Friday 30 December 2011

भिखारी की गोद में किसका लाल

संजय स्वदेशब्लैक एंड ह्वाइट के जमाने में एक फिल्म आई थी बूट पालिस। इस फिल्म में सौतेली मां की क्रूर निर्दयता की कहानी दिल को झकझोरती है। कैसे मासूम बच्चे न चाहते हुए भी भीख मांगने के लिए मजबूर हैं। हालांकि वे इस पेशे को छोड़ना चाहते हैं, लेकिन उन्हें कहीं से इसके लिए प्रोत्साहन नहीं है। तब समाज में ऐसे लोग थे जो ऐसे नौनिहालों को गले लगाकर अपनी संतान की तरह परवरिश करते थे। लिहाजा, फिल्म का अंत सुखांत होता है। जमाना बदला। स्लमडॉग मिलेनियर फिल्म आई। नौनिहालों का शोषण धंधे में बदल गया, मगर ऐसे बच्चों को गले लगा कर बचाने वाले नहीं बचे।
भीख मांगने का कारोबार करोड़ों में है। बच्चों को बहला-फुलसलाकर या गरीबों से खरीद कर उन्हें बड़े शहरों में भीख मंगवाने का धंधा तेजी से फलफूल रहा है। ताजा उदाहरण ऐसे शहर का है तो देश और दुनिया में आईटी हब के नाम से प्रसिद्ध बेंगलुरु है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की चमक-धमक और विकास की तेज रफ्तार के बीच दूसरे का बचपन बेच मोटी कमाई के धंधा का उजागर हुआ।
दिसंबर के मध्य में बेंगलुरु पुलिस ने भिखारी माफिया के चंगुल से लगभग 3 सौ बच्चों को छुड़ाया। महानगरों की सड़कों पर गरीब मांओं की गोद में भूखे, बीमार, लाचार बच्चे और उनके द्वारा भीख मांगे जाने का दृश्य किस ने नहीं देखा होगा। यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि मासूम अपनी असली मां की गोद में है या किराए पर लाया गया है। बेंगलुरु में जिन बच्चों को पुलिस ने छुड़ाया है, उनमें से अधिकतर दूसरे राज्यों से अपहृत अथवा मां-बाप द्वारा बेच दिए गए या किराए पर दिए गए बच्चे थे। केवल गरीबी के कारण ही बच्चे इस स्थिति में नहीं पहुँच रहे हैं । क्रूरता यह है कि नशा करवाकर मासूमों से भीख मंगवाने का संगठित धंधा चलाकर कुछ अपराधी कानूनी पंजे से दूर ऐश मौज कर रहे हैं।
दो महीने से दो साल तक तक के अबोध बच्चों को नशे का आदी बनाकर फिर किराए की मांओं की गोद में डाल दिया जाता है। ताकि ये भूख से रोएं नहीं या किसी और की गोद में जाने की जिद न करे, बस अचेतन अवस्था में पड़े रहें और इनसे ऐसी स्थिति में रख कर भीख मांगने में आसानी हो। पुलिस ने अब तक सिर्फ 3 सौ बच्चे छुड़ाएं हैं, लेकिन सैकड़ों और बच्चे अभी भी ऐसे गिरोहों के चंगुल में फंसे हो सकते हैं। छुड़ाए गए बच्चों में कर्नाटक के अलावा आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के बच्चे भी थे। इन बच्चों को बेहद बुरी हालत में पुलिस ने पाया। कई घंटे बाद ये बच्चे होश में आ पाए और इनमें से अधिकतर भूखे थे।
आंकड़ों के मुताबिक सालाना साठ हजार बच्चों की गुमशुदगी की रिपोर्ट पुलिस के पास दर्ज होती है। इनमें से कितने बच्चे अपने मां-बाप के पास सुरक्षित पहुंचते होंगे, कहना कठिन है। लेकिन यह अनुमान लगाया जा सकता है कि पुलिस, गैर सरकारी संगठनों व अन्य कल्याणकारी संस्थाओं की मदद जिन बच्चों तक नहीं पहुंच पाती होगी, जिन्हें आपराधिक संगठनों के चंगुल से नही बचाया जाता होगा, उनका भविष्य क्या होता होगा और इनसे बनने वाले देश का भविष्य क्या होगा?
हो सकता है राज्य सरकारों की कार्रवाई से कुछ लोग कानून के फंदे में आ जाएं। किंतु अभी कई सवालों के जवाब मिलना बाकी है। एक समाचारपत्र ने अपने संपादकीय में इस घटना पर तीन सवाल उठाया। बच्चों को नशा करवा कर उनसे भीख मंगवाने जैसे गंभीर अपराध करने वालों के लिए कितनी कड़ी सजा का प्रावधान होना चाहिए, क्योंकि यह केवल भीख मंगवाने का अपराध और मासूमों की जिंदगी की बलि देकर अपनी जेब भरने का धंधा भर नहीं है, बल्कि उन मासूमों को नशे की दुनिया में धकेलने का क्रूर खेल भी है, जिन्होंने अभी ठीक से आंखे खोलकर दुनिया देखना भी नहीं सीखा है।
दूसरा सवाल, गरीबी के कारण समाज में पनपने वाले अपराध को समाजशास्त्रीय, राजनीतिक और आर्थिक नजरिए से परख कर उसका निदान किस तरह नीति-नियंता करेंगे? तीसरा सवाल यह है कि विकास की चमक से चौंधियाई हमारी आंखे समाज में पनप रहे इस अंधकार को कब तक अनदेखा करती रहेंगी?
बेंगलुरु में ऐसे गैंग का पर्दाफाश तब हुआ जब कुछ गैरसरकारी संस्थाओं की शिकायत पर पुलिस ने कार्रवाई की। ऐसे गैर-सरकारी संस्थाओं को कार्य समाज में सम्मान के योग्य हैं। इनसे प्रेरणा लेकर व्यक्तिगत स्तर पर भी बच्चों का बचपन बचाने के लिए हरसंभव कोशिश के संकल्प से नये साल का शुभारंभ किया जा सकता है। क्या आप ले रहे हैं बचपन को एक छांव देने के प्रयास का संकल्प ?

Thursday 1 December 2011

एड्स का सच और सवाल

हर साल दिसंबर माह में एड्स दिवस धूमधाम से जाता है। कई दिनों विशेष प्रचार अभियान चलता है। जांच के लिए विशेष कैंप लगते हैं। लेकिन गत एक दशक में जितना हो हल्ला एड्स को लेकर किया जाता रहा है, ऐसा प्रभावशाली अभियान उन दूसरी बीमारियों के खिलाफ नहीं चलाया गया, जिससे हर साल लाखों लोग मरते हैं। इन बीमारियों से मरने वाले लोगों की संख्या एड्स से मरने वालों की संख्या से कई गुना ज्यादा है। टी.वी. कैंसर, हैजा, मलेरिया आदि बीमारियां से आज भी करोड़ों लोग मर रहे है।
करीब तीन दशक जब अमेरिका में एचआईवी या एड्स का पहला मामला दर्ज हुआ था, तब पूरी दुनिया में इस नई बीमारी से तहलका मच गया था। हर देश इसे रोकने के लिए ऐसे अभियान में जुट गया जैसे कोई महामारी फैल रही हो। पर अभी तक न इसकी कारगर दवा खोजी जा सकी और न टीका। एड्स निर्मूलन अभियान में भारत समेत दूसरे पिछड़े और गरीब देशों में पहले से व्याप्त दूसरी गंभीर बीमारियों के प्रति सरकार की गंभीरता हल्की पड़ गई। कभी भी गंभीर बीमारियों से होने वाली मौत और एड्स से होने वाली मौत के आंकड़ों की तुलना की जा सकती है।
एक विचार करने वाली बात यह भी है कि जब एड्स निर्मूलन अभियान शुरू हुए थे। तब से ही कई प्रसिद्ध चिकित्सों व वैज्ञानिकों ने इसे खारिज किया। आरोप लगा कि एचआईवी एड्स की आड़ में कंडोम बनाने वाली कंपनियां भारी लाभ कमाने के लिए अभियान को हवा दे रही है। पर आरोपियों की आवाज एड्स के इस अभियान में गुम है। अभियान के शुरुआती दिनों में ही प्रसिद्ध अमेरिकी वैज्ञानिक कैरी मुलिस ने अभियान पर सवाल खड़ा किया था। संदेह जताने वाले कैरी मुलिस वही जैव रसायन वैज्ञानिक हैं जिन्हें 1993 का नोबेल पुरस्कार मिला। पालिमरेज चेन रिए क्सन तकनीक के विकास का श्रेय इन्हें ही हैं। इसी तकनीक का इस्तेमाल कर वायरस परीक्षण होता है। अमेरिकी पत्रिका पेंट हाऊस के सितंबर 1998 अंक में अपने प्रकाशित प्रकाशित लेख में बड़े ही तािर्कक तरीके से एड्स की अवधारणा को खंडित किया था। इनके अलावा भी दुनिया के कई बड़े वैज्ञानिकों ने स्वीकार किया कि मानव इतिहास के हर कालखंड में किसी न किसी रूप में एड्स जैसी खतरनाक स्वास्थ्य स्थिति का खौफ रहा है। चरक संहिता में एड्स से मिलती-जुलती स्थिति होने का उल्लेख भी मिलता है। वैज्ञानिक दावा करते है कि एड्स अपने आप में कोई बीमारी नहीं है। यह शरीर की ऐसी स्थिति है जिसे मनुष्य की रोग प्रतिरोध क्षमता नष्ट हो जाती है और वह धीरे-धीरे मौत की ओर अग्रसर हो जाता है।
हालांकि एड्स की स्थिति निश्चय ही गंभीर है। रोकथाम के लिए अभियान चलाया ही जाना चाहिए। लेकिन हमारा मानना है कि इस तरह के लगातार अभियान मलेरिया, टीबी आदि बीमारियों के खिलाफ क्यों नहीं चलती है?
मजे की बात यह है कि एड्स नियंत्रण अभियान जितने पैमाने पर चलाया जा रहा है, उस पैमाने पर एचआईवी एड्स पीड़ितों की संख्या नहीं है। समय-समय पर जारी होने वाले एचआईवी एड्स से ग्रस्त लोगों की संख्या में हमेशा संदिग्ध रही है। किसी साल कहां गया कि भारत एड्स की राजधानी बन रही है। तो कभी रिपोर्ट आई कि यहां एड्स प्रभावित लोगों की संया में कमी आई है। यह किसी मजेदार पहेली से कम नहीं है। एड्स और एचआईवी दोनों अलग-अलग धारणा है। प्रभावित व्यक्ति शायद ही समाज में कभी नजर आए। पर प्रचार इतना हो चुका है कि आज छोटे-छोटे बच्चों के जेहन में जनसंचार माध्यमों ने एड्स की जानकारी डाल दी है। मासूम नन्हें-मुन्ने भी जानने लगे हैं कि सुरक्षित यौन-संबंध के लिए कंडोम जरूरी है।
अभी भी केंद्र सरकार एड्स नियंत्रण पर हर साल करोड़ रूपये का बजट तय कर रही है। राज्य सरकार का बजट अलग होता है। विदेशी अनुदान भी अतिरिक्त है। बजट की भारी-भरकम राशि ने जनहीत के दूसरे कार्यो में लगे गैर-सरकारी संस्थाओं के मन में लालच भर दिया। जितना जल्दी एड्स विरोधी कार्यक्रम चलाने के लिए अनुदान मिल जाता है, उतना दूसरे कार्यों के लिए नहीं। लिहाजा, कई संस्थानों ने जनहित में जारी दूसरी परियोजनाओं को छोड़ कर एड्स अभियान का दामन पकड़ लिया है, जितने रुपये अभियान चलाने के लिए जितनी राशि एनजीओ को मिले, उतनी कम राशि खर्च करके उन लाखों गर्भवती माताओं को बचाया जा सकता हैं, जिन्हें समुचित इलाज की सुविधा नहीं मिल पाती है। डायरिया से ग्रस्त करीब 90 प्रतिशत महिलाओं भी अकाल काल के गाल में सामने से रोका जा सकता है। इतनी भारी भरकम राशि का अगर एक हिस्सा भी ईमानदारी से कुपोषित महिलाओं और बच्चों पर खर्च होता तो एक आज एक ऐसी नई सेहतमंद पीढ़ी जवान होती जो एड्स के खतरे से पहले ही सावधान रहती। पर एड्स नियंत्रण अभियान का जादू कुछ ऐसा छा गया है जिसने देश की बहुसंख्यक आबादी का ध्यान अपनी ओर खींच लिया है जिससे दूसरी जनस्वास्थ्य की दूसरी सुविधाओं को बेहतर तरीके से उपलब्ध कराने के अभियान पीछे छूट चुके हैं।
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samachar visfot decembar 2011

रू-ब-रू
हम बेरोजगार बाप पैदा कर रहे हैं
इनके पिता तीन बार सूबे के मुख्यमंत्री रहे हैं। इनकी पढ़ाई विलायत में हुई है, लेकिन इन दिनों उत्तर प्रदेश में इनकी सहज उपलब्धता और साइकिल की सवारी उन्हें दूसरे हाई प्रोफाइल नेता पुत्रों से अलग कर रही है। हमेशा मुस्कराने और खिलखिलाने वाला उनका चेहरा कार्यकतार्ओं में जोश भर देता है। प्रदेश में सबसे पहले चुनावी यात्रा का बिगुल बजाने वाले मुलायम सिंह यादव के पुत्र अखिलेश यादव से हुई अनिल पांडेय की लंबी बातचीत के कुछ अंश।
प्रदेश में कई यात्राएं निकल रही हैं। आपकी क्रांति रथ यात्रा किस लिए है?
बदलाव के लिए। सपा ने जब-जब क्रांति रथ यात्रा निकाली है, तब-तब उत्तर प्रदेश की सत्ता में बदलाव हुआ है। नेताजी एक बार रथ लेकर निकले थे, तो प्रदेश में हमारी सरकार बनी थी। इससे पहले एक बार मैं भी रथ लेकर निकला था, तब भी समाजवादियों की सरकार बनी थी। इस बार फिर मैं रथ लेकर निकला हूं, तो इस बार भी हमारी सरकार बनेगी।
लेकिन, चुनावी पंडित तो भविष्यवाणी कर रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में त्रिशंकु विधानसभा  बन रही है!
यह आकलन गलत है। हमें पूर्ण बहुमत मिलेगा। अगर आप हाल के चुनावों का ट्रेंड देखें, तो पाएंगे कि जनता पूर्ण बहुमत के साथ ही किसी दल को सत्ता सौंप रही है. ममता हों या नितीश, सभी को जनता ने पूर्ण बहुमत दिया है। जनता, सपा को भी पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाने का मौका देगी।

आखिर जनता सपा को ही क्यों वोट देगी?
सपा ही अकेली पार्टी है, जिसने बसपा सरकार के भ्रष्टाचार और जन विरोधी नीतियों के खिलाफ साढ़े चार साल तक संघर्ष किया है। चाहे मंहगाई का मामला हो या भ्रष्टाचार का, जबरन किसानों की जमीन छीनने की बात हो या पत्थर की मूर्तियां लगाने की...हमारे कार्यकर्ताओं ने इसका विरोध किया तो उन पर लाठियां बरसाई गईं, उन्हें जेल भेजा गया। बीएसपी की पुलिस ने हमारे कार्यकतार्ओं के घरों पर छापे मारे। वे नहीं मिले तो उनके बूढ़े मां-बाप और परिवार के लोगों को अपमानित किया और जेल में डाल दिया। राज्य की जनता बसपा शासन की तुलना सपा के शासन से कर रही है, तो उस लगने लगा है कि सपा के शासन में राज्य का विकास हुआ, बिजली और सड़कों पर काम हुआ, किसानों के लिए सस्ती खाद मुहैया कराई गई। उनके गन्ने को सही मूल्य मिले, इसके लिए कई चीनी मिलें खुलवाई गईं, कानून व्यवस्था दुरुस्त की गई। यही वजह है कि जनता सपा को एक बार फिर विकल्प के रूप में देखने लगी है।
अगर आप अपनी सरकार के कामकाज को आधार बना रहे हैं, तो जनता ने आपको सत्ता से बेदखल क्यों किया?
अगर वोट प्रतिशत पर नजर डालेंगे तो पाएंगे कि हमें बसपा से महज पांच फीसदी वोट कम मिले थे, लेकिन सीटों में दुगना अंतर था। यानी, हमसे केवल 2.5 फीसदी मतदाता ही नाराज थे, जिन्होंने बसपा को वोट दिया। 80 विधानसभा सीटें ऐसी थीं, जहां हमारे प्रत्याशी 5,000 से कम वोटों से हारे थे। इस बार बसपा से मतदाता बुरी तरह नराज हैं। इसका फायदा हमें एंटी इन्कम्बंसी वोटों के जरिए मिलेगा। लिहाजा पिछली बार मामूली वोटों से हारी इन सीटों के अलावा और सीटें भीं हम बसपा से हथिया लेंगे।
आप सरकार बनाने की बात कह रहे हैं, लेकिन बसपा कह रही है कि उनका मुकाबला तो कांग्रेस से है, सपा से नहीं?
वह तो जनता का ध्यान हटाने के लिए ऐसा कर रही है। वह ऐसा आज से बहुत पहले से कह रही हैं। मेरी नजर में तो कांग्रेस मुकाबले में है ही नहीं। अभी तो वो उठ ही नहीं पा रही है।
लेकिन, राहुल गांधी तो पार्टी को उठाने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं।
उनकी कोशिश पर कांग्रेसी ही पलीता लगा रहे हैं। किसानों का हितैषी बनने के लिए उन्होंने भट्टा पारसौल से अलीगढ़ तक पदयात्रा निकाली। तब एक व्यक्ति का शव मिला और गांव की एक महिला से बलात्कार का मामला सामने आया तो कांग्रेस को पीछे हटना पड़ा। मैं पूछता हूं कि जब प्रदेश में भ्रष्टाचार, हत्या और लूट मची हुई थी, तब कांग्रेस कहां थी?
अन्ना फैक्टर का क्या असर होगा?
अन्ना हजारे भ्रष्टाचार का जो सवाल उठा रहे हैं, सपा उत्तर प्रदेश में यह सवाल साढ़े चार साल से उठा रही है। जब उन्होंने इस मुद्दे पर देश भ्रमण की बात कही तो सबसे पहले हमने उन्हें उत्तर प्रदेश में आमंत्रित किया, लेकिन वे नहीं आए। अब सुना है कि वे अच्छे प्रत्याशियों को जिताने के लिए प्रयास करेंगे। अगर अन्ना आधा घंटा भाषण देंगे तो इसमें 15 मिनट बसपा के भ्रष्टाचार पर बात होगी और 15 मिनट कांग्रेस पर। इन्हीं दोनों की सरकार है। अगर अन्ना कहते हैं कि जो भ्रष्टाचार नहीं कर रहा है उसे वोट दो, तो यह तो सीधे हमारे पक्ष में जाएगा।
आप भी नौजवान हैं, आपकी नजर में युवाओं की सबसे बड़ी समस्या क्या है?
बेरोजगारी मुख्य समस्या है। हम अनएम्प्लॉयड यूथ नहीं, अनएम्प्लॉयड फादर (बेरोजगार बाप)पैदा कर रहे है। नौजवानों की शादी तो हो रही है, लेकिन उन्हें नौकरी नहीं मिल रही। अभी हमें एक सर्वे के जरिए पता चला कि अकेले बरेली मंडल में ही तीन लाख नौजवान बीबीए और बीटेक करने के बाद बेरोजगार बैठे हैं, इसलिए हमें सस्ती शिक्षा के साथ-साथ राज्य में तेजी से औद्योगिक विकास करना होगा, ताकि पढ़े-लिखे नौजवानों को बेहतर रोजगार मिल सके।
आपके आदर्श कौन हैं?
गांधी, लोहिया और नेताजी मेरे आदर्श हैं. गांधी जी के विचार देश की आत्मा को समझने में मदद करते हैं तो लोहिया जी के विचार समाज के लिए कुछ कर गुजरने की प्रेरणा देते हैं।
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मनोरंजन 
इन फिल्मों ने तोड़ी बोल्डनेस की बाउंड्री
दिसंबर में रिलीज विद्या बालन की फिल्म ' डर्टी पिक्चर्स ' साउथ की फिल्मों में सेक्स सिंबल रही सिल्क स्मिता की जीवनी से प्रेरित है। फिल्म में विद्या बालन बहुत ही बोल्ड लुक्स और डायलॉग के साथ नजर आएंगी। इस फिल्म का प्रोमो इंटरनेट पर आने के हफ्ते के अंदर ही इसे 8 लाख से ज्यादा लोगों ने देखा और पसंद किया। बॉलिवुड में इससे पहले भी कई फिल्में आ चुकी हैं, जिन्होंने बोल्डनेस की बाउंड्री तोड़ी और फिल्म इंडस्ट्री को नए आयाम दिए। इनमें से कुछ तो बॉक्स आॅफिस पर चली भी नहीं लेकिन इनमें काम करने वाली ऐक्ट्रेस को जरूर एक नई पहचान और सेक्स सिंबल का टैग मिल गया। आइए एक नजर डालते हैं ऐसी ही कुछ फिल्मों पर- 
चेतना : 1970 में आई इस फिल्म में ऐक्ट्रेस रेहाना सुल्तान ने एक शराबी और बेबाक लड़की चेतना का रोल किया था। चेतना बिना किसी मजबूरी के सिर्फ अपने शौक पूरे करने के लिए वेश्यावृत्ति करती है, क्योंकि उसके मुताबिक यह पैसा कमाने का सबसे आसान तरीका है। फिल्म के एक सीन में चेतना का डायलॉग था - मुझे यह सब पसंद है, बहुत पसंद है। फिल्म को लेकर बाद में इतना विवाद हुआ कि रेहाना ने एक इंटरव्यू में कहा कि इस फिल्म ने मेरा करियर पूरी तरह बर्बाद कर दिया।
परोमा : अपर्णा सेन द्वारा निर्देशित 1984 में आई इस फिल्म में राखी ने एक अपर मिडिल क्लास की विवाहित महिला का रोल किया था, जो उम्र में खुद से काफी छोटे फोटॉग्रफर से इश्क कर बैठती है। हालांकि आज के लिहाज से यह उतनी विवाद को विषय नहीं है, लेकिन उस समय पश्चिम बंगाल के भद्रलोक में इस पर काफी बवाल मचा था। उसका आरोप था कि परोमा उनकी बहू - बेटियों की छवि को धूमिल कर रही है।
माया मेमसाब : 1993 में केतन मेहता ने विश्वविख्यात औपन्यासिक कृति मदाम बोवरी से प्रेरित इस फिल्म में अपनी वाइफ दीपा साही के साथ फिल्म इंडस्ट्री में स्ट्रगल कर रहे शाहरुख खान को कास्ट किया था। फिल्म की कहानी एक शादीशुदा लेडी की थी, जो अपनी शादी के बाहर अफेयर करती है। फिल्म में एक न्यूड सीन था जिसकी वजह से यह फिल्म काफी विवादों में रही।
फायर : समलैंगिक रिश्तों पर यह पहली भारतीय फिल्म थी। 1998 में आई दीपा मेहता की इस फिल्म में अपनी - अपनी शादियों से नाखुश देवरानी नंदिता दास और जेठानी शबाना आजमी के बीच शारीरिक संबंधों को दिखाया गया था। इस फिल्म का जबर्दस्त विरोध हुआ। सिनेमाघरों में लोगों ने जमकर तोड़ - फोड़ तक मचाई। लेकिन महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुरली मनोहर जोशी ने यह फिल्म देखने के बाद कहा था कि मैं इस फिल्म के निमार्ताओं को बधाई देता हूं, इस तरह का कॉन्सेप्ट हमारे कल्चर के लिए बिल्कुल नया है।
जिस्म : यह फिल्म भले ही ऐवरेज रही हो, लेकिन हॉट फिल्मों के एक सर्वे में इसे दुनिया की टॉप 100 फिल्मों में जगह मिली थी। फिल्म में बिपाशा अपने पति की दौलत पाने के लिए जॉन का सहारा लेती है। इस दौरान जॉन बिपाशा के बीच कई इंटीमेट सीन भी दिखाए गए। इन दोनों के बीच चुंबन का एक दृश्य बॉलिवुड के कुछ हॉट किसों में शुमार है। फिल्म के ऐक्टर जॉन अब्राहम ने खुद इस बात को स्वीकार किया था कि 2003 की इस फिल्म में उनकी और बिपाशा की हॉट केमिस्ट्री को कभी भी दोहराया नहीं जा सकता।
मर्डर : यह फिल्म 2004 यानी मोबाइल के दौर में आई। इस फिल्म में मल्लिका सहरावत और इमरान हाशमी का हॉट लव मेकिंग सीन फिल्म रिलीज होने से पहले ही इंटरनेट और युवाओं के मोबाइल फोन तक पहुंच गया था। रिचर्ड गेरे की फिल्म अनफेथफुल से इंस्पायर्ड इस फिल्म में मल्लिका सहरावत अपने एक्स बॉयफ्रेंड के साथ हमबिस्तर होती हैं। मल्लिका ने इस फिल्म में कुछ ऐसे सीन दिए थे , जो इंडियन स्क्रीन पर पहली बार देखे गए। फिल्म की कहानी तो नई नहीं थी लेकिन अपने बिंदास डायलॉग और हॉट सीन्स की वजह से यह खासतौर से युवाओं के बीच चर्चा का विषय बनी।  -दीप गंभीर
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samachar visfot decembar 2011

भारत को बांटने के फिराक में चीन
विद्रोही गुटों को साथ लाने की रणनीति
सुभाष कार्तिकेय/नई दिल्ली
प्रमुख पड़ोसी तेश हमें तोड़ने की जुगत में है। वह नहीं चाहता है कि भारत उससे आगे निकले। चीन न केवल पूर्वोत्तर राज्यों में सक्रिय विद्रोही गुटों की गतिविधियों में रुचि ले रहा है, बल्कि उनके मामलों में दखलंदाजी भी कर रहा है। वह इन गुटों को हथियार की आपूर्ति भी कर रहा है। भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन चीन की गतिविधियों को लेकर बेहद चिंतित हैं। पिछले दिनों उन्होंने वरिष्ठ सुरक्षा अधिकारियों की एक अहम बैठक में इस मुद्दे पर बात भी की थी। गृह मंत्रालय के गोपनीय दस्तावेज में दर्ज इस बातचीत के मुताबिक, मेनन ने कहा कि चीन की गतिविधियां आने वाले दिनों में भारत की सुरक्षा पर विपरीत असर डाल सकती हैं। गत जुलाई में मणिपुर के 7 मैइती विद्रोही गुटों ने नगा विद्रोही गुट एनएससीएन (के) की मदद से संयुक्त मोर्चा गठित किया था। चीन लंबे समय से ऐसे मोर्चे की वकालत कर रहा था। दस्तावेज के मुताबिक, बांग्लादेश सरकार की ओर से अपनी जमीन पर सक्रिय भारत विरोधी गुटों के खिलाफ कार्रवाई के बाद चीन के लिए इन गुटों से संपर्क आसान हो गया है। बांग्लादेश से ये गुट म्यांमार चले गए हैं। म्यांमार में सारे भारत विरोधी गुट एक जगह पर हैं। चीन इनसे संपर्क में है और उन्हें हर संभव मदद भी दे रहा है।
यह भी खबर है कि हाल में चीनी इंटेलिजेंस अधिकारी आईएसआई अधिकारियों के साथ इस इलाके में भी गए थे। दस्तावेज के मुताबिक ,म्यांमार में अल्फा सहित नगा और मैइती विद्रोही गुट शिविर चला रहे हैं। नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट आफ बोडोलैंड (एनडीएफबी ) का एक गुट और मणिपुर के विद्रोही गुट नेपाल में भी शरण लिए हुए हैं। चीनी एजेंसियां इनसे संपर्क में हैं। प्रतिबंधित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) अब असम में भी जाल फैलाने की कोशिश कर रही है। देश की लगभग 40 प्रतिशत आबादी को प्रभावित कर रहे नक्सली ऊपरी असम के इलाकों में पैठ बनाने की कोशिश कर रहे हैं। नक्सलियों ने इस इलाके में अपनी जड़ें जमा लीं , तो उनको देश के बाहर से मदद मिलना आसान हो जाएगा। सरकार के साथ शांति वार्ता का विरोध कर रहा अल्फा का परेश बरुआ गुट भी अपनी ताकत बढ़ाने की कोशिश कर रहा है। उसे भी सीमा पार से मदद मिल रही है। सूत्रों के मुताबिक चीन पूर्वोत्तर के उन विद्रोही गुटों को एकजुट करने की कोशिश कर रहा है , जो फिलहाल सरकार के साथ शांतिवार्ता के पक्षधर नहीं हैं। इनमें असम सहित 7 राज्यों के विद्रोही गुट शामिल हैं। 

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अपाहिज बेटी को बोझ बताकर दलाल को बेचा
मुंबई।
मुंबई में मां-बाप ने 14 साल की अपनी अपाहिज बेटी की परवरिश में नाकाम रहने पर उसे एक दलाल को बेचकर सेक्स रैकेट में धकेल दिया। मुंबई पुलिस ने इस सेक्स रैकेट का पदार्फाश कर इस लड़की को मुक्त कराया। इस लड़की के पैर खराब हैं। वह होश संभालने से लेकर अब तक वीलचेयर पर ही रहती है। कुछ महीने पहले उत्तर प्रदेश के  रहने वाले दंपती ने अपनी बेटी को 10 हजार रुपये में दलाल को बेच दिया था। लड़की ने पुलिस को बताया कि उसके माता-पिता उसे बोझ समझते थे। उन्हें लगता था कि उसकी शादी नहीं हो पाएगी।
मुंबई पुलिस के एसीपी वसंत धोबले को इस सेक्स रैकेट के बारे में सूचना मिली थी। पुलिस के पास खबर थी कि एयरपोर्ट के बाहर आॅटो वाले 350 से 500 रुपये में ग्राहकों को होटेल में ले जाते थे। इन दलालों को इसके लिए एक हजार रुपये मिलते थे। एयरपोर्ट पर एक पुलिस अधिकारी नकली ग्राहक बनकर आॅटो ड्राइवर से किसी होटेल पर चलने को कहा। ड्राइवर ने रास्ते में बताया कि वह उनको ऐसे होटेल पर ले चलेगा जहां रात को भी उनकी खूब खातिरदारी होगी। वह उसे अंधेरी ईस्ट के कुमड़िया रेजिडेंस होटेल ले गया।
अधिकारी को कमरे में इंतजार करने को कहा गया और कुछ देर बाद 4 नाबालिग लड़कियों को सामने खड़ा कर दिया गया। अधिकारी यह देखकर दंग रह गया कि उनमें से एक लड़की अपाहिज थी। लड़की की उम्र के हिसाब से 2 हजार से 10 हजार रुपये की मांग की गई। पुलिस अधिकारी के इशारे पर पुलिस ने छापा मार दिया। पुलिस ने मैनेजर, होटेल के कर्मचारियों और दलाल को गिरफ्तार कर लिया। पुलिस ने लड़की को भी मुक्त करा लिया। पुलिस का कहना है कि लड़की का क्या होगा वह नहीं जानते। वह अपने घर नहीं जाना चाहती है। 

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नेत्रहीनों ने किया नेत्रहीन के साथ बलात्कार
कल्याण (मुंबई)।
अपनी बीबी को जिस दोस्त के भरोसे छोड़कर नेत्रहीन शिवनाथ गांव गया था , उसी दोस्त ने उसकी नेत्रहीन बीबी शिल्पा (बदला नाम) की अस्मत को तार-तार कर दिया। मानवता को शर्मसार करती यह घटना अंबरनाथ की है। हैरानी की बात तो यह है कि दुष्कर्म की इस घटना में शामिल दोनों आरोपी भी नेत्रहीन हैं।
दरअसल , शिवनाथ ने गांव जाते समय शिल्पा का ध्यान रखने की जिम्मेदारी अपने चेन बेचने वाले दोस्त अशोक यादव और महेश यादव को दी थी, ताकि उसकी बीबी को कोई दिक्कत ना हो। पुलिस के अनुसार, 27 अक्टूबर की शाम महेश ने सिम कार्ड ऐक्टिवेट कराने के बहाने शिल्पा को बुलाया और अपने दोस्त अशोक के साथ मिलकर शिल्पा का बलात्कार किया। गुरुवार को जब शिवनाथ गांव से वापस आया, तो शिल्पा ने उसे आपबीती सुनाई। इसके बाद दोनों ने कोलसेवाड़ी थाना जाकर अशोक और महेश के खिलाफ मामला दर्ज करवाया। पुलिस ने आरोपियों को हिरासत में ले लिया है। 
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