Thursday 1 December 2011

एड्स का सच और सवाल

हर साल दिसंबर माह में एड्स दिवस धूमधाम से जाता है। कई दिनों विशेष प्रचार अभियान चलता है। जांच के लिए विशेष कैंप लगते हैं। लेकिन गत एक दशक में जितना हो हल्ला एड्स को लेकर किया जाता रहा है, ऐसा प्रभावशाली अभियान उन दूसरी बीमारियों के खिलाफ नहीं चलाया गया, जिससे हर साल लाखों लोग मरते हैं। इन बीमारियों से मरने वाले लोगों की संख्या एड्स से मरने वालों की संख्या से कई गुना ज्यादा है। टी.वी. कैंसर, हैजा, मलेरिया आदि बीमारियां से आज भी करोड़ों लोग मर रहे है।
करीब तीन दशक जब अमेरिका में एचआईवी या एड्स का पहला मामला दर्ज हुआ था, तब पूरी दुनिया में इस नई बीमारी से तहलका मच गया था। हर देश इसे रोकने के लिए ऐसे अभियान में जुट गया जैसे कोई महामारी फैल रही हो। पर अभी तक न इसकी कारगर दवा खोजी जा सकी और न टीका। एड्स निर्मूलन अभियान में भारत समेत दूसरे पिछड़े और गरीब देशों में पहले से व्याप्त दूसरी गंभीर बीमारियों के प्रति सरकार की गंभीरता हल्की पड़ गई। कभी भी गंभीर बीमारियों से होने वाली मौत और एड्स से होने वाली मौत के आंकड़ों की तुलना की जा सकती है।
एक विचार करने वाली बात यह भी है कि जब एड्स निर्मूलन अभियान शुरू हुए थे। तब से ही कई प्रसिद्ध चिकित्सों व वैज्ञानिकों ने इसे खारिज किया। आरोप लगा कि एचआईवी एड्स की आड़ में कंडोम बनाने वाली कंपनियां भारी लाभ कमाने के लिए अभियान को हवा दे रही है। पर आरोपियों की आवाज एड्स के इस अभियान में गुम है। अभियान के शुरुआती दिनों में ही प्रसिद्ध अमेरिकी वैज्ञानिक कैरी मुलिस ने अभियान पर सवाल खड़ा किया था। संदेह जताने वाले कैरी मुलिस वही जैव रसायन वैज्ञानिक हैं जिन्हें 1993 का नोबेल पुरस्कार मिला। पालिमरेज चेन रिए क्सन तकनीक के विकास का श्रेय इन्हें ही हैं। इसी तकनीक का इस्तेमाल कर वायरस परीक्षण होता है। अमेरिकी पत्रिका पेंट हाऊस के सितंबर 1998 अंक में अपने प्रकाशित प्रकाशित लेख में बड़े ही तािर्कक तरीके से एड्स की अवधारणा को खंडित किया था। इनके अलावा भी दुनिया के कई बड़े वैज्ञानिकों ने स्वीकार किया कि मानव इतिहास के हर कालखंड में किसी न किसी रूप में एड्स जैसी खतरनाक स्वास्थ्य स्थिति का खौफ रहा है। चरक संहिता में एड्स से मिलती-जुलती स्थिति होने का उल्लेख भी मिलता है। वैज्ञानिक दावा करते है कि एड्स अपने आप में कोई बीमारी नहीं है। यह शरीर की ऐसी स्थिति है जिसे मनुष्य की रोग प्रतिरोध क्षमता नष्ट हो जाती है और वह धीरे-धीरे मौत की ओर अग्रसर हो जाता है।
हालांकि एड्स की स्थिति निश्चय ही गंभीर है। रोकथाम के लिए अभियान चलाया ही जाना चाहिए। लेकिन हमारा मानना है कि इस तरह के लगातार अभियान मलेरिया, टीबी आदि बीमारियों के खिलाफ क्यों नहीं चलती है?
मजे की बात यह है कि एड्स नियंत्रण अभियान जितने पैमाने पर चलाया जा रहा है, उस पैमाने पर एचआईवी एड्स पीड़ितों की संख्या नहीं है। समय-समय पर जारी होने वाले एचआईवी एड्स से ग्रस्त लोगों की संख्या में हमेशा संदिग्ध रही है। किसी साल कहां गया कि भारत एड्स की राजधानी बन रही है। तो कभी रिपोर्ट आई कि यहां एड्स प्रभावित लोगों की संया में कमी आई है। यह किसी मजेदार पहेली से कम नहीं है। एड्स और एचआईवी दोनों अलग-अलग धारणा है। प्रभावित व्यक्ति शायद ही समाज में कभी नजर आए। पर प्रचार इतना हो चुका है कि आज छोटे-छोटे बच्चों के जेहन में जनसंचार माध्यमों ने एड्स की जानकारी डाल दी है। मासूम नन्हें-मुन्ने भी जानने लगे हैं कि सुरक्षित यौन-संबंध के लिए कंडोम जरूरी है।
अभी भी केंद्र सरकार एड्स नियंत्रण पर हर साल करोड़ रूपये का बजट तय कर रही है। राज्य सरकार का बजट अलग होता है। विदेशी अनुदान भी अतिरिक्त है। बजट की भारी-भरकम राशि ने जनहीत के दूसरे कार्यो में लगे गैर-सरकारी संस्थाओं के मन में लालच भर दिया। जितना जल्दी एड्स विरोधी कार्यक्रम चलाने के लिए अनुदान मिल जाता है, उतना दूसरे कार्यों के लिए नहीं। लिहाजा, कई संस्थानों ने जनहित में जारी दूसरी परियोजनाओं को छोड़ कर एड्स अभियान का दामन पकड़ लिया है, जितने रुपये अभियान चलाने के लिए जितनी राशि एनजीओ को मिले, उतनी कम राशि खर्च करके उन लाखों गर्भवती माताओं को बचाया जा सकता हैं, जिन्हें समुचित इलाज की सुविधा नहीं मिल पाती है। डायरिया से ग्रस्त करीब 90 प्रतिशत महिलाओं भी अकाल काल के गाल में सामने से रोका जा सकता है। इतनी भारी भरकम राशि का अगर एक हिस्सा भी ईमानदारी से कुपोषित महिलाओं और बच्चों पर खर्च होता तो एक आज एक ऐसी नई सेहतमंद पीढ़ी जवान होती जो एड्स के खतरे से पहले ही सावधान रहती। पर एड्स नियंत्रण अभियान का जादू कुछ ऐसा छा गया है जिसने देश की बहुसंख्यक आबादी का ध्यान अपनी ओर खींच लिया है जिससे दूसरी जनस्वास्थ्य की दूसरी सुविधाओं को बेहतर तरीके से उपलब्ध कराने के अभियान पीछे छूट चुके हैं।
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