता नहीं चल पाया।
28 अरब डॉलर का सलाना धंधा
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं और बच्चों के यौन शोषण से की जाने वाली कमाई ही लगभग 28 अरब डालर प्रति वर्ष है। यूरोपीय संघ के आकंड़ों के अनुसार मानव तस्करी का शिकार होने वाला हर बच्चा, तस्करी करने वाले गुट के लिए 2 लाख डालर से अधिक आमदनी का साधन होता है। यूरोप के वे देश जहां के लिए मानव तस्करी बढ़Þ रही है, उनमें ब्रिटेन भी है। कनाडा भी उन देशों में शामिल है, जहां मानव तस्करी के माफिया सक्रिय हैं। अमरीका में बहुत से लोगों को यौन दासता के लिए खरीदा व बेचा जाता है।
दंड का डर नहीं
विभिन्न देशों में मानव तस्करी के विरुद्ध सक्रिय संगठनों और कार्यकर्ताओं का मानना है कि विश्व में इस अमानवीय व गैर कानूनी व्यापार के विस्तार का एक कारण इस समस्या के निवारण के लिए सरकारों द्वारा आवश्यक कदम नहीं उठाया जाना है। अमरीका में प्रकाशित होने वाले आकंड़ों से पता चलता है कि इस देश में मानव तस्करी का शिकार होने वाले हर 800 लोगों के लिए केवल एक तस्कर को न्यायालय में दंडित किया जाता है और उसे मिलने वाला दंड भी बहुत साधारण होता है, इसीलिए दंड पाने वाले तस्कर जेल से निकलने के बाद पुन: इसी काम में व्यस्त हो जाते हैं।
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