Tuesday 9 October 2012

octobar 2012

कालचक्र
मोहनी हवा में हलाल देहात के हाट

शहर में अपने उत्पादों को बेचते-बेचते ऊब चुकी कॉरपोरेट कंपनियों ने गांवों में बाजार विकसित कर लिया। कॉरपोरेट व्यवस्था की नीति ही है कि वह किसी व जिस भी बाजार में जाए वहां पहले से जमे उसके जैसे उत्पादों के बाजार को किसी न किसी तरह से प्रभावित करें। इसमें सफलता का सबसे बेहतर तरीका है कि प्रतिस्पर्धी की मौलिक योग्यता नष्ट कर दी जाए। संजय स्वदेश
करीब बरस पहले जब देश की अर्थव्यवस्था बदहाल थी, तब उसे मजबूत करने के नाम पर तब के वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने देश के द्वार विदेशी बाजारों के लिए खोल दिए। तरह-तरह के सपनें दिखाकर जनता को विदेशी कंपनियों के लिए तैयार कर लिया गया। हालांकि उससे देश के विकास पर फर्क भी पड़ा। बाजार में पैसे का प्रवाह तेज हुआ, लोग समृद्ध भी हुए। पर इस प्रवाह में देश का पारंपरिक व मौलिक बाजार का वह ढांचा चरमरा गया, जिस कीमत में न केवल संतोष था, बल्कि सुख-चैन भी था। मनमोहन सिंह की मनमोहनी नीतियों के लागू होने से मिले कथित सुख समृद्धि के पीछे से चले आ रहे घातक परिदृश्य अब सामने आने लगे हैं।
बाजार के जानकार कहते हैं कि केवल कृषि उत्पादों और स्वास्थ्य सेवाओं पर करीब 54 लाख करोड़ रुपएा हर साल बहकर देश से बाहर चला जाता है। यदि परंपरागत बाजार के ढांचे में इतने धन का प्रवाह देश में ही होता तो शायद उदारीकरण की समृद्धि के पीछे चली नाकरात्मक चीजें देश की मौलिक व पारंपरिक ढांचे को नहीं तोड़ती।
उदारीकरण की मनमोहनी हवा चलन से पहले गांव के बाजार पारंपरिक हाट की शक्ल में ही गुलजार होते थे। यही समय गांव के बाजार के गुलजार होने का उत्तराद्ध काल था। करीब दो दशक में ही आधुनिक बाजार के थपेड़ों में पारंपरिक गांव के बाजार में सजने वाले वे सभी उत्पाद गायब हो चुके हैं, जो कुटीर उद्योगों के माध्यम से ग्रामीण अर्थव्यवस्था की संरचना को मजबूत किए हुए थे। यहां एक उदाहरण गिनाने से बात नहीं बनेगी। 20 साल पहले जिन्होंने हाट का झरोखा देखा होगा, उनके मन मस्तिष्क में उन उत्पादों के रेखाचित्र सहज की उभर आएंगे। फिलहाल तब से अब तक देश करीब डेढ़ पीढ़ी आगे आ चुका है।
जरा गौर से देंखे। मन में मंथन करें। जिस गांव में शहर की हर सुविधा के कमोवेश पहुंचने के दंभ पर सफल विकास के दावे किए जा रहे हैं, उसका असली लाभ कौन ले रहा है। कहने और उदाहरण देने की जरूरत नहीं है कि उन फटेहाल ग्रामीण या किसानों की संख्या में कमी नहीं आई है जो आज भी जी तोड़ मेहनत मजदूरी और महंगी लागत के बाद आराम की रोटी खाने लायक मुनाफे से दूर हैं। पर शहर में अपने उत्पादों को बेचते-बेचते ऊब चुकी कॉरपोरेट कंपनियों ने गांवों में बाजार विकसित कर लिया। कॉरपोरेट व्यवस्था की नीति ही है कि वह किसी व जिस भी बाजार में जाए वहां पहले से जमे उसके जैसे उत्पादों के बाजार को किसी न किसी तरह से प्रभावित करें। इसमें सफलता का सबसे बेहतर तरीका है कि प्रतिस्पर्धी की मौलिक योग्यता नष्ट कर दी जाए। मतलब दूसरे की मौलिक उत्पादन की क्षमता की संरचना को ही खंडित करके बाजार में अपनी पैठ बना कर जेब में मोटा मुनाफा ठूसा जा सकता है।
विदेशी पूंजी के बयार से जब बाजार गुलजार हुआ तब लघु और मध्यम श्रेणी की औद्योगिक गतिविधियों में काफी हलचल हुई, उसके आंकड़ों को गिना कर सरकार ने समय-समय पर अपनी पीठ भी थपथपाई। आज उसी नीति की सरकार के आंकड़े जो हकीकत बयां कर रहे हैं, वे भविष्य के लिए सुखद नहीं कहे जा सकते। सरकार ने संसद में जो ताजा जानकारी दी है उसके मुताबिक 31 मार्च 2007 की स्थिति के मुताबिक देश में पांच लाख पंजीकृत उद्यमों को बंद किया गया। सबसे ज्यादा 82966 इकाइयां तमिलनाडु में बंद हुर्इं। इसके बाद 80616 इकाइयां उत्तर प्रदेश में, 47581 इकाइयां कर्नाटक में, 41856 इकाइयां महाराष्ट्र में, 36502 इकाइयां मध्य प्रदेश में और 34945 इकाइयां गुजरात में बंद करनी पड़ीं।
जो उद्यमी आर्थिक रूप से थोड़े मजबूत होते हैं और अपने उद्यम के दम पर भविष्य में बेहतर कमाई की संभावना देखते हैं, अमूमन वे ही पंजीयन कराते हैं। बंद होने के सरकारी आंकड़ों के आधार पर यह अनुमान लगाना कठिन नहीं होगा कि जब पंजीकृत उद्यमों को अकाल मौत आ गई, तब देश के परंपरागत कुटीर उद्योगों का क्या हश्र हुआ हो, वे कैसे दम तोड़े होंगे। उनसे जुड़े लाखों लोगों इससे टूटने के बाद कैसे जीवन जी रहे होंगे। इनकी संख्या का कितना अनुमान लगाएंगे, ए तो गैर पंजीकृत थे।
कॉरपोरेट के रूप में आई विदेशी पूंजी का तेज प्रवाह ने ही कुटीर उद्योगों की मौलिक कार्यकुशलता की योग्यता को नष्ट कर दिया। गांवों में ही तैयार होने वाले पारंपरिक उत्पाद के ढांचे को तोड़ दिया। हसियां, हथौड़ा, कुदाल, फावड़े तक बनाने के धंधे कॉरपोरेट कंपनियों ने गांवों के कारीगरों से छीन लिए। इस पेशे से जुड़े कारीगर अब कहां है? कभी कभार बड़े शहर की शक्ल में बदलते अर्द्धविकसित शहर के किसी चौक-चौराहे पर ऐसे कारीगर परिवार के साथ फटेहाली में तंबू लगाए दिख सकते हैं। पर उन्हें हमेशा काम मिलता हो, ऐसी बात नहीं है। सब कुछ तो बाजार में है। यह तो एक उदहारण है। लकड़ी के कारिगरों के हाल देख लें। बड़े-बड़े धन्ना सेठों ने इसके कारोबार पर कब्जा कर लिया। इस परंपरागत पेशे जुड़े कारीगर अब उनके लिए मामूली रकम में रौदा घंसते हुए उनकी   जेबें मोटी कर रहे हैं। हालांकि कंपनियों ने लकड़ी की उपयोगिता के ढेरों विकल्प दे दिए हैं। यह सब कुछ गांव तक पहुंच चुका है। शहर से लगे गांव के अस्तित्व तो कब के मिल चुके हैं। दूरवर्ती गांवों में तेजी से रियल इस्टेट का कारोबार सधे हुए कदमों से पांव पसार रहा है। शायद इसी दंभ पर स्टील कंपनियां निकट भविष्य में केवल ग्रामीण इलाके में अपने लिए 17 हजार करोड़ डॉलर का बाजार देख अपनी तिजोरी बढ़Þाने के सपनें संजो रही हैं।
फिलहाल वर्तमान भारतीय ग्रामीण बाजार पर एक ताजे शोध रिपोर्ट में यह दावा किया गया है कि इसका दायरा करीब 500 अरब डॉलर तक का पहुंच गया है। इस दायरे की रफ्तार शहरी बाजार से भी तेज है। मतलब शहरों में जो खपत चाहिए, उस बाजार का दायरा अब नहीं बढ़Þेगा, बस कंपनियों को उत्पादन की आपूर्ति में बनाए रखने भर की मशक्कत करनी है। हालांकि इसमें प्रतियोगिता भी है। लेकिन इस गलाकाट प्रतियोगिता में कोई स्वतंत्र रूप से मौलिक उत्पादन लेकर अपनी जगह बना सके, इसकी गुंजाइश कम बची है। देश के ग्रामीण इलाकों के व्यापक दायरे में तीस प्रतिशत की गति से दौड़ कर आते बाजार को आम लोग भले ही विकास के नाम पर स्वागत कर रहे हों, लेकिन इस गति से और दूर होती मौलिक उत्पाद की टूटती संरचना के पुर्नजीवन की बात हास्यास्पद हो जाएगी। इसके पक्ष में उम्मीद की कोई प्रखर किरण भी आएगी, इसकी अपेक्षा करना बेकार है, क्योंकि दो दशक के उदारीकरण के दौर ने एक ऐसी पीढ़ी बना दी है जो केवल इसी बाजार से उत्पन्न समाज में जी सकता है,उसके आगे की पीढ़ी भी इसी पीढ़ी का अनुसरण करेगी।
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21 सितंबर 2012 को राष्ट्र के नाम प्रधान मंत्री का संदेश

दुनिया उन पर रहम नहीं करती जो अपनी
मुश्किलों का खुद हल नहीं करते

इसके नतीजे में पेट्रोलियम पदार्थों पर दी जाने वाली सब्सिडी में बड़े पैमाने पर इजाफा हुआ है। पिछले साल यह सब्सिडी 1 लाख चालीस हजार करोड़ रुपए थी। अगर हमने कोई कार्रवाई न की होती तो इस साल यह सब्सिडी बढ़Þकर 2 लाख करोड़ रुपए से भी ज्यादा हो जाती। इसके लिए पैसा कहां से आता? पैसा पेड़ों पर तो लगता नहीं है। अगर हमने कोई कार्रवाई नहीं की होती तो वित्तीय घाटा कहीं ज्यादा बढ़Þ जाता।


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भाइयो और बहनो,

आज शाम मैं आपको यह बताना चाहता हूं कि सरकार ने किन वजहों से हाल ही में आर्थिक नीतियों से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण फैसले लिए हैं। कुछ राजनीतिक दलों ने इन फैसलों का विरोध किया है। आपको यह सच्चाई जानने का हक है कि हमने ए निर्णय क्यों लिए हैं।
कोई भी सरकार आम आदमी पर बोझ नहीं डालना चाहती। हमारी सरकार को दो बार आम आदमी की जरूरतों का ख्याल रखने के लिए ही चुना गया है।
सरकार की यह जिम्मेदारी है कि वह राष्ट्रहित में काम करे और जनता के भविष्य को सुरक्षित रखे। इसके लिए हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हमारी अर्थव्यवस्था का तेजी से विकास हो जिससे देश के नौजवानों के लिए पर्याप्त संख्या में अच्छे रोजगार के नए मौके पैदा हों। तेज आर्थिक विकास इसलिए भी जरूरी है कि हम शिक्षा, स्वास्थ्य, आवासीय सुविधाओं और ग्रामीण इलाकों में रोजगार उपलब्ध कराने के लिए जरूरी रकम जुटा सकें।
आज चुनौती यह है कि हमें यह काम ऐसे समय पर करना है जब विश्व अर्थव्यवस्था बड़ी मुश्किलों के दौर से गुजर रही है। अमरीका और यूरोप आर्थिक मंदी और वित्तीय कठिनाइयों से निपटने की कोशिश कर रहे हैं। यहां तक कि चीन को भी आर्थिक मंदी का एहसास हो रहा है।
इस सबका असर हम पर भी हुआ है, हालांकि मेरा यह मानना है कि हम दुनिया भर में छाई आर्थिक मंदी के असर को काबू में रखने में काफी हद तक कामयाब हुए हैं।
आज हम ऐसे मुकाम पर हैं, जहां पर हम अपने विकास में आई मंदी को खत्म कर सकते हैं। हमें देश के अंदर और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निवेशकों के विश्वास को फिर से कायम करना होगा। जो फैसले हमने हाल ही में लिए हैं, वे इस मकसद को हासिल करने के लिए जरूरी थे।
मैं सबसे पहले डीजल के दामों में बढ़Þोत्तरी और एलपीजी सिलिंडरों पर लगाई गई सीमा के बारे में बात करना चाहूंगा।
हम अपनी जरूरत के तेल का करीब 80 प्रतिशत आयात करते हैं और पिछले चार सालों के दौरान विश्व बाजार में तेल की कीमतों में तेजी से बढ़Þोत्तरी हुई है। हमने इन बढ़Þी हुई कीमतों का सारा बोझ आप पर नहीं पड़ने दिया। हमारी कोशिश यह रही है कि जहां तक हो सके आपको इस परेशानी से बचाए रखें। इसके नतीजे में पेट्रोलियम पदार्थों पर दी जाने वाली सब्सिडी में बड़े पैमाने पर इजाफा हुआ है। पिछले साल यह सब्सिडी 1 लाख चालीस हजार करोड़ रुपए थी। अगर हमने कोई कार्रवाई न की होती तो इस साल यह सब्सिडी बढ़Þकर 2 लाख करोड़ रुपए से भी ज्यादा हो जाती। इसके लिए पैसा कहां से आता? पैसा पेड़ों पर तो लगता नहीं है। अगर हमने कोई कार्रवाई नहीं की होती तो वित्तीय घाटा कहीं ज्यादा बढ़Þ जाता। यानि कि सरकारी आमदनी के मुकाबले खर्च बर्दाश्त की हद से ज्यादा बढ़Þ जाता। अगर इसको रोका नहीं जाता तो रोजमर्रा के इस्तेमाल की चीजों की कीमतें और तेजी से बढ़Þने लगतीं। निवेशकों का विश्वास भारत में कम हो जाता। निवेशक, चाहे वह घरेलू हों या विदेशी, हमारी अर्थव्यवस्था में पूंजी लगाने से कतराने लगते। ब्याज की दरें बढ़Þ जातीं और हमारी कंपनियां देश के बाहर कर्ज नहीं ले पातीं।   बेरोजगारी भी बढ़Þ जाती।
पिछली मर्तबा 1991 में हमने ऐसी मुश्किल का सामना किया था। उस समय कोई भी हमें छोटे से छोटा कर्ज देने के लिए तैयार नहीं था। उस संकट का हम कड़े कदम उठाकर ही सामना कर पाए थे। उन कदमों के अच्छे नतीजे आज हम देख रहे हैं। आज हम उस स्थिति में तो नहीं हैं लेकिन इससे पहले कि लोगों का भरोसा हमारी अर्थव्यवस्था में खत्म हो जाए, हमें जरूरी कदम उठाने होंगे। मुझे यह अच्छी तरह मालूम है कि 1991 में क्या हुआ था। प्रधानमंत्री होने के नाते मेरा यह फर्ज है कि मैं हालात पर काबू पाने के लिए कड़े कदम उठाऊं। दुनिया उन पर रहम नहीं करती जो अपनी मुश्किलों को खुद हल नहीं करते हैं। आज बहुत से यूरोपीय देश ऐसी स्थिति का सामना कर रहे हैं। वे अपनी जिÞम्मेदारियों का खर्च नहीं उठा पा रहे हैं और दूसरों से मदद की उम्मीद कर रहे हैं। वे अपने कर्मचारियों के वेतन या पेंशन में कटौती करने पर मजबूर हैं ताकि कर्ज देने वालों का भरोसा हासिल कर सकें।
मेरा पक्का इरादा है कि मैं भारत को इस स्थिति में नहीं पहुंचने दूंगा। लेकिन मैं अपनी कोशिश में तभी कामयाब हो सकूंगा जब आपको ए समझा सकूं कि हमने हाल के कदम क्यों उठाए हैं।
डीजल पर होने वाले घाटे को पूरी तरह खत्म करने के लिए डीजल का मूल्य 17 रुपए प्रति लीटर बढ़Þाने की जरूरत थी। लेकिन हमने सिर्फ 5 रुपए प्रति लीटर मूल्य वृद्धि की है। डीजल की अधिकतर खपत खुशहाल तबकों, कारोबार और कारखानों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली बड़ी कारों और एस.यू.वी. के लिए होती है। इन सबको सब्सिडी देने के लिए क्या सरकार को बड़े वित्तीय घाटों को बर्दाश्त करना चाहिए?
पेट्रोल के दामों को न बढ़Þने देने के लिए हमने पेट्रोल पर टैक्स 5 रुपए प्रति लीटर कम किया है। यह हमने इसलिए किया कि स्कूटरों और मोटरसाइकिलों पर चलने वाले मध्य वर्ग के करोड़ों लोगों पर बोझ और न बढ़Þे।
जहां तक एलपीजी की बात है, हमने एक साल में रियायती दरों पर 6 सिलिंडरों की सीमा तय की है। हमारी आबादी के करीब आधे लोग, जिन्हें सहायता की सबसे ज्यादा जरूरत है, साल भर में 6 या उससे कम सिलिंडर ही इस्तेमाल करते हैं। हमने इस बात को सुनिश्चित किया है कि उनकी जरूरतें पूरी होती रहें। बाकी लोगों को भी रियायती दरों पर 6 सिलिंडर मिलेंगे। पर इससे अधिक सिलिंडरों के लिए उन्हें ज्यादा कीमत देनी होगी।
हमने मिट्टी के तेल की कीमतों को नहीं बढ़Þने दिया है क्योंकि इसका इस्तेमाल गरीब लोग करते हैं।
मेरे प्यारे भाइयो और बहनो,
मैं आपको बताना चाहता हूं कि कीमतों में इस वृद्धि के बाद भी भारत में डीजल और एलपीजी के दाम बांगलादेश, नेपाल, श्रीलंका और पाकिस्तान से कम हैं। फिर भी पेट्रोलियम पदार्थों पर कुल सब्सिडी 160 हजार करोड़ रुपए रहेगी। स्वास्थ्य और शिक्षा पर हम कुल मिलाकर इससे कम खर्च करते हैं। हम कीमतें और ज्यादा बढ़Þाने से रुक गए क्योंकि मुझे उम्मीद है कि तेल के दामों में गिरावट आएगी।
अब मैं खुदरा व्यापार यानि रिटेल ट्रेड में विदेशी निवेश की अनुमति देने के फैसले का जिÞक्र करना चाहूंगा। कुछ लोगों का मानना है कि इससे छोटे व्यापारियों को नुकसान पहुंचेगा। यह सच नहीं है। संगठित और आधुनिक खुदरा व्यापार पहले से ही हमारे देश में मौजूद है और बढ़Þ रहा है। हमारे सभी खास शहरों में बड़े खुदरा व्यापारी मौजूद हैं। हमारी राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में अनेक नए शॉपिग सेंटर हैं। पर हाल के सालों में यहां छोटी दुकानों की तादाद में भी तीन-गुना बढ़Þोत्तरी हुई है। एक बढ़Þती हुई अर्थव्यवस्था में बड़े एवं छोटे कारोबार, दोनों के बढ़Þने के लिए जगह रहती है। यह डर बेबुनियाद है कि छोटे खुदरा कारोबारी मिट जाएंगे।

हमें यह भी याद रखना चाहिए कि संगठित खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश की अनुमति देने से किसानों को लाभ होगा। हमने जो नियम बनाए हैं उनमें यह शर्त है कि जो विदेशी कंपनियां सीधा निवेश करेंगी उन्हें अपने धन का 50 प्रतिशत हिस्सा नए गोदामों, कोल्?ड स्?टोरेज और आधुनिक ट्रांसपोर्टर व्यवस्थाओं को बनाने के लिए लगाना होगा। इससे यह फायदा होगा कि हमारे फलों और सब्जियों का 30 प्रतिशत हिस्सा, जो अभी स्?टोरेज और ट्रांसपोर्टर में कमियों की वजह से खराब हो जाता है, वह उपभोक्ताओं तक पहुंच सकेगा। बरबादी कम होने के साथ-साथ किसानों को मिलने वाले दाम बढ़Þेंगे और उपभोक्ताओं को चीजें कम दामों पर मिलेंगी। संगठित खुदरा व्यापार का विकास होने से अच्छी किस्म के रोजगार के लाखों नए मौके पैदा होंगे।
हम यह जानते हैं कि कुछ राजनीतिक दल हमारे इस कदम से सहमत नहीं हैं। इसीलिए राज्य सरकारों को यह छूट दी गई है कि वह इस बात का फैसला खुद करें कि उनके राज्य में खुदरा व्यापार के लिए विदेशी निवेश आ सकता है या नहीं। लेकिन किसी भी राज्य को यह हक नहीं है कि वह अन्य राज्यों को अपने किसानों, नौजवानों और उपभोक्ताओं के लिए बेहतर जिÞंदगी ढूंढने से रोके।
1991 में, जब हमने भारत में उत्पादन के क्षेत्र में विदेशी निवेश का रास्ता खोला था, तो बहुत से लोगों को फिक्र हुई थी। आज भारतीय कंपनियां देश और विदेश दोनों में विदेशी कंपनियों से मुकाबला कर रही हैं और अन्य देशों में भी निवेश कर रही हैं। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि विदेशी कंपनियां इन्?फॉरमेशन टेक्?नोलॉजी, स्टील एवं आॅटो उद्योग जैसे क्षेत्रों में हमारे नौजवानों के लिए रोजगार के नए मौके पैदा करा रही हैं। मुझे यकीन है कि   खुदरा कारोबार के क्षेत्र में भी ऐसा ही होगा।
मेरे प्यारे भाइयो और बहनो,
यूपीए सरकार आम आदमी की सरकार है। पिछले 8 वर्षों में हमारी अर्थव्यवस्था 8.2 प्रतिशत प्रति वर्ष की रिकार्ड से बढ़Þी है। हमने यह सुनिश्चित किया है कि गरीबी ज्यादा तेजी से घटे, कृषि का विकास तेज हो और गांवों में भी लोग उपभोग की वस्तुओं को ज्यादा इस्तेमाल कर सकें। हमें और ज्यादा कोशिश करने की जरूरत है और हम ऐसा ही करेंगे। आम आदमी को फायदा पहुंचाने के लिए हमें आर्थिक विकास की गति को बढ़Þाना है। हमें भारी वित्तीय घाटों से भी बचना होगा ताकि भारत की अर्थव्यवस्था के प्रति विश्वास मजबूत हो।  मैं आपसे यह वादा करता हूं कि देश को तेज और इन्क्सूसिव विकास के रास्ते पर वापस लाने के लिए मैं हर मुमकिन कोशिश करूंगा। परंतु मुझे आपके विश्वास और समर्थन की जरूरत है। आप उन लोगों के बहकावे में न आएं जो आपको डराकर और गलत जानकारी देकर गुमराह करना चाहते हैं। 1991 में इन लोगों ने इसी तरह के हथकंडे अपनाए थे। उस वक्त भी वह कामयाब नहीं हुए थे। और इस बार भी वह नाकाम रहेंगे। मुझे भारत की जनता की सूझ-बूझ में पूरा विश्वास है।
हमें राष्ट्र के हितों के लिए बहुत काम करना है और इसमें हम देर नहीं करेंगे। कई मौकों पर हमें आसान रास्तों को छोड़कर मुश्किल राह अपनाने की जरूरत होती है। यह एक ऐसा ही मौका है। कड़े कदम उठाने का वक्त आ गया है। इस वक्त मुझे आपके विश्वास, सहयोग और समर्थन की जरूरत है।
इस महान देश का प्रधान मंत्री होने के नाते मैं आप सभी से कहता हूं कि आप मेरे हाथ मजबूत करें ताकि हम देश को आगे ले जा सकें और अपने और आने वाली पीढ़ियों के लिए खुशहाल भविष्य का निर्माण कर सकें।
जय हिन्द !

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पाक में नापाक हिंदू hoti लड़कियां

पाकिस्तान में हिंदुओं के हालात बेहद खराब है। पिछले दो दिनों सैकड़ों हिंदुओं के जत्थे भारत में तीर्थयात्रा के बहाने से आए। सीमा पर उन्हें रोका गया। उनसे गीता पर शपथ दिलाई गई कि वे भारत जाकर पाकिस्तान को बदनाम नहीं करेंगे। लेकिन भारत आते ही पाक हिंदुओं ने अपने ऊपर पाकिस्तान में होने वाले जुल्मों की दस्ता सुनानी शुरू कर दी है। अब वे कह रहे हैं कि भले ही उन्हें गोली मार दी जाए, लेकिन वे भारत से वापस नहीं जाएंगे। उनका कहना है कि जिस धरती पर उनकी बहन, बेटियों को जानबूझ कर नापाक किया जा रहा है, वह रहे तो कैसे   रहें?
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शादाब समी/ संजय स्वदेश

भारत के बहुसंख्यक हिंदु समुदाय पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में अल्पसंख्यक है। वहां उन्हें हिंदू होने की भारी कीमत चुकानी पड़ रही है। उनके साथ लूट की घटनाएं आम हैं। हिंदू व्यापारियों का उपहरण कोई आश्चर्य का विषय नहीं हैं। हर क्षेत्र में भेदभाव से पाक में रहने वाले हिंदू उब कर देश छोड़ने के लिए मजबूर हैं। कुछ तो अपनी पूरा जमीन जायदाद बेच कर किसी न किसी बहाने भारत आ कर भीड़ में गुम हो जाना चाहते हैं। भारत आने वाले हिंदुओं की दास्तां निश्चय ही दुखांत है। पिछले दिनों मीडिया में आई रिपोर्ट से स्पष्ट हो गया कि पाकिस्तान में हिंदू महिलाओं की आबरू सुरक्षित नहीं है। इसकी पुष्टि तो पाकिस्तान की सरकारी रिपोर्ट भी करती है। वर्ष 2010 में पाकिस्तान के मानवाधिकार आयोग ने एक रिपोर्ट में कहा था कि पाक में हर महीने 25 हिंदू लड़कियों का अपहरण हो रहा है। बाली उमर में ही हिंदू लड़कियों का अपहरण कर उनके साथ दुष्कर्म किया जाता है। उन्हें धर्म  परिवर्तन करा कर निकाह किया जाता है और घर में नौकरों की तरह काम कराया लिया जाता है। पहले सिंध प्रांत के गोटकी जिले से आये एक परिवार ने कहा कि सबसे अधिक समस्या सिंध में है। दिन दहाडे हिंदू लड़कियों को उठा लेना और उसके साथ निकाह कर लेना आम है। पुलिस हमारी मदद नहीं करती है। रिपोर्ट करने पर ‘ईश निंदा कानून’ लगा कर ‘बंद’ करने की धमकी देते हैं।
ुइसी वर्ष मार्च में पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट में एक मामला गया। 19 वर्षीय रिंकल कमारी नाम की लड़की ने कोर्ट से एक दर्दनाक गुहार लगाई। रिंकल ने कोर्ट से कहा कि उसे हिंदू होने के कारण पाकिस्तान में  न्याय नहीं मिल सकता है, लिहाजा उसे कोर्ट के कमरे में ही मौत दे दी जाए। सिंध प्रांत की रहने वाली रिंकल और उसके परिवार पर गांव छोड़ने दबाव था। गावं में रहने के लिए धार्मांतरण की शर्त रखी गई थी। बार-बार पुलिस से सुरक्षा की गुहार लगाने के बाद भी उनकी किसी ने सुध नहीं ली। यह दर्द भरी दास्ता अकेले रिंकल की नहीं है। पाकिस्तान की अनेक हिंदू युवतियों की कमोबेश कुछ ऐसी ही कहानी हैं। पाकिस्तान में केवल हिंदू लड़कियां ही प्रताड़ना की शिकार नहीं है। इसाई, सिख समुदाय की भी जवान लड़कियों का अपहरण होता है। उनकी इज्जत से खिलवाड़ की जाती है और उन पर जबरन धर्मांतरण थोपा जाता है। रिपोर्ट कहती है कि पाकिस्तान में अल्पसंख्यक लड़कियों को इस तरह से
प्रताड़ित करने वाले स्थानीय स्तर पर प्रभाव रखने वाले असामाजिक तत्व वाले लोग होते हैं। गत दिनों पकिस्तान मीडिया में आई एक रिपोर्ट के मुताबिक हर वर्ष करीब 300 हिंदू लड़कियों का जबरन धर्मांतरण करार कर विवाह किया जाता है। मर्जी नहीं होने पर जबरन उनकी अस्मत को तार-तार किया जाता है। पाक से भारत आने वाले हर हिंदू के मुंह से यह सुना जा सकता है कि वहां जवान बेटियों के संग रहना खतर से खाली नहीं है।
पिछले दिनों पाकिस्तान में हुए एक ताजा सर्वे में चौंकानेवाली सच्चाई सामने आई कि पाकिस्तान में 74 फीसदी हिन्दू और ईसाई लड़कियां जानबूझकर नापाक कर दी जाती हैं। पाकिस्तान की बहुसंख्यक मुस्लिम कम्युनिटी जानबूझकर उनके साथ सेक्सुअल ह्रासमेन्ट करता है। जबकि 43 फीसदी हिन्दुओं और इसाइयों का कहना है कि उनके साथ काम करने की जगह से लेकर स्कूलों तक अल्पसंख्यक होने के कारण भेदभाव किया जाता है।
पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों पर यह सर्वे एक मानवाधिकार संगठन नेशनल कमीशन फार जस्टिस एंड पीस ने किया है। इस सर्वे में पंजाब और सिन्ध के 26 जिलों को शामिल किया गया है जहां पाकिस्तान के कुल अल्पसंख्यकों का 95 फीसदी आबादी निवास करती है। पाकिस्तान के एक हजार अल्पसंख्यकों पर किए गए इस सर्वे में बताया गया है कि शैक्षणिक स्थानों पर महिलाओं के साथ जानबूझकर उत्पीड़न किया जाता है। यहां स्कूलों की जो हालत है उसमें महिलाओं के लिए इस्लामिक विषयों की पढ़ाई अनिवार्य है। महिलाओं का कहना है कि कोई और सब्जेक्ट न होने पर इस्लामिक विषयों की पढ़ाई उनकी मजबूरी है। मानवाधिकार संगठन के कार्यकारी सचिव पीटर जैकब  कहते हैं कि यह सर्वे हिन्दू और ईसाई अल्पसंख्यक महिलाओं के बीच किया गया क्योंकि पाकिस्तान में यही दो बड़े अल्पसंख्यक समुदाय है. पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों में हिन्दू और इसाई 92 प्रतिशत हैं।
सर्वे में यह नतीजा सामने आया है कि पाकिस्तान में अल्पसंख्यक महिलाओं के लिए कोई नीति नहीं है। उन्हें हर जगह गैरबराबरी का सामना करना पड़ता है और उनका जमकर उत्पीड़न किया जाता है। पाकिस्तान में अल्पसंख्यक महिलाओं में साक्षरता दर 47 प्रतिशत है जो कि राष्ट्रीय औसत से भी दस प्रतिशत कम है. पाकिस्तान में शिक्षा के अलावा जबरन धर्मांतरण और यौन शोषण अल्पसंख्यक महिलाओं के लिए सबसे बड़ा संकट है। पाकिस्तान में पच्चीस लाख से पचास लाख के करीब हिन्दू बचे हैं जबकि यहां ईसाइयों की आबादी तीस लाख के करीब है। पाकिस्तान के अधिकांश अल्पसंख्यक सिंध और पंजाब क्षेत्र में रहते हैं। पाकिस्तान में औसतन हर साल 25 से 45 मामले हिंदू लड़कियों के अपहरण के दर्ज किए जाते हैं।
17 अगस्त 1974 को पाकिस्तान के पहले गवर्नर जनरल मोहम्मद अली जिन्ना ने अपने एक भाषण के दौरान नव निर्मित पाकिस्तान के लोगों से कहा था, आप इस देश में स्वतंत्र हैं। पाकिस्तान के लिए यह   बात मायने नहीं रखती है कि आप किस धर्म या जाति के हैं। आप इबादत करने के लिए मस्जिद जाएं या फिर मंदिर, आप पूरी तरह आजाद हैं। लेकिन कुछ ही सालों में खुद पाकिस्तान के लोगों ने अपने कायदे-आजम की इस बात को ताक पर रख दिया। आज 65 साल के बाद स्थिति इस मोड़ पर पहुंच चुकी है कि अल्पसंख्यक खासकर हिंदू समुदाय के लोग अपना सब-कुछ पाकिस्तान में बेचकर या छोड़कर भारत में शरण मांगने आ रहे हैं। हिंदू बाहुल्य क्षेत्र सिंध, बलूचिस्तान और पंजाब जैसे स्थानों पर स्थिति बेहद बदतर हो चुकी है। पिछले दिनों पाकिस्तान के एक निजी टीवी चैनल पर एक हिंदू लड़के द्वारा इस्लाम कबूल करने की घटना लाइव दिखाई गई। इसका पाकिस्तान के ही कई संगठनों ने विरोध किया। उनका तर्क था कि आस्था के निजी मामले को इस तरह उछालने से पाकिस्तान में रह रहे अल्पसंख्यकों के प्रति गलत संदेश जाएगा, और अंतत: हुआ भी यही। पाकिस्तान से कई हिंदू तीर्थयात्रा के बहाने भारत आ गए हैं और अब वापस लौटना नहीं चाहते। आने वाले दिनों में इस संख्या में और भी इजाफा होने की संभावना है।

धर्म-परिवर्तन और अपहरण
पाकिस्तान में हिंदू समुदाय के लोगों के अपहरण, धर्म परिवर्तन और लूटपाट आदि की घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं। वर्ष 2010 में पाक के मानवाधिकार आयोग ने एक रिपोर्ट में कहा था कि पाक में हर महीने 25 हिंदू लड़कियों का अपहरण हो रहा है।
ईशनिंदा कानून
यहां ईशनिंदा विरोधी कानून से अल्पसंख्यकों की परेशानी काफी बढ़ी है। इससे न केवल हिंदुओं, बल्कि सिखों और ईसाइयों को भी काफी दिक्कतें झेलनी पड़ी हैं। राष्टÑपति आसिफ अली जरदारी ने भी माना है कि देश में इस कानून का दुरुपयोग किया गया है। पाक के कट्टरपंथी लोगों का भारत विरोधी रवैया भी अल्पसंख्यकों के प्रति घटनाओं के लिए जिम्मेदार है। भारत में होने वाली सांप्रदयिक घटना से लेकर कश्मीर मुद्दे तक का असर पाकिस्तान में रहने वाले हिंदुओं पर होता है।
थोड़ी सी राहत
कराची में हिंदू अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति में हैं। यहां के धर्मनिरपेक्ष माहौल पर कट्टरता कम हावी है। ब्रिटिश काल में स्थापित धर्मनिरपेक्ष संस्थानों में यहां के हिंदू अच्छी शिक्षा पाते हैं। खेल और सरकारी नौकरी जैसे अवसर भी यहां मौजूद हैं।
राजनीति में भूमिका कम
पाकिस्तान हिंदू पंचायत और पाकिस्तानी हिंदू वेलफेयर एसोसिएशन पाकिस्तान की मुख्य सिविल आॅर्गेनाइजेशन हैं, जो हिंदुओं से संबंधित सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक मुद्दों का प्रतिनिधित्व करती हैं। अल्पसंख्यक मामलों का मंत्रालय भी धार्मिक मामलों में हिंदुओं के लिए काम करता है। सरकार ने पाकिस्तान के हिंदू बाहुल्य क्षेत्रों के लिए अलग से निर्वाचन क्षेत्र बनाया है, जहां पर उनके प्रतिनिधि खड़े होते हैं। हालांकि सक्रिय राजनीति में इनकी भूमिका बहुत कम है।
ढेरो मंदिर टूटे
1940 के दशक में हुए सांप्रदायिक दंगों में पाकिस्तानी इलाके में स्थित कई मंदिर तोड़े गए, लेकिन सरकार व समुदाय के लोगों के प्रयासों से कई अहम धार्मिक स्थल सुरक्षित बचा लिए गए। इनमें कराची का श्री स्वामीनारायण मंदिर एक प्रमुख स्थल है।
कितने अल्पसंख्यक
 बांग्लादेश विभाजन से पूर्व पाकिस्तान में हिंदुओं की कुल आबादी करीब 22 फीसदी थी। बांग्लादेश विभाजन के बाद 1.7 फीसदी ही हिंदू ही पाकिस्तान में रह गए। अधिकांश अमीर घरानों के हिंदुओं ने देश छोड़ दिया है। पाकिस्तान हिंदू परिषद के अनुसार यह आंकड़ा 5.5 फीसदी है।
कभी हिंदू बहुल था सिंध
आंकड़े बताते हैं कि एक वक्त सिंध प्रांत हिंदू बहुल था, लेकिन इस समय वहां की आबादी में हिंदू केवल 17 फीसदी बचे हैं। पाकिस्तान हिंदू काउंसिल के आंकड़ों के मुताबिक इस वक्त पाकिस्तान में हिंदुओं की कुल संख्या के करीब 94 फीसदी हिंदू सिंध प्रांत में रहते हैं। पंजाब में 4.78 फीसदी, बलूचिस्तान में 1.61 फीसदी और करीब एक फीसदी हिंदू अन्य इलाकों में रहते हैं।
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