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मुक्ति का मार्ग मार्केट है, मंदिर नहीं
बाजार के दबाव में वर्ण व्यवस्था की यह बुनियाद टूट रही है कि हर वर्ण का एक खास कर्म होता है। मार्केट में जाति के झंडाबरदार यह नहीं कह सकते कि सेवा का काम शूद्र करेगा और पढ़ाई-लिखाई ब्राह्माण ही करेगा, या फिर अकाउंटिंग का काम वैश्य करेगा और गार्ड तथा बाउंसर सिर्फ क्षत्रिय जाति के होंगे। अब अकाउंटेंट वह बनेगा जिसने अकाउंटेंसी की पढ़ाई की है और गार्ड वह बनेगा जिसकी कद-काठी ठीक है।
दिलीप मंडल
उड़ीसा के केन्द्रपाड़ा जिले के एक जगन्नाथ मंदिर में दलितों को दीवार के पार खड़े होकर नौ छेदों के पार देवता के दर्शन करने पड़ते थे। कुछ दिन पहले यह खबर आई कि अब एक ही रास्ते से दलित भी प्रवेश करेंगे और एक खास जगह से देवता के दर्शन करेंगे। दलितों के आत्मसम्मान हासिल करने की दिशा में इसे कितना बड़ा कदम माना जाए? केन्द्रपाड़ा के दलितों को जिस अधिकार के लिए लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी वह अधिकार शहरों में रहने वाले दलितों को अपने आप हासिल है। ऐसे में दलित आबादी, यानी देश के हर छह में से एक आदमी के सामने सवाल यह है कि गांव में रहकर अपने सम्मान के लिए लड़ें या शहरों में आकर जन्म तथा कर्म के रिश्ते को खत्म कर दें और कई बंधनों से आजाद हो जाएं।
गांवों को लेकर हो सकता है कि कुछ लोगों के दिमाग में कोई रूमानी कल्पना हो। कोई गांधीवादी यह कह सकता है कि गांव आत्मनिर्भर इकाई के तौर पर एक आदर्श है। लेकिन समाज के एक बड़े हिस्से के लिए गांव कोई शानदार जगह नहीं है। खासकर दलितों के लिए तो कतई नहीं। नेशनल सैंपल सर्वे की रिपोर्ट के मुताबिक देश के 16 फीसदी दलितों के पास सिर्फ नौ फीसदी जमीन है। नौ फीसदी का आंकड़ा फिर भी ठीकठाक लगता है। गांवों की हकीकत को जो भी जानता है उसे इस बात का एहसास होगा कि यह जमीन गांव की सबसे उपजाऊ जमीन कतई नहीं होगी। भूमि संबंधों में दलितों की बुरी स्थिति के ऐतिहासिक कारण हैं। शास्त्रों के मुताबिक, हिन्दू वर्ण व्यवस्था के बाहर की इन जातियों को जमीन या पशुधन रखने की इजाजत नहीं थी। पंजाब जैसे राज्यों में आजादी से पहले कुछ खास जातियों को ही खेती की जमीन खरीदने का हक था और उन जातियों में दलित शामिल नहीं थे। दलितों के घर अब भी बाकी जातियों की आबादी से दूर होते हैं और देश के ज्यादातर हिस्सों में उनके तालाब और कुएं आजादी के 60 साल बाद भी अलग हैं। अब यह सब सिर्फ इसलिए नहीं बदल जाएगा कि भारत सरकार ने अस्पृश्यता निवारण कानून लागू कर दिया है और देश में दलित उत्पीड़न के खिलाफ कानून बना हुआ है।
दलित भारतीय समाज व्यवस्था की विशिष्ट पहचान है। दुनिया के तमाम देशों में भेदभाव अलग-अलग रूपों में मौजूद है, लेकिन वर्ण व्यवस्था हिन्दू समाज की खासियत है। अमेरिका में चमड़े के रंग या नस्ल के आधार पर भेदभाव है, लेकिन भारत में जेनेटिक तौर पर किसी अंतर के बिना ही जाति का उससे भी सख्त बंटवारा है। जाति के बगैर कोई व्यक्ति हिन्दू नहीं हो सकता। वर्ण व्यवस्था के बगैर सनातन धर्म का कोई वजूद नहीं है। यानी हर हिन्दू किसी न किसी जाति में जन्म लेता है और हर हाल में उसी जाति में मरता है। खानपान में समय के साथ कहीं-कहीं खुलापन आया भी है, पर अपनी जाति के बाहर विवाह की इजाजत वर्ण व्यवस्था नहीं देती। और फिर दलित तो हिंदू वर्ण व्यवस्था का हिस्सा भी नहीं है। चार वर्णों से बाहर के इस समुदाय की तुलना आप मध्ययुगीन यूरोप के कृषि दास से ही कर सकते हैं। यूरोप में इंडस्ट्रियल रिवोल्यूशन के बाद नए प्रॉडक्शन सिस्टम के आने और शहरीकरण के असर से कृषि दास समाज में एकाकार हो गए। आज उनकी पहचान नामुमकिन है।
भारत के दलितों की मुक्ति का भी इससे अलग कोई रास्ता नहीं है। दलितों की दुनिया का बदलना दरअसल उत्पादन संबंधों के आधुनिक रूप के साथ उनके एकरूप होने से सीधा जुड़ा हुआ है। अच्छी इंगलिश बोलने वाले हर शख्स को आज कॉल सेंटर में 15,000 रुपये से ज्यादा की नौकरी मिल सकती है। कॉल सेंटर में काम करने का स्किल रखने वालों की इतनी कमी है कि वहां के एचआर डिपाटर्मेंट को इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि नौकरी के लिए आने वाला दलित है या ब्राह्माण। रिटेल से लेकर हॉस्पिटैलिटी सेक्टर तक में काबिल लोगों की जरूरत अचानक बढ़ी है। बाजार के दबाव में वर्ण व्यवस्था की यह बुनियाद टूट रही है कि हर वर्ण का एक खास कर्म होता है। मार्केट में जाति के झंडाबरदार यह नहीं कह सकते कि सेवा का काम शूद्र करेगा और पढ़ाई-लिखाई ब्राह्माण ही करेगा, या फिर अकाउंटिंग का काम वैश्य करेगा और गार्ड तथा बाउंसर सिर्फ क्षत्रिय जाति के होंगे। अब अकाउंटेंट वह बनेगा जिसने अकाउंटेंसी की पढ़ाई की है और गार्ड वह बनेगा जिसकी कद-काठी ठीक है। प्लानिंग का काम मैनेजमेंट पढ़ने वाले करेंगे। जो इन कामों के काबिल नहीं हैं, वे सेवा का काम करेंगे, और वे ब्राह्माण भी हो सकते हैं। मार्केट का असर ऐसा है कि दलित मैनेजर भी आपको मिल जाएंगे और ब्राह्माण सेवक भी। सरकारी सेक्टर में फिर भी टारगेट न होने की वजह से नियुक्तियों में पक्षपात की गुंजाइश है, ऊंचे पदों पर पहले से बैठे अफसर अपने लोगों की भतिर्यां करा सकते हैं, लेकिन प्राइवेट सेक्टर में परफॉर्म करने के दबाव की वजह से कोई मैनेजर शायद ही कभी योग्यता के अलावा किसी और पैमाने पर नियुक्तियां करता है।
कई दलित चिंतक अब कहने लगे हैं कि इंगलिश बोलने वाला कोई दलित मैला नहीं ढोता। उनका यह कहना निराधार नहीं है। इंगलिश एजुकेशन, शहरीकरण और सूटबूट वाले दलित के लिए कई दरवाजे अपने आप खुल जाते हैं। मंदिरों के दरवाजे भी उनमें शामिल हैं। शहरों के मंदिरों के दरवाजे पर कोई यह नहीं पूछता कि आप किस जाति के हैं। और वैसे भी ऐसे पढ़े-लिखे समर्थ दलित को सम्मान के लिए मंदिर का मोहताज क्यों होना चाहिए? हिन्दू वर्ण व्यवस्था उन्हें अपना हिस्सा तो मानती नहीं है। कई दलित आईएएस अफसरों और प्रफेशनल्स ने सवर्ण लड़कियों से शादी की है और ऐसी शादियों की मान्यता के लिए ये समाज की ओर लाचारी से नहीं देख रहे हैं। जबकि जिन गांवों की महिमा गांधीवादी और कई कवि गाते हैं, वहां ऐसी शादी करने वालों को अक्सर जलाकर या गला घोंटकर मार डाला जाता है। इस बात में शक की कोई गुंजाइश नहीं है कि भारत का नया समाज शहरों में ही बन रहा है। दलित को उसी रास्ते पर आगे बढ़ना है।
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मौत पर जश्न, जन्म पर शोक
राजस्थान की गुमनाम जनजाति, सड़क किनारे रहते हंै सातिया समुदाय के गिने-चुने परिवार, मरने पर खरीदते हैं मेवे, शराब। बाहरी लोगों से रहते हंै दूर। नवजातों को देते हैं बद्दुआएं...
विस्फोट न्यूज नेटवर्क
कोटा। जिंदगी में शायद ही ऐसा देखने को मिलता है, जब मौत पर मातम की बजाय जश्न मनाया जाता है। मगर राजस्थान की एक जनजाति ने जिंदगी के आखिरी सफर को एक उत्सव का रूप दे दिया है। यहां किसी की मौत पर शोक नहीं मनाया जाता बल्कि खुशियां मनाई जाती हैं। ठीक इसके उलट किसी के जन्म पर जरूर इस समुदाय में शोक मनाया जाता है।
पूरे राज्य में सड़क के किनारे अस्थायी आश्रय बनाकर रहने वाले सातिया समुदाय में करीब 24 परिवार हैं। यह जनजाति मूल रूप से सड़क किनारे पर मर जाने वाले मवेशियों को ठिकाने लगाने के काम पर ही निर्भर है। इस जाति के लोग पढ़े लिखे भी नहीं हैं और आपराधिक कामों में लिप्त इन लोगों को शराब की लत भी है। इस जाति की महिलाएं भी वेश्यावृति के लिए जानी जाती हैं।
तमाम बुराइयों के बावजूद कुछ ऐसी खास बातें हैं, जिससे यह जनजाति अपनी खास पहचान बनाने में सफल रही है। समुदाय के किसी व्यक्ति की मौत के बाद का अंतिम संस्कार यहां के लोगों के लिए जश्न का समारोह बन जाता है। समुदाय के एक व्यक्ति जंका सातिया ने बताया, इस मौके पर हम नए कपड़े पहनते हैं, मिठाई, मेवे और शराब आदि खरीदते हैं।
शव यात्रा के दौरान लोग ढोल-नगाड़ों की थाप पर नाचते-गाते हैं। अंतिम संस्कार के दौरान दावत का आयोजन होता है, जिसमें शराब पीने के साथ लोग वेश्याओं के साथ नाचते हैं। शव के पूरी तरह से जल जाने तक यह सब चलता रहता है। समुदाय के एक अन्य व्यक्ति की नजरों में जन्म और जीवन भगवान की ओर से दिया गया अभिशाप है। उसका कहना है, मौत हमारे लिए एक उत्सव है, जिससे आत्मा शारीरिक बंधन से आजाद हो जाती है। इस समुदाय पर रिसर्च करने वाले एके सक्सेना का कहना है कि सातिया समुदाय के लोग जीवन को अभिशाप मानते हैं। उन्होंने कहा, हालांकि इस समुदाय में अगर लड़की पैदा होती है, तो उसे ज्यादा तवज्जो दी जाती है क्योंकि वह वेश्यावृति के जरिए परिवार के लिए पैसा कमा सकती है। इस जनजाति में जब किसी का जन्म होता है तो गहरा शोक मनाया जाता है और नवजात शिशु को बद्दुआएं दी जाती हैं। परिवार में कई दिनों तक खाना भी नहीं बनाया जाता है। शहर से दूर सड़कों पर जीवन बिताने वाले यह लोग अक्सर बाहरी लोगों से दूरियां बनाए रखते हैं। सामाजिक कार्यकर्ता अनवर अहमद ने बताया कि इंदिरा आवासीय योजना के तहत इस समुदाय के लोगों को पक्के घर भी मुहैया कराए गए, लेकिन इन्होंने उसे बेच दिया। इस जाति के लोग अपने परिवार के बच्चों को स्कूल भी नहीं भेजते हैं। विरासत एवं प्रकृति फोटोग्राफर एएच जैदी का कहना है कि इनके उत्थान के लिए अब तक कोई भी एनजीओ या सामाजिक संगठन आगे नहीं आया है।
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बिना जुताई भी खेती संभव
मध्यप्रदेश के होशंगाबाद शहर से भोपाल की ओर मात्र 3 किलोमीटर दूर है- टाईटस फार्म। यहां गत 25 साल से कुदरती खेती का अनोखा प्रयोग किया जा रहा है। राजू टाईटस जो स्वयं पहले रासायनिक खेती करते थे, अब कुदरती खेती के लिए विख्यात हो गए हैं। उनके फार्म को देखने देश-विदेश से लोग आते हैं। बाबा मायाराम
मध्यप्रदेश के होशंगाबाद शहर से भोपाल की ओर मात्र 3 किलोमीटर दूर है- टाईटस फार्म। यहां पिछले 25 साल से कुदरती खेती का अनोखा प्रयोग करने वाले राजू टाईटस पहले स्वयं रासायनिक खेती करते थे। उनका कहना है कि अब रासायनिक खेती के दिन लद गए हैं। बेजा रासायनिक खाद, कीटनाशक, नींदानाशक और जुताई से मिट्टी की उर्वरक शक्ति कम हो गई है। तवा बांध की सिंचाई से शुरुआत में समृद्धि जरूर दिखाई दी, लेकिन अब वह दिवास्वप्न में बदल गई है। ऐसे में वैकल्पिक खेती के बारे में विचार करना जरूरी है। इसी परिप्रेक्ष्य में कुदरती खेती का प्रयोग ध्यान खींचता है।
पिछले दिनों जब मैं उनके फार्म पर पहुंचा, तब वे मुख्य द्वार पर मेरा इंतजार कर रहे थे। सबसे पहले उन्होंने चाय के बदले प्राकृतिक पेय पिलाया, जिसे गुड़, नींबू और पानी से तैयार किया गया था। खेत के अमरूद खिलाए और फिर खेत दिखाने ले गए। थोड़ी देर में हम खेतों पर पहुंच गए। इस अनूठे प्रयोग में बराबर की हिस्सेदार उनकी पत्नी शालिनी भी साथ थीं। हरे-भरे अमरूद के वृक्ष हवा में लहलहा रहे थे। एक युवा मजदूर हाथ में यंत्र लिए खरपतवार को सुला रहा था। क्रिम्पर रोलर से खरपतवार को सुला दिया जाता है। इस खेत में गेहूं की बोवनी हो चुकी थी। खेत में ग्रीन ग्राउंड कवर कर रखा था। यानी खरपतवार से ढंककर खेत को रखना। यहां खेत को धान के पुआल से ढंक रखा था। इसमें गाजरघास जैसी खरपतवार का इस्तेमाल किया गया था। पूछने पर बताया कि सामान्य सिंचाई के बाद पुआल या खरपतवार ढंक दी जाती है। सूर्य की किरणों से ऊर्जा पाकर सूखे पुआल के बीच से हरे गेहूं के पौधे ऊपर आ जाते हैं। यह देखना सुखद था। राजू बता रहे थे कि खेत में पुआल ढंकने से सूक्ष्म जीवाणु, केंचुआ, कीड़े-मकोड़े पैदा हो जाते हैं और जमीन को छिद्रित, पोला और पानीदार बनाते हैं। ये सब मिलकर जमीन को उपजाऊ और ताकतवर बनाते हैं, जिससे फसल अच्छी होती है। उनका कहना है कि रासायनिक खेती में धान के खेत में पानी भरकर उसे मचाया जाता है, जिससे पानी नीचे नहीं जा पाता। धरती में नहीं समाता। खेत का ढकाव एक ओर जहां जमीन में जल संरक्षण करता है, यहां के उथले कुओं का जल स्तर बढ़ता है, वहीं दूसरी ओर फसल को कीट प्रकोप से बचाता है, क्योंकि वहां अनेक फसल के कीटों के दुश्मन निवास करते हैं। जिससे रोग लगते ही नहीं हैं।
उनके मुताबिक जब भी खेत में जुताई और बखरनी की जाती है, बारीक मिट्टी को बारिश बहा ले जाती है। साल दर साल खाद-मिट्टी की उपजाऊ परत बारिश में बह जाती है। जिससे खेत भूखे-प्यासे रह जाते हैं और इसलिए इसमें बाहरी निवेश की जरूरत पड़ती है। यानी बाहर से रासायनिक खाद वगैरह डालने की जरूरत पड़ती है। जमीन के अंदर की जैविक खाद, जिसे वैज्ञानिक कार्बन कहते हैं, जुताई से गैस बनकर उड़ जाती है, जो धरती के गरम होने और मौसम परिवर्तन में सहायक होती है। ग्लोबल वार्मिंग और मौसम परिवर्तन इस समय दुनिया में सबसे ज्यादा चिंता का सबब बने हुए हैं। लेकिन अगर बिना जुताई (नो टिलिंग) की पद्धति से खेती की जाए तो यह समस्या नहीं होगी और अब तो जिले में जो ट्रेक्टर-हारवैस्टर की खेती हो रही है, वह ग्लोबल वार्मिंग के हिसाब से उचित नहीं मानी जा सकती।
राजू टाईटस के पास 13.5 एकड़ जमीन है, जिसमें 12 एकड़ में खेती करते हैं। इस साल पड़ोसी की कुछ जमीन पर यह प्रयोग कर रहे हैं। इस 12 एकड़ जमीन में से 11 एकड़ में सुबबूल (आस्ट्रेलियन अगेसिया) का घना जंगल है। यह चारे की एक प्रजाति है। इससे पशुओं के लिए चारा और ईंधन के लिए लकड़ियां मिलती हैं। जिन्हें वे सस्ते दामों पर गरीब मजदूरों को बेच देते हैं। उनके अनुसार सिर्फ लकड़ी बेचने से सालाना आय ढाई लाख की हो जाती है। सिर्फ एक एकड़ जमीन पर ही खेती की जा रही है। राजू बताते हैं कि वह खेती भोजन की जरूरत के अनुसार करते हैं, बाजार के अनुसार नहीं। हमारी जरूरत एक एकड़ से ही पूरी हो जाती है। यहां से हमें अनाज, फल, दूध और सब्जियां मिल जाते हैं, जो परिवार की जरूरत पूरी कर देते हैं। जाड़े में गेहूं, गर्मी में मक्का व मूंग और बारिश में धान की फसल भोजन की आवश्यकता की पूर्ति करते हैं।
कुदरती खेती को ऋषि खेती भी कहते हैं। राजू टाईटस इसे कुदरती-जैविक खेती कहते हैं। जिसमें बाहरी निवेश कुछ भी नहीं डाला जाता। न ही खेत की हल से जुताई की जाती है और न बाहर से किसी प्रकार की मानव निर्मित खाद डाली जाती है। नो टिलिंग यानी बिना जुताई के खेती। पिछले 25 साल से उन्होंने अपने खेत में हल नहीं चलाया और न ही कीटों को मारने के लिए कीटनाशक व दवा का इस्तेमाल किया। यह पूरी तरह अहिंसक कुदरती खेती है। इसकी शुरूआत जापान के मशहूर कृषि वैज्ञानिक मासानोबू फुकुओवा ने की थी, जो स्वयं यहां आए थे। फुकुओवा ने बरसों तक अपने खेत में प्रयोग किया और एक किताब लिखी- ह्यवन स्ट्रा रेवोल्यूशनह्ण यानी एक तिनके से आई क्रांति। यह पद्धति इतनी सफल हुई है कि अमेरिका में भी अब इसका प्रयोग किया जा रहा है, जहां बिना जुताई की खेती का तेजी से चलन बढ़ा है।
आमतौर से खेती में फसल के अलावा किसी भी तरह के खरपतवार, पेड़-पौधों को दुश्मन माना जाता है, लेकिन कुदरती खेती इन्हीं के सहअस्तित्व से होती है। इन सबसे मित्रवत व्यवहार किया जाता है। पेड़-पौधों को काटा नहीं जाता। जिससे खेत में हरियाली बनी रहती है। राजू बताते हैं कि पेड़ों के कारण खेतों में गहराई तक जड़ों का जाल बुना रहता है, जिससे जमीन ताकतवर बनती जाती है। अनाज और फसलों के पौधे पेड़ों की छाया तले अच्छे होते हैं। छाया का असर जमीन के उपजाऊ होने पर निर्भर करता है। चूंकि हमारी जमीन की उर्वरता और ताकत अधिक है, इसलिए पेड़ों की छाया का फसल पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता। बिना जुताई (नो टिलिंग) के खेती मुश्किल है, ऐसा लगना स्वाभाविक है। जब पहली बार मैंने सुना था, तब मुझे भी विश्वास नहीं हुआ था। लेकिन अब सब देखने के बाद सभी शंकाएं निर्मूल हो गईं। दरअसल, इस पर्यावरणीय पद्धति में मिट्टी की उर्वरता उत्तरोतर बढ़ती जाती है। जबकि रासायनिक खेती में यह क्रमश: घटती जाती है और एक स्थिति के बाद उसमें कुछ भी नहीं उपजता। वह बंजर हो जाती है। वास्तव में कुदरती खेती एक जीवन पद्धति है। इसमें मानव की भूख मिटाने के साथ समस्त जीव-जगत के पालन का विचार है। इससे शुद्ध हवा और पानी मिलता है। धरती को गर्म होने से बचाने और मौसम को नियंत्रण करने में भी मददगार है। इसे ऋषि खेती इसलिए कहा जाता है कि क्योंकि ऋषि-मुनि कंद-मूल, फल और दूध को भोजन के रूप में ग्रहण करते थे। बहुत कम जमीन पर मोटे अनाजों को उपजाते थे। वे धरती को अपनी मां के समान मानते थे। उसे धरती माता कहते थे। उससे उतना ही लेते थे, जितनी जरूरत होती थी। सब कुछ निचोड़ने की नीयत नहीं होती थी। इस सबके मद्देनजर कुदरती खेती भी एक रास्ता हो सकता है। भले ही आज यह व्यावहारिक न लगे लेकिन इसमें वैकल्पिक खेती के सूत्र दिखाई देते हैं।
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हर महीने 70 किसान कर रहे आत्महत्या
विस्फोट न्यूज नेटवर्क/नई दिल्ली
सरकार की तमाम कोशिशों और दावों के बावजूद कर्ज के बोझ तले किसानों की आत्महत्या का सिलसिला नहीं रूक रहा है. देश में हर महीने 70 से अधिक किसान आत्महत्या कर रहे हैं. जबकि एक लाख 25 हजार परिवार सूदखोरों के चंगुल में फंसे हुए हैं...
सूचना के अधिकार कानून के तहत मिली जानकारी के अनुसार, देश में 2008 से 2011 के बीच देशभर में 3,340 किसानों ने आत्महत्या की. इस तरह से हर महीने देश में 70 से अधिक किसान आत्महत्या कर रहे हैं।
आरटीआई के तहत कृषि मंत्रालय के कृषि एवं सहकारिता विभाग से मिली जानकारी के अनुसार, 2008 से 2011 के दौरान सबसे अधिक महाराष्ट्र में 1,862 किसानों ने आत्महत्या की। आंध्रप्रदेश में 1,065 किसानों ने आत्महत्या की. कर्नाटक में इस अवधि में 371 किसानों ने आत्महत्या की। इस अवधि में पंजाब में 31 किसानों ने आत्महत्या की जबकि केरल में 11 किसानों ने कर्ज से तंग आ कर मौत को गले लगाया।
सबसे अधिक कर्ज सूदखोरों से
आरटीआई के तहत मिली जानकारी के अनुसार, देश भर में सबसे अधिक किसानों ने सूदखोरों से कर्ज लिया है। देश में किसानों के 1,25,000 परिवारों के सूदखोरों एवं महाजनों से कर्ज लिया है जबकि 53,902 किसान परिवारों ने व्यापारियों से कर्ज लिया। बैंकों से 1,17,100 किसान परिवारों ने कर्ज लिया जबकि कोओपरेटिव सोसाइटी से किसानों के 1,14,785 परिवारों ने कर्ज लिया. सरकार से 14,769 किसान परिवारों ने और अपने रिश्तेदारों एवं मित्रों से 77,602 किसान परिवारों ने कर्ज लिया। आरटीआई कार्यकर्ता गोपाल प्रसाद ने सूचना के अधिकार के तहत 2007-12 के दौरान भारत में किसानों की मौतों का संख्यावार, क्षेत्रवार ब्यौरा मांगा था। उन किसानों की संख्या के बारे में जानकारी मांगी गई थी जिन्होंने सूदखोरो से कर्ज लिया था।
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अत्याचार के नरक से निकलती हैं चूड़ियां
विस्फोट न्यूज नेटवर्क/नई दिल्ली
महिलाओं की कलाई में चार चांद लगाने वाली चूड़ियों की खनन भले ही सुनने वालों के मन को गुदगुदा देते हों, लेकिन इन चूड़ियों के के उत्पादन के पीछे जो सच्चाई है, उसे जानकर हर मन कड़वा हो जाता है। उत्तर प्रदेश के फिरोजाबाद में कार्यरत लाखों चूड़ी मजदूरों को जिस नरकीय माहौल में रह कर खूबसूरत चूड़ियों के उत्पादन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, उसकी कल्पना चूडी पहनने और खरीदने वाली महिलाएं शायद ही कर पाती होंगी। अधिकतर मजदूर महिलाएं हैं। उन्हें न केवल निर्धारित से कम मजदूरी पर काम करना पड़ रहा है बल्कि ऐसी विषय और नरकीय परिस्तियों में जीने का मजबूतर हैं, जिसे सुन कर मानवता शर्मशार हो जाए। चूड़ी फैक्ट्रियों के मालिकों का मजदूरों पर अत्याचारों का आलम यह है कि उन्हें दोपहर का भोजन करने तक का समय नहीं दिया जाता और वे खाना खाने के लिए हाथ तक धोने नहीं जा सकते क्योंकि मालिकों को लगता है कि वे हाथ धोने जाएंगे तो कांच गलाने वाली भट्टी के जलते रहने के कारण र्इंधन के साथ समय की भी बर्बादी होगी। वरिष्ठ सदस्य हेमानंद बिस्वाल की अध्यक्षता वाली श्रम और रोजगार मंत्रालय संबंधी स्थायी समिति ने मानसून सत्र में पेश अपनी 32वीं रिपोर्ट में चूड़ी कामगारों की बदहाली के आंकड़ें और हालात की कहानी बयां की है। चूड़ी मजदूरों के शोषण का एक आश्चर्यजनक पहलू यह भी है कि जो चूड़ियां बाजार में एक दर्जन में 12 मिलती हैं, उसी एक दर्जन में चूड़ी फैक्ट्रियों के मालिक मजदूरों से 24 चूड़ियां बनवाते हैं। यह न केवल कामगारों बल्कि बाजार में उन चूड़ियोंं को खरीदने वाले उपभोक्ताओं का भी शोषण है।
फिरोजाबाद का प्राचीन इतिहास : फिरोजाबाद के चूड़ी कारोबार के इतिहास के बारे में कहा गया है कि प्राचीन काल में विदेशी आक्रमणकारी कांच से बनी सुंदर कलात्मक वस्तुओं को लेकर भारत आए थे। जब इन वस्तुओं को बेकार करार दे दिया जाता तो उन्हें एकत्र कर फिरोजाबाद स्थित ‘भंैसा भट्ठी’ में डालकर गला लिया जाता था। इस प्रकार फिरोजाबाद में कांच उद्योग का उद्भव हुआ। इस समय अकेले फिरोजाबाद में चूड़ी का कारोबार प्रति वर्ष कई करोड़ रुपये का है। ऐसा अनुमान है कि तीन लाख से अधिक असंगठित कामगार फिरोजाबाद में चूड़ी एवं कांच उद्योग में योगदान देते हैं।
दस राज्यों में एक जैसा हाल : यूं तो आंध्र प्रदेश, बिहार, हरियाणा, झारखंड, राजस्थान और उड़ीसा समेत देश के दस राज्यों में चूड़ी बनाने का काम होता है लेकिन केवल आंध्र प्रदेश में इन कामगारों को सर्वाधिक 197 रुपये प्रतिदिन मजदूरी मिलती है। बिहार में इन्हें 144, झारखंड में 145 रुपये, उत्तराखंड में 144 तथा उड़ीसा में 92 रुपये प्रतिदिन मिलते हैं। उधर चूडी उद्योग के सबसे बडेÞ केंद्र उत्तर प्रदेश में कामगारों को मजदूरी सबसे कम मिलती है और एक औसत आकार वाले परिवार को अधिकतम 80 रुपये तक दिये जाते हैं।
दो रुपये में 315 चूड़ियां : एक गुच्छे में 315 चूडियां होती हैं और एक गुच्छा पूरा करने के लिए परिवार को दो रुपये का भुगतान किया जाता है। एक औसत आकार वाला परिवार एक दिन में 40 गुच्छे पूरे करता है, जिसका अर्थ है 80 रुपये की आय।
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लव,सेक्स और धोखा की दर्दनाक दास्तां
शादी के दबाव पर सह जीवन में रहने वाली श्वेता को 8वीं मंजिल से फेंका
विशाल आनंद/नई दिल्ली।
खूबसूरत श्वेता औरों की खूबसूरती संवारती रही। जब भी उसे खुद की जिंदगी संवारने का ख्याल आता, वक्त उसे खींच कर उस मोड़ पर ले आता जहां सिर्फ अंधेरा, फरेब और रिश्तों के ताने बाने में उलझी सी जिंदगी नजर आती। पति की बेवफाई, फिर प्रेमी का फरेब और आखिर में जिस बचपन की मुहब्बत के भरोसे पर नए सिरे से जिंदगी शुरू करने का फैसला लिया, सह जीवन संबंध में कुछ वक्त गुजार कर उसने भी वफा की आड़ में ऐसा सिला दिया कि वह जिंदगी से हमेशा के लिए विदा हो गई। जी हां.. बुधवार 22 अगस्त को श्वेता की आठवीं मंजिल से गिरकर मौत हो गई। उसकी मौत को पहले खुदकुशी माना गया मगर इस हादसे को आंखों से देखने वाली उसकी मासूम बेटी ने मौत का राज अपनी जुबान से जैसे ही खोला, बचपन की मुहब्बत का कातिल चेहरा बेनकाब हो गया। नापाक मुहब्बत के ददर्नाक अंत की कहानी का गवाह बना है तेजी से उभरता शहर नोएडा। तरक्की पसंद शहरों में बदलते रिश्तों का सवाल छोड़ गई श्वेता की मौत।
ब्यूटीशियन श्वेता की शादी तकरीबन 14 साल पहले बागपत में हुई थी। शादी के शुरुआती दिनों में सब कुछ ठीक ठाक था, मगर ससुराल की बंदिशों और घर से निकलने की पाबंदियों ने आजाद ख्याल श्वेता की जिंदगी को रिवाजों की जंजीरों में इस कदर जकड़ दिया कि हर पल घुट-घुट के जीने को मजबूर रही। जिसके साथ सात फेरे लिए, उसका बर्ताव किसी शैतान से कम न था। श्वेता ने बेटी को जन्म क्या दिया कि ससुराल में मानो कोहराम मच गया। बस यही से उसकी मुश्किलें बढ़ती चली गईं और हालात ने इस कदर मजबूर कर दिया कि शादी के छह साल बाद ही पति से अलग होना पड़ा। बाद में यह रिश्ता तलाक तक पहुंच गया। पति का साथ छूटा तो जमाने की तिरछी निगाहें श्वेता पर टिकने लगीं। श्वेता ने वापस नोएडा आकर फिर से ब्यूटीशियन का काम शुरू कर दिया। फिर जिंदगी को नए सिरे से जीने का जज्बा लेकर वह कुछ वक्त के लिए संभल ही पाई थी कि एक अजनबी रिश्ते ने अपनी ओर खींच लिया। यह शख्स था ईशा खान।
आस और उम्मीदों के बीच तन्हा श्वेता का जब उस अजनबी ईशा खान ने हाथ थामा तो उमंगें फिर से जवां होने लगीं। मयूर विहार फेज थ्री में श्वेता अपनी बेटी को साथ लेकर ईशा खान के संग सहजीवन (लिव इन रिलेशन) में रहने लगीं। कुछ वक्त में खुशियों के पल अपने लिए बटोर ही पाई थी कि उस अजनबी ने भी जिंदगी के सफर में कुछ कदम साथ चलकर हाथ छोड़ दिया।
पति की बेवफाई और प्रेमी का फरेब, श्वेता जिंदगी से इस कदर टूट गई फिर उसने ख्वाब देखना ही बंद कर दिया। मगर वक्त की आंख मिचौली से श्वेता अनजान थी, उसकी स्याह जिंदगी में तकरीबन डेढ़ साल पहले फिर एक और किरदार फरिश्ता बन कर आया। बचपन की बेपनाह मुहब्बत सालों बाद फिर से जवां हुई। यह वही शख्स था जिसने स्कूल टाइम में श्वेता को पहली बार प्रपोज किया, नाम है मुकेश सैनी। बचपन में दोनों के बीच इश्क उस वक्त पनपा जब सदरपुर में पड़ोसी थे। उस दौरान श्वेता और मुकेश सैनी एक ही स्कूल और एक ही क्लास में पढ़ रहे थे। तब दोनों के इश्क की चर्चाएं आम हुईं तो श्वेता के पैरंट्स ने बदनामी के डर से उसकी शादी फौरन बागपत कर दी। दोनों का प्यार किसी मंजिल तक पहुंचने से पहले ही जुदा हो गया। वक्त ने दोनों को फिर एक बार उस मोड़ पर मिलाया, जहां श्वेता की जिंदगी सूनी हो चुकी थी। दोनों की जब मुलाकात हुई तो श्वेता के हाल और हालात देखकर मुकेश ने भरोसे का हवाला देकर हाथ थाम लिया।
एक और सहजीवन : ओखला इलाके की एक फार्मेसी में जॉब करने वाला मुकेश अब श्वेता के साथ नोएडा के सेक्टर 50 स्थित कैलाश अपाटर्मेंट में लिव इन रिलेशन में रहने लगा। शादी के लिए जब भी श्वेता कहती, वह बात को अनसुना कर देता। डेढ़ साल में ही मुकेश का श्वेता से मन भर चुका था। श्वेता की तरफ से शादी के प्रेशर से बचने के लिए मुकेश ने खौफनाक साजिश रच डाली। 22 अगस्त को भी श्वेता और मुकेश के बीच इसी बात को लेकर कहासुनी हुई। थोड़ी देर बाद श्वेता आठवीं मंजिल से गिरकर जमीन पर पड़ी थी। खून से लथपथ श्वेता की सांसें उस वक्त चल रही थीं। अपाटर्मेंट के गेट पर तैनात गार्ड और अन्य लोग जब तक श्वेता को अस्पताल ले कर पहुंचते तब तक बहुत देर हो चुकी थी। श्वेता की मौत हो गई।
बेटी ने कहा -मां को अंकल ने फेंक दिया
पुलिस ने मौका-ए-वारदात पर छानबीन की तो शुरुआती पड़ताल में खुदकुशी का केस दर्ज कर लाश को पोस्टमॉर्टम के लिए भेज दिया। यानी बचपन का यह इश्क उसकी जिंदगी की मौत का सबब बन गया। श्वेता की आठवीं मंजिल से गिरकर मौत हो गई। यह मौत कानून की आंखों में सिर्फ खुदकुशी बनकर फाइलों में बंद हो जाती। यदि वक्त रहते श्वेता की 10 वर्षीय मासूम बेटी राज इस मौत के पीछे की वजहों का खुलासा न करती। पूछताछ के दौरान पुलिस के सामने उस मासूम ने जो कुछ बोला, सुनकर सब हक्के-बक्के रह गये। बेटी ने बताया कि मां को अंकल ने नीचे फेंक दिया। पुलिस ने मुकेश को हिरासत में ले लिया। रिश्तों के फंदों में फंसी श्वेता की मौत के सवालों का जवाब फिलहाल पुलिस ढूंढ रही है।
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पत्नी को नग्न कर करवाता था नृत्य
बैतूल। मध्यप्रदेश के बैतूल में एक शराबी पति द्वारा अमानवीयता की सारी हदें पार करते हुए पति-पत्नी के पवित्र रिश्ते और विश्वास को कलंकित कर दिये जाने का सनसनीखेज मामला सामने आया है।
पति द्वारा शराब के नशे में न सिर्फ पत्नी से नग्न नृत्य करवाया जाता था बल्कि पत्नी के भोजन में मूत्र मिलाकर उसे खाने को मजबूर करता था। पति की अमानवीय हरकतों से तंग आकर पत्नी ने पति से अलग रहने का फैसला किया है। पीड़ित महिला ने मुलताई में परिवार परामर्श केंद्र में अपने साथ हो रहे अमानवीय व्यवहार के बारे में लोगों को बताया तो सभी के रोंगटे खड़े हो गए। घटनाक्रम का सबसे शर्मनाक और सनसनीखेज पहलू यह है कि पीड़ित महिला के पति ने सार्वजनिक रूप से अपना कृत्य कबूल कर भविष्य में ऐसा नहीं करने का आश्वासन दिया है। बाजूद इसके पत्नी ने पति के साथ जाने से इंकार कर दिया। लेकिन आश्चर्यजनक यह है कि थाना परिसर में आयोजित इस बैठक में पति द्वारा अमानवीय कृत्य की सार्वजनिक स्वीकारोक्ति के बावजूद उस पर कोई आपराधिक प्रकरण दर्ज नहीं किया गया है।
बैतूल जिले के मुलताई नगर में कल थाना परिसर में परिवार परामर्श केन््रद की बैठक हुई। समिति में ग्राम कोंढर के एक पति-पत्नी का वाकया सामने आया और जब पत्नी ने अपने साथ हो रहे वाक्ये से अवगत कराया तो परिवार परामर्श समिति के सभी सदस्य हक्के-बक्के रह गए। पत्नी ने बताया कि उसका पति शराब के नशे में चूर होकर प्रतिदिन उसे निर्वस्त्र करके नृत्य करने को मजबूर करता था। पति की इच्छा अनुसार वह भी अनिच्छा से ही पति की बात मानती रही लेकिन हद तब हो गई जब शराबी पति ने अमानवीयता की सारी हदें पार करते हुए उसके भोजन में मूत्र मिला दिया तथा उसे मूत्र मिला खाना खाने को मजबूर करने लगा। महिला की आपबीती सुनकर सभी सदस्य हतप्रभ रह गए। केंद्र में ही उपस्थित महिला का पति परामर्श केंद्र में सदस्यों के सामने कान पकड़कर माफी मांगता रहा और दोबारा इस प्रकार के कृत्य नहीं करने की दुहाई देता रहा लेकिन पति के कृत्यों से तंग आ चुकी पत्नी ने पति के साथ जाने से साफ इंकार कर दिया और सदस्यों से कहा कि अब वह कभी भी अत्याचारी पति के साथ नहीं रहेगी।
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मां को शराब के लिए मार डाला
बिजनौर। शराब के लिए रुपये न देने पर बेटे ने मां की पीट-पीट कर हत्या कर दी। पुलिस ने हत्या के आरोपी पुत्र को गिरफ्तार कर लिया है।
पुलिस सूत्रों के अनुसार थाना हीम
मुक्ति का मार्ग मार्केट है, मंदिर नहीं
बाजार के दबाव में वर्ण व्यवस्था की यह बुनियाद टूट रही है कि हर वर्ण का एक खास कर्म होता है। मार्केट में जाति के झंडाबरदार यह नहीं कह सकते कि सेवा का काम शूद्र करेगा और पढ़ाई-लिखाई ब्राह्माण ही करेगा, या फिर अकाउंटिंग का काम वैश्य करेगा और गार्ड तथा बाउंसर सिर्फ क्षत्रिय जाति के होंगे। अब अकाउंटेंट वह बनेगा जिसने अकाउंटेंसी की पढ़ाई की है और गार्ड वह बनेगा जिसकी कद-काठी ठीक है।
दिलीप मंडल
उड़ीसा के केन्द्रपाड़ा जिले के एक जगन्नाथ मंदिर में दलितों को दीवार के पार खड़े होकर नौ छेदों के पार देवता के दर्शन करने पड़ते थे। कुछ दिन पहले यह खबर आई कि अब एक ही रास्ते से दलित भी प्रवेश करेंगे और एक खास जगह से देवता के दर्शन करेंगे। दलितों के आत्मसम्मान हासिल करने की दिशा में इसे कितना बड़ा कदम माना जाए? केन्द्रपाड़ा के दलितों को जिस अधिकार के लिए लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी वह अधिकार शहरों में रहने वाले दलितों को अपने आप हासिल है। ऐसे में दलित आबादी, यानी देश के हर छह में से एक आदमी के सामने सवाल यह है कि गांव में रहकर अपने सम्मान के लिए लड़ें या शहरों में आकर जन्म तथा कर्म के रिश्ते को खत्म कर दें और कई बंधनों से आजाद हो जाएं।
गांवों को लेकर हो सकता है कि कुछ लोगों के दिमाग में कोई रूमानी कल्पना हो। कोई गांधीवादी यह कह सकता है कि गांव आत्मनिर्भर इकाई के तौर पर एक आदर्श है। लेकिन समाज के एक बड़े हिस्से के लिए गांव कोई शानदार जगह नहीं है। खासकर दलितों के लिए तो कतई नहीं। नेशनल सैंपल सर्वे की रिपोर्ट के मुताबिक देश के 16 फीसदी दलितों के पास सिर्फ नौ फीसदी जमीन है। नौ फीसदी का आंकड़ा फिर भी ठीकठाक लगता है। गांवों की हकीकत को जो भी जानता है उसे इस बात का एहसास होगा कि यह जमीन गांव की सबसे उपजाऊ जमीन कतई नहीं होगी। भूमि संबंधों में दलितों की बुरी स्थिति के ऐतिहासिक कारण हैं। शास्त्रों के मुताबिक, हिन्दू वर्ण व्यवस्था के बाहर की इन जातियों को जमीन या पशुधन रखने की इजाजत नहीं थी। पंजाब जैसे राज्यों में आजादी से पहले कुछ खास जातियों को ही खेती की जमीन खरीदने का हक था और उन जातियों में दलित शामिल नहीं थे। दलितों के घर अब भी बाकी जातियों की आबादी से दूर होते हैं और देश के ज्यादातर हिस्सों में उनके तालाब और कुएं आजादी के 60 साल बाद भी अलग हैं। अब यह सब सिर्फ इसलिए नहीं बदल जाएगा कि भारत सरकार ने अस्पृश्यता निवारण कानून लागू कर दिया है और देश में दलित उत्पीड़न के खिलाफ कानून बना हुआ है।
दलित भारतीय समाज व्यवस्था की विशिष्ट पहचान है। दुनिया के तमाम देशों में भेदभाव अलग-अलग रूपों में मौजूद है, लेकिन वर्ण व्यवस्था हिन्दू समाज की खासियत है। अमेरिका में चमड़े के रंग या नस्ल के आधार पर भेदभाव है, लेकिन भारत में जेनेटिक तौर पर किसी अंतर के बिना ही जाति का उससे भी सख्त बंटवारा है। जाति के बगैर कोई व्यक्ति हिन्दू नहीं हो सकता। वर्ण व्यवस्था के बगैर सनातन धर्म का कोई वजूद नहीं है। यानी हर हिन्दू किसी न किसी जाति में जन्म लेता है और हर हाल में उसी जाति में मरता है। खानपान में समय के साथ कहीं-कहीं खुलापन आया भी है, पर अपनी जाति के बाहर विवाह की इजाजत वर्ण व्यवस्था नहीं देती। और फिर दलित तो हिंदू वर्ण व्यवस्था का हिस्सा भी नहीं है। चार वर्णों से बाहर के इस समुदाय की तुलना आप मध्ययुगीन यूरोप के कृषि दास से ही कर सकते हैं। यूरोप में इंडस्ट्रियल रिवोल्यूशन के बाद नए प्रॉडक्शन सिस्टम के आने और शहरीकरण के असर से कृषि दास समाज में एकाकार हो गए। आज उनकी पहचान नामुमकिन है।
भारत के दलितों की मुक्ति का भी इससे अलग कोई रास्ता नहीं है। दलितों की दुनिया का बदलना दरअसल उत्पादन संबंधों के आधुनिक रूप के साथ उनके एकरूप होने से सीधा जुड़ा हुआ है। अच्छी इंगलिश बोलने वाले हर शख्स को आज कॉल सेंटर में 15,000 रुपये से ज्यादा की नौकरी मिल सकती है। कॉल सेंटर में काम करने का स्किल रखने वालों की इतनी कमी है कि वहां के एचआर डिपाटर्मेंट को इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि नौकरी के लिए आने वाला दलित है या ब्राह्माण। रिटेल से लेकर हॉस्पिटैलिटी सेक्टर तक में काबिल लोगों की जरूरत अचानक बढ़ी है। बाजार के दबाव में वर्ण व्यवस्था की यह बुनियाद टूट रही है कि हर वर्ण का एक खास कर्म होता है। मार्केट में जाति के झंडाबरदार यह नहीं कह सकते कि सेवा का काम शूद्र करेगा और पढ़ाई-लिखाई ब्राह्माण ही करेगा, या फिर अकाउंटिंग का काम वैश्य करेगा और गार्ड तथा बाउंसर सिर्फ क्षत्रिय जाति के होंगे। अब अकाउंटेंट वह बनेगा जिसने अकाउंटेंसी की पढ़ाई की है और गार्ड वह बनेगा जिसकी कद-काठी ठीक है। प्लानिंग का काम मैनेजमेंट पढ़ने वाले करेंगे। जो इन कामों के काबिल नहीं हैं, वे सेवा का काम करेंगे, और वे ब्राह्माण भी हो सकते हैं। मार्केट का असर ऐसा है कि दलित मैनेजर भी आपको मिल जाएंगे और ब्राह्माण सेवक भी। सरकारी सेक्टर में फिर भी टारगेट न होने की वजह से नियुक्तियों में पक्षपात की गुंजाइश है, ऊंचे पदों पर पहले से बैठे अफसर अपने लोगों की भतिर्यां करा सकते हैं, लेकिन प्राइवेट सेक्टर में परफॉर्म करने के दबाव की वजह से कोई मैनेजर शायद ही कभी योग्यता के अलावा किसी और पैमाने पर नियुक्तियां करता है।
कई दलित चिंतक अब कहने लगे हैं कि इंगलिश बोलने वाला कोई दलित मैला नहीं ढोता। उनका यह कहना निराधार नहीं है। इंगलिश एजुकेशन, शहरीकरण और सूटबूट वाले दलित के लिए कई दरवाजे अपने आप खुल जाते हैं। मंदिरों के दरवाजे भी उनमें शामिल हैं। शहरों के मंदिरों के दरवाजे पर कोई यह नहीं पूछता कि आप किस जाति के हैं। और वैसे भी ऐसे पढ़े-लिखे समर्थ दलित को सम्मान के लिए मंदिर का मोहताज क्यों होना चाहिए? हिन्दू वर्ण व्यवस्था उन्हें अपना हिस्सा तो मानती नहीं है। कई दलित आईएएस अफसरों और प्रफेशनल्स ने सवर्ण लड़कियों से शादी की है और ऐसी शादियों की मान्यता के लिए ये समाज की ओर लाचारी से नहीं देख रहे हैं। जबकि जिन गांवों की महिमा गांधीवादी और कई कवि गाते हैं, वहां ऐसी शादी करने वालों को अक्सर जलाकर या गला घोंटकर मार डाला जाता है। इस बात में शक की कोई गुंजाइश नहीं है कि भारत का नया समाज शहरों में ही बन रहा है। दलित को उसी रास्ते पर आगे बढ़ना है।
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मौत पर जश्न, जन्म पर शोक
राजस्थान की गुमनाम जनजाति, सड़क किनारे रहते हंै सातिया समुदाय के गिने-चुने परिवार, मरने पर खरीदते हैं मेवे, शराब। बाहरी लोगों से रहते हंै दूर। नवजातों को देते हैं बद्दुआएं...
विस्फोट न्यूज नेटवर्क
कोटा। जिंदगी में शायद ही ऐसा देखने को मिलता है, जब मौत पर मातम की बजाय जश्न मनाया जाता है। मगर राजस्थान की एक जनजाति ने जिंदगी के आखिरी सफर को एक उत्सव का रूप दे दिया है। यहां किसी की मौत पर शोक नहीं मनाया जाता बल्कि खुशियां मनाई जाती हैं। ठीक इसके उलट किसी के जन्म पर जरूर इस समुदाय में शोक मनाया जाता है।
पूरे राज्य में सड़क के किनारे अस्थायी आश्रय बनाकर रहने वाले सातिया समुदाय में करीब 24 परिवार हैं। यह जनजाति मूल रूप से सड़क किनारे पर मर जाने वाले मवेशियों को ठिकाने लगाने के काम पर ही निर्भर है। इस जाति के लोग पढ़े लिखे भी नहीं हैं और आपराधिक कामों में लिप्त इन लोगों को शराब की लत भी है। इस जाति की महिलाएं भी वेश्यावृति के लिए जानी जाती हैं।
तमाम बुराइयों के बावजूद कुछ ऐसी खास बातें हैं, जिससे यह जनजाति अपनी खास पहचान बनाने में सफल रही है। समुदाय के किसी व्यक्ति की मौत के बाद का अंतिम संस्कार यहां के लोगों के लिए जश्न का समारोह बन जाता है। समुदाय के एक व्यक्ति जंका सातिया ने बताया, इस मौके पर हम नए कपड़े पहनते हैं, मिठाई, मेवे और शराब आदि खरीदते हैं।
शव यात्रा के दौरान लोग ढोल-नगाड़ों की थाप पर नाचते-गाते हैं। अंतिम संस्कार के दौरान दावत का आयोजन होता है, जिसमें शराब पीने के साथ लोग वेश्याओं के साथ नाचते हैं। शव के पूरी तरह से जल जाने तक यह सब चलता रहता है। समुदाय के एक अन्य व्यक्ति की नजरों में जन्म और जीवन भगवान की ओर से दिया गया अभिशाप है। उसका कहना है, मौत हमारे लिए एक उत्सव है, जिससे आत्मा शारीरिक बंधन से आजाद हो जाती है। इस समुदाय पर रिसर्च करने वाले एके सक्सेना का कहना है कि सातिया समुदाय के लोग जीवन को अभिशाप मानते हैं। उन्होंने कहा, हालांकि इस समुदाय में अगर लड़की पैदा होती है, तो उसे ज्यादा तवज्जो दी जाती है क्योंकि वह वेश्यावृति के जरिए परिवार के लिए पैसा कमा सकती है। इस जनजाति में जब किसी का जन्म होता है तो गहरा शोक मनाया जाता है और नवजात शिशु को बद्दुआएं दी जाती हैं। परिवार में कई दिनों तक खाना भी नहीं बनाया जाता है। शहर से दूर सड़कों पर जीवन बिताने वाले यह लोग अक्सर बाहरी लोगों से दूरियां बनाए रखते हैं। सामाजिक कार्यकर्ता अनवर अहमद ने बताया कि इंदिरा आवासीय योजना के तहत इस समुदाय के लोगों को पक्के घर भी मुहैया कराए गए, लेकिन इन्होंने उसे बेच दिया। इस जाति के लोग अपने परिवार के बच्चों को स्कूल भी नहीं भेजते हैं। विरासत एवं प्रकृति फोटोग्राफर एएच जैदी का कहना है कि इनके उत्थान के लिए अब तक कोई भी एनजीओ या सामाजिक संगठन आगे नहीं आया है।
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बिना जुताई भी खेती संभव
मध्यप्रदेश के होशंगाबाद शहर से भोपाल की ओर मात्र 3 किलोमीटर दूर है- टाईटस फार्म। यहां गत 25 साल से कुदरती खेती का अनोखा प्रयोग किया जा रहा है। राजू टाईटस जो स्वयं पहले रासायनिक खेती करते थे, अब कुदरती खेती के लिए विख्यात हो गए हैं। उनके फार्म को देखने देश-विदेश से लोग आते हैं। बाबा मायाराम
मध्यप्रदेश के होशंगाबाद शहर से भोपाल की ओर मात्र 3 किलोमीटर दूर है- टाईटस फार्म। यहां पिछले 25 साल से कुदरती खेती का अनोखा प्रयोग करने वाले राजू टाईटस पहले स्वयं रासायनिक खेती करते थे। उनका कहना है कि अब रासायनिक खेती के दिन लद गए हैं। बेजा रासायनिक खाद, कीटनाशक, नींदानाशक और जुताई से मिट्टी की उर्वरक शक्ति कम हो गई है। तवा बांध की सिंचाई से शुरुआत में समृद्धि जरूर दिखाई दी, लेकिन अब वह दिवास्वप्न में बदल गई है। ऐसे में वैकल्पिक खेती के बारे में विचार करना जरूरी है। इसी परिप्रेक्ष्य में कुदरती खेती का प्रयोग ध्यान खींचता है।
पिछले दिनों जब मैं उनके फार्म पर पहुंचा, तब वे मुख्य द्वार पर मेरा इंतजार कर रहे थे। सबसे पहले उन्होंने चाय के बदले प्राकृतिक पेय पिलाया, जिसे गुड़, नींबू और पानी से तैयार किया गया था। खेत के अमरूद खिलाए और फिर खेत दिखाने ले गए। थोड़ी देर में हम खेतों पर पहुंच गए। इस अनूठे प्रयोग में बराबर की हिस्सेदार उनकी पत्नी शालिनी भी साथ थीं। हरे-भरे अमरूद के वृक्ष हवा में लहलहा रहे थे। एक युवा मजदूर हाथ में यंत्र लिए खरपतवार को सुला रहा था। क्रिम्पर रोलर से खरपतवार को सुला दिया जाता है। इस खेत में गेहूं की बोवनी हो चुकी थी। खेत में ग्रीन ग्राउंड कवर कर रखा था। यानी खरपतवार से ढंककर खेत को रखना। यहां खेत को धान के पुआल से ढंक रखा था। इसमें गाजरघास जैसी खरपतवार का इस्तेमाल किया गया था। पूछने पर बताया कि सामान्य सिंचाई के बाद पुआल या खरपतवार ढंक दी जाती है। सूर्य की किरणों से ऊर्जा पाकर सूखे पुआल के बीच से हरे गेहूं के पौधे ऊपर आ जाते हैं। यह देखना सुखद था। राजू बता रहे थे कि खेत में पुआल ढंकने से सूक्ष्म जीवाणु, केंचुआ, कीड़े-मकोड़े पैदा हो जाते हैं और जमीन को छिद्रित, पोला और पानीदार बनाते हैं। ये सब मिलकर जमीन को उपजाऊ और ताकतवर बनाते हैं, जिससे फसल अच्छी होती है। उनका कहना है कि रासायनिक खेती में धान के खेत में पानी भरकर उसे मचाया जाता है, जिससे पानी नीचे नहीं जा पाता। धरती में नहीं समाता। खेत का ढकाव एक ओर जहां जमीन में जल संरक्षण करता है, यहां के उथले कुओं का जल स्तर बढ़ता है, वहीं दूसरी ओर फसल को कीट प्रकोप से बचाता है, क्योंकि वहां अनेक फसल के कीटों के दुश्मन निवास करते हैं। जिससे रोग लगते ही नहीं हैं।
उनके मुताबिक जब भी खेत में जुताई और बखरनी की जाती है, बारीक मिट्टी को बारिश बहा ले जाती है। साल दर साल खाद-मिट्टी की उपजाऊ परत बारिश में बह जाती है। जिससे खेत भूखे-प्यासे रह जाते हैं और इसलिए इसमें बाहरी निवेश की जरूरत पड़ती है। यानी बाहर से रासायनिक खाद वगैरह डालने की जरूरत पड़ती है। जमीन के अंदर की जैविक खाद, जिसे वैज्ञानिक कार्बन कहते हैं, जुताई से गैस बनकर उड़ जाती है, जो धरती के गरम होने और मौसम परिवर्तन में सहायक होती है। ग्लोबल वार्मिंग और मौसम परिवर्तन इस समय दुनिया में सबसे ज्यादा चिंता का सबब बने हुए हैं। लेकिन अगर बिना जुताई (नो टिलिंग) की पद्धति से खेती की जाए तो यह समस्या नहीं होगी और अब तो जिले में जो ट्रेक्टर-हारवैस्टर की खेती हो रही है, वह ग्लोबल वार्मिंग के हिसाब से उचित नहीं मानी जा सकती।
राजू टाईटस के पास 13.5 एकड़ जमीन है, जिसमें 12 एकड़ में खेती करते हैं। इस साल पड़ोसी की कुछ जमीन पर यह प्रयोग कर रहे हैं। इस 12 एकड़ जमीन में से 11 एकड़ में सुबबूल (आस्ट्रेलियन अगेसिया) का घना जंगल है। यह चारे की एक प्रजाति है। इससे पशुओं के लिए चारा और ईंधन के लिए लकड़ियां मिलती हैं। जिन्हें वे सस्ते दामों पर गरीब मजदूरों को बेच देते हैं। उनके अनुसार सिर्फ लकड़ी बेचने से सालाना आय ढाई लाख की हो जाती है। सिर्फ एक एकड़ जमीन पर ही खेती की जा रही है। राजू बताते हैं कि वह खेती भोजन की जरूरत के अनुसार करते हैं, बाजार के अनुसार नहीं। हमारी जरूरत एक एकड़ से ही पूरी हो जाती है। यहां से हमें अनाज, फल, दूध और सब्जियां मिल जाते हैं, जो परिवार की जरूरत पूरी कर देते हैं। जाड़े में गेहूं, गर्मी में मक्का व मूंग और बारिश में धान की फसल भोजन की आवश्यकता की पूर्ति करते हैं।
कुदरती खेती को ऋषि खेती भी कहते हैं। राजू टाईटस इसे कुदरती-जैविक खेती कहते हैं। जिसमें बाहरी निवेश कुछ भी नहीं डाला जाता। न ही खेत की हल से जुताई की जाती है और न बाहर से किसी प्रकार की मानव निर्मित खाद डाली जाती है। नो टिलिंग यानी बिना जुताई के खेती। पिछले 25 साल से उन्होंने अपने खेत में हल नहीं चलाया और न ही कीटों को मारने के लिए कीटनाशक व दवा का इस्तेमाल किया। यह पूरी तरह अहिंसक कुदरती खेती है। इसकी शुरूआत जापान के मशहूर कृषि वैज्ञानिक मासानोबू फुकुओवा ने की थी, जो स्वयं यहां आए थे। फुकुओवा ने बरसों तक अपने खेत में प्रयोग किया और एक किताब लिखी- ह्यवन स्ट्रा रेवोल्यूशनह्ण यानी एक तिनके से आई क्रांति। यह पद्धति इतनी सफल हुई है कि अमेरिका में भी अब इसका प्रयोग किया जा रहा है, जहां बिना जुताई की खेती का तेजी से चलन बढ़ा है।
आमतौर से खेती में फसल के अलावा किसी भी तरह के खरपतवार, पेड़-पौधों को दुश्मन माना जाता है, लेकिन कुदरती खेती इन्हीं के सहअस्तित्व से होती है। इन सबसे मित्रवत व्यवहार किया जाता है। पेड़-पौधों को काटा नहीं जाता। जिससे खेत में हरियाली बनी रहती है। राजू बताते हैं कि पेड़ों के कारण खेतों में गहराई तक जड़ों का जाल बुना रहता है, जिससे जमीन ताकतवर बनती जाती है। अनाज और फसलों के पौधे पेड़ों की छाया तले अच्छे होते हैं। छाया का असर जमीन के उपजाऊ होने पर निर्भर करता है। चूंकि हमारी जमीन की उर्वरता और ताकत अधिक है, इसलिए पेड़ों की छाया का फसल पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता। बिना जुताई (नो टिलिंग) के खेती मुश्किल है, ऐसा लगना स्वाभाविक है। जब पहली बार मैंने सुना था, तब मुझे भी विश्वास नहीं हुआ था। लेकिन अब सब देखने के बाद सभी शंकाएं निर्मूल हो गईं। दरअसल, इस पर्यावरणीय पद्धति में मिट्टी की उर्वरता उत्तरोतर बढ़ती जाती है। जबकि रासायनिक खेती में यह क्रमश: घटती जाती है और एक स्थिति के बाद उसमें कुछ भी नहीं उपजता। वह बंजर हो जाती है। वास्तव में कुदरती खेती एक जीवन पद्धति है। इसमें मानव की भूख मिटाने के साथ समस्त जीव-जगत के पालन का विचार है। इससे शुद्ध हवा और पानी मिलता है। धरती को गर्म होने से बचाने और मौसम को नियंत्रण करने में भी मददगार है। इसे ऋषि खेती इसलिए कहा जाता है कि क्योंकि ऋषि-मुनि कंद-मूल, फल और दूध को भोजन के रूप में ग्रहण करते थे। बहुत कम जमीन पर मोटे अनाजों को उपजाते थे। वे धरती को अपनी मां के समान मानते थे। उसे धरती माता कहते थे। उससे उतना ही लेते थे, जितनी जरूरत होती थी। सब कुछ निचोड़ने की नीयत नहीं होती थी। इस सबके मद्देनजर कुदरती खेती भी एक रास्ता हो सकता है। भले ही आज यह व्यावहारिक न लगे लेकिन इसमें वैकल्पिक खेती के सूत्र दिखाई देते हैं।
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हर महीने 70 किसान कर रहे आत्महत्या
विस्फोट न्यूज नेटवर्क/नई दिल्ली
सरकार की तमाम कोशिशों और दावों के बावजूद कर्ज के बोझ तले किसानों की आत्महत्या का सिलसिला नहीं रूक रहा है. देश में हर महीने 70 से अधिक किसान आत्महत्या कर रहे हैं. जबकि एक लाख 25 हजार परिवार सूदखोरों के चंगुल में फंसे हुए हैं...
सूचना के अधिकार कानून के तहत मिली जानकारी के अनुसार, देश में 2008 से 2011 के बीच देशभर में 3,340 किसानों ने आत्महत्या की. इस तरह से हर महीने देश में 70 से अधिक किसान आत्महत्या कर रहे हैं।
आरटीआई के तहत कृषि मंत्रालय के कृषि एवं सहकारिता विभाग से मिली जानकारी के अनुसार, 2008 से 2011 के दौरान सबसे अधिक महाराष्ट्र में 1,862 किसानों ने आत्महत्या की। आंध्रप्रदेश में 1,065 किसानों ने आत्महत्या की. कर्नाटक में इस अवधि में 371 किसानों ने आत्महत्या की। इस अवधि में पंजाब में 31 किसानों ने आत्महत्या की जबकि केरल में 11 किसानों ने कर्ज से तंग आ कर मौत को गले लगाया।
सबसे अधिक कर्ज सूदखोरों से
आरटीआई के तहत मिली जानकारी के अनुसार, देश भर में सबसे अधिक किसानों ने सूदखोरों से कर्ज लिया है। देश में किसानों के 1,25,000 परिवारों के सूदखोरों एवं महाजनों से कर्ज लिया है जबकि 53,902 किसान परिवारों ने व्यापारियों से कर्ज लिया। बैंकों से 1,17,100 किसान परिवारों ने कर्ज लिया जबकि कोओपरेटिव सोसाइटी से किसानों के 1,14,785 परिवारों ने कर्ज लिया. सरकार से 14,769 किसान परिवारों ने और अपने रिश्तेदारों एवं मित्रों से 77,602 किसान परिवारों ने कर्ज लिया। आरटीआई कार्यकर्ता गोपाल प्रसाद ने सूचना के अधिकार के तहत 2007-12 के दौरान भारत में किसानों की मौतों का संख्यावार, क्षेत्रवार ब्यौरा मांगा था। उन किसानों की संख्या के बारे में जानकारी मांगी गई थी जिन्होंने सूदखोरो से कर्ज लिया था।
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अत्याचार के नरक से निकलती हैं चूड़ियां
विस्फोट न्यूज नेटवर्क/नई दिल्ली
महिलाओं की कलाई में चार चांद लगाने वाली चूड़ियों की खनन भले ही सुनने वालों के मन को गुदगुदा देते हों, लेकिन इन चूड़ियों के के उत्पादन के पीछे जो सच्चाई है, उसे जानकर हर मन कड़वा हो जाता है। उत्तर प्रदेश के फिरोजाबाद में कार्यरत लाखों चूड़ी मजदूरों को जिस नरकीय माहौल में रह कर खूबसूरत चूड़ियों के उत्पादन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, उसकी कल्पना चूडी पहनने और खरीदने वाली महिलाएं शायद ही कर पाती होंगी। अधिकतर मजदूर महिलाएं हैं। उन्हें न केवल निर्धारित से कम मजदूरी पर काम करना पड़ रहा है बल्कि ऐसी विषय और नरकीय परिस्तियों में जीने का मजबूतर हैं, जिसे सुन कर मानवता शर्मशार हो जाए। चूड़ी फैक्ट्रियों के मालिकों का मजदूरों पर अत्याचारों का आलम यह है कि उन्हें दोपहर का भोजन करने तक का समय नहीं दिया जाता और वे खाना खाने के लिए हाथ तक धोने नहीं जा सकते क्योंकि मालिकों को लगता है कि वे हाथ धोने जाएंगे तो कांच गलाने वाली भट्टी के जलते रहने के कारण र्इंधन के साथ समय की भी बर्बादी होगी। वरिष्ठ सदस्य हेमानंद बिस्वाल की अध्यक्षता वाली श्रम और रोजगार मंत्रालय संबंधी स्थायी समिति ने मानसून सत्र में पेश अपनी 32वीं रिपोर्ट में चूड़ी कामगारों की बदहाली के आंकड़ें और हालात की कहानी बयां की है। चूड़ी मजदूरों के शोषण का एक आश्चर्यजनक पहलू यह भी है कि जो चूड़ियां बाजार में एक दर्जन में 12 मिलती हैं, उसी एक दर्जन में चूड़ी फैक्ट्रियों के मालिक मजदूरों से 24 चूड़ियां बनवाते हैं। यह न केवल कामगारों बल्कि बाजार में उन चूड़ियोंं को खरीदने वाले उपभोक्ताओं का भी शोषण है।
फिरोजाबाद का प्राचीन इतिहास : फिरोजाबाद के चूड़ी कारोबार के इतिहास के बारे में कहा गया है कि प्राचीन काल में विदेशी आक्रमणकारी कांच से बनी सुंदर कलात्मक वस्तुओं को लेकर भारत आए थे। जब इन वस्तुओं को बेकार करार दे दिया जाता तो उन्हें एकत्र कर फिरोजाबाद स्थित ‘भंैसा भट्ठी’ में डालकर गला लिया जाता था। इस प्रकार फिरोजाबाद में कांच उद्योग का उद्भव हुआ। इस समय अकेले फिरोजाबाद में चूड़ी का कारोबार प्रति वर्ष कई करोड़ रुपये का है। ऐसा अनुमान है कि तीन लाख से अधिक असंगठित कामगार फिरोजाबाद में चूड़ी एवं कांच उद्योग में योगदान देते हैं।
दस राज्यों में एक जैसा हाल : यूं तो आंध्र प्रदेश, बिहार, हरियाणा, झारखंड, राजस्थान और उड़ीसा समेत देश के दस राज्यों में चूड़ी बनाने का काम होता है लेकिन केवल आंध्र प्रदेश में इन कामगारों को सर्वाधिक 197 रुपये प्रतिदिन मजदूरी मिलती है। बिहार में इन्हें 144, झारखंड में 145 रुपये, उत्तराखंड में 144 तथा उड़ीसा में 92 रुपये प्रतिदिन मिलते हैं। उधर चूडी उद्योग के सबसे बडेÞ केंद्र उत्तर प्रदेश में कामगारों को मजदूरी सबसे कम मिलती है और एक औसत आकार वाले परिवार को अधिकतम 80 रुपये तक दिये जाते हैं।
दो रुपये में 315 चूड़ियां : एक गुच्छे में 315 चूडियां होती हैं और एक गुच्छा पूरा करने के लिए परिवार को दो रुपये का भुगतान किया जाता है। एक औसत आकार वाला परिवार एक दिन में 40 गुच्छे पूरे करता है, जिसका अर्थ है 80 रुपये की आय।
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लव,सेक्स और धोखा की दर्दनाक दास्तां
शादी के दबाव पर सह जीवन में रहने वाली श्वेता को 8वीं मंजिल से फेंका
विशाल आनंद/नई दिल्ली।
खूबसूरत श्वेता औरों की खूबसूरती संवारती रही। जब भी उसे खुद की जिंदगी संवारने का ख्याल आता, वक्त उसे खींच कर उस मोड़ पर ले आता जहां सिर्फ अंधेरा, फरेब और रिश्तों के ताने बाने में उलझी सी जिंदगी नजर आती। पति की बेवफाई, फिर प्रेमी का फरेब और आखिर में जिस बचपन की मुहब्बत के भरोसे पर नए सिरे से जिंदगी शुरू करने का फैसला लिया, सह जीवन संबंध में कुछ वक्त गुजार कर उसने भी वफा की आड़ में ऐसा सिला दिया कि वह जिंदगी से हमेशा के लिए विदा हो गई। जी हां.. बुधवार 22 अगस्त को श्वेता की आठवीं मंजिल से गिरकर मौत हो गई। उसकी मौत को पहले खुदकुशी माना गया मगर इस हादसे को आंखों से देखने वाली उसकी मासूम बेटी ने मौत का राज अपनी जुबान से जैसे ही खोला, बचपन की मुहब्बत का कातिल चेहरा बेनकाब हो गया। नापाक मुहब्बत के ददर्नाक अंत की कहानी का गवाह बना है तेजी से उभरता शहर नोएडा। तरक्की पसंद शहरों में बदलते रिश्तों का सवाल छोड़ गई श्वेता की मौत।
ब्यूटीशियन श्वेता की शादी तकरीबन 14 साल पहले बागपत में हुई थी। शादी के शुरुआती दिनों में सब कुछ ठीक ठाक था, मगर ससुराल की बंदिशों और घर से निकलने की पाबंदियों ने आजाद ख्याल श्वेता की जिंदगी को रिवाजों की जंजीरों में इस कदर जकड़ दिया कि हर पल घुट-घुट के जीने को मजबूर रही। जिसके साथ सात फेरे लिए, उसका बर्ताव किसी शैतान से कम न था। श्वेता ने बेटी को जन्म क्या दिया कि ससुराल में मानो कोहराम मच गया। बस यही से उसकी मुश्किलें बढ़ती चली गईं और हालात ने इस कदर मजबूर कर दिया कि शादी के छह साल बाद ही पति से अलग होना पड़ा। बाद में यह रिश्ता तलाक तक पहुंच गया। पति का साथ छूटा तो जमाने की तिरछी निगाहें श्वेता पर टिकने लगीं। श्वेता ने वापस नोएडा आकर फिर से ब्यूटीशियन का काम शुरू कर दिया। फिर जिंदगी को नए सिरे से जीने का जज्बा लेकर वह कुछ वक्त के लिए संभल ही पाई थी कि एक अजनबी रिश्ते ने अपनी ओर खींच लिया। यह शख्स था ईशा खान।
आस और उम्मीदों के बीच तन्हा श्वेता का जब उस अजनबी ईशा खान ने हाथ थामा तो उमंगें फिर से जवां होने लगीं। मयूर विहार फेज थ्री में श्वेता अपनी बेटी को साथ लेकर ईशा खान के संग सहजीवन (लिव इन रिलेशन) में रहने लगीं। कुछ वक्त में खुशियों के पल अपने लिए बटोर ही पाई थी कि उस अजनबी ने भी जिंदगी के सफर में कुछ कदम साथ चलकर हाथ छोड़ दिया।
पति की बेवफाई और प्रेमी का फरेब, श्वेता जिंदगी से इस कदर टूट गई फिर उसने ख्वाब देखना ही बंद कर दिया। मगर वक्त की आंख मिचौली से श्वेता अनजान थी, उसकी स्याह जिंदगी में तकरीबन डेढ़ साल पहले फिर एक और किरदार फरिश्ता बन कर आया। बचपन की बेपनाह मुहब्बत सालों बाद फिर से जवां हुई। यह वही शख्स था जिसने स्कूल टाइम में श्वेता को पहली बार प्रपोज किया, नाम है मुकेश सैनी। बचपन में दोनों के बीच इश्क उस वक्त पनपा जब सदरपुर में पड़ोसी थे। उस दौरान श्वेता और मुकेश सैनी एक ही स्कूल और एक ही क्लास में पढ़ रहे थे। तब दोनों के इश्क की चर्चाएं आम हुईं तो श्वेता के पैरंट्स ने बदनामी के डर से उसकी शादी फौरन बागपत कर दी। दोनों का प्यार किसी मंजिल तक पहुंचने से पहले ही जुदा हो गया। वक्त ने दोनों को फिर एक बार उस मोड़ पर मिलाया, जहां श्वेता की जिंदगी सूनी हो चुकी थी। दोनों की जब मुलाकात हुई तो श्वेता के हाल और हालात देखकर मुकेश ने भरोसे का हवाला देकर हाथ थाम लिया।
एक और सहजीवन : ओखला इलाके की एक फार्मेसी में जॉब करने वाला मुकेश अब श्वेता के साथ नोएडा के सेक्टर 50 स्थित कैलाश अपाटर्मेंट में लिव इन रिलेशन में रहने लगा। शादी के लिए जब भी श्वेता कहती, वह बात को अनसुना कर देता। डेढ़ साल में ही मुकेश का श्वेता से मन भर चुका था। श्वेता की तरफ से शादी के प्रेशर से बचने के लिए मुकेश ने खौफनाक साजिश रच डाली। 22 अगस्त को भी श्वेता और मुकेश के बीच इसी बात को लेकर कहासुनी हुई। थोड़ी देर बाद श्वेता आठवीं मंजिल से गिरकर जमीन पर पड़ी थी। खून से लथपथ श्वेता की सांसें उस वक्त चल रही थीं। अपाटर्मेंट के गेट पर तैनात गार्ड और अन्य लोग जब तक श्वेता को अस्पताल ले कर पहुंचते तब तक बहुत देर हो चुकी थी। श्वेता की मौत हो गई।
बेटी ने कहा -मां को अंकल ने फेंक दिया
पुलिस ने मौका-ए-वारदात पर छानबीन की तो शुरुआती पड़ताल में खुदकुशी का केस दर्ज कर लाश को पोस्टमॉर्टम के लिए भेज दिया। यानी बचपन का यह इश्क उसकी जिंदगी की मौत का सबब बन गया। श्वेता की आठवीं मंजिल से गिरकर मौत हो गई। यह मौत कानून की आंखों में सिर्फ खुदकुशी बनकर फाइलों में बंद हो जाती। यदि वक्त रहते श्वेता की 10 वर्षीय मासूम बेटी राज इस मौत के पीछे की वजहों का खुलासा न करती। पूछताछ के दौरान पुलिस के सामने उस मासूम ने जो कुछ बोला, सुनकर सब हक्के-बक्के रह गये। बेटी ने बताया कि मां को अंकल ने नीचे फेंक दिया। पुलिस ने मुकेश को हिरासत में ले लिया। रिश्तों के फंदों में फंसी श्वेता की मौत के सवालों का जवाब फिलहाल पुलिस ढूंढ रही है।
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पत्नी को नग्न कर करवाता था नृत्य
बैतूल। मध्यप्रदेश के बैतूल में एक शराबी पति द्वारा अमानवीयता की सारी हदें पार करते हुए पति-पत्नी के पवित्र रिश्ते और विश्वास को कलंकित कर दिये जाने का सनसनीखेज मामला सामने आया है।
पति द्वारा शराब के नशे में न सिर्फ पत्नी से नग्न नृत्य करवाया जाता था बल्कि पत्नी के भोजन में मूत्र मिलाकर उसे खाने को मजबूर करता था। पति की अमानवीय हरकतों से तंग आकर पत्नी ने पति से अलग रहने का फैसला किया है। पीड़ित महिला ने मुलताई में परिवार परामर्श केंद्र में अपने साथ हो रहे अमानवीय व्यवहार के बारे में लोगों को बताया तो सभी के रोंगटे खड़े हो गए। घटनाक्रम का सबसे शर्मनाक और सनसनीखेज पहलू यह है कि पीड़ित महिला के पति ने सार्वजनिक रूप से अपना कृत्य कबूल कर भविष्य में ऐसा नहीं करने का आश्वासन दिया है। बाजूद इसके पत्नी ने पति के साथ जाने से इंकार कर दिया। लेकिन आश्चर्यजनक यह है कि थाना परिसर में आयोजित इस बैठक में पति द्वारा अमानवीय कृत्य की सार्वजनिक स्वीकारोक्ति के बावजूद उस पर कोई आपराधिक प्रकरण दर्ज नहीं किया गया है।
बैतूल जिले के मुलताई नगर में कल थाना परिसर में परिवार परामर्श केन््रद की बैठक हुई। समिति में ग्राम कोंढर के एक पति-पत्नी का वाकया सामने आया और जब पत्नी ने अपने साथ हो रहे वाक्ये से अवगत कराया तो परिवार परामर्श समिति के सभी सदस्य हक्के-बक्के रह गए। पत्नी ने बताया कि उसका पति शराब के नशे में चूर होकर प्रतिदिन उसे निर्वस्त्र करके नृत्य करने को मजबूर करता था। पति की इच्छा अनुसार वह भी अनिच्छा से ही पति की बात मानती रही लेकिन हद तब हो गई जब शराबी पति ने अमानवीयता की सारी हदें पार करते हुए उसके भोजन में मूत्र मिला दिया तथा उसे मूत्र मिला खाना खाने को मजबूर करने लगा। महिला की आपबीती सुनकर सभी सदस्य हतप्रभ रह गए। केंद्र में ही उपस्थित महिला का पति परामर्श केंद्र में सदस्यों के सामने कान पकड़कर माफी मांगता रहा और दोबारा इस प्रकार के कृत्य नहीं करने की दुहाई देता रहा लेकिन पति के कृत्यों से तंग आ चुकी पत्नी ने पति के साथ जाने से साफ इंकार कर दिया और सदस्यों से कहा कि अब वह कभी भी अत्याचारी पति के साथ नहीं रहेगी।
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मां को शराब के लिए मार डाला
बिजनौर। शराब के लिए रुपये न देने पर बेटे ने मां की पीट-पीट कर हत्या कर दी। पुलिस ने हत्या के आरोपी पुत्र को गिरफ्तार कर लिया है।
पुलिस सूत्रों के अनुसार थाना हीम
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