Thursday, 7 February 2013

बांझ मर्दों की बढ़Þती फौज



एक समय था, जब किसी निसंतान महिला को बांझ कर कह न केवल मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाता था, बल्कि उसे घर-परिवार के साथ समाज में भी दूसरे कोटी का मान लिया जाता था। समय बदला तो महिलाओं के माथे से ऐसे कलंक हटने लगे लगे। ए कलंक अब पुरुषों के माथे पर आने लगी है। विज्ञान ने यह हकीकत बताई कि संतान नहीं होने का एकमात्र कारण किसी महिला का बांझ होना नहीं है, बल्कि बांझ तो पुरुष भी हो सकते हैं।


अब केवल महिलाएं बांझ नहीं होती। अब मर्द भी इस कतार में खड़े हैं। मजेदार बात यह है कि बांझ मर्दों की फौज लगातार बढ़Þ रही है। इस समस्या को दूर करने का मेडिकल धंधा भी सधे हुए कदमों से पांव पसार रहा है। देश के प्रमुख शहरों में मर्दों के बांझपन के इलाज के लिए अलग से सेंटर खुल गए हैं। अश्चर्य की बात तो यह है कि अनेक युवाओं को यह पता ही नहीं कि वे आधुनिक जीवन शैली में बाप बनने की ताकत खो चुके हैं। मेडिकल कंपनियां इन्हें एक बाजार के रूप में देख रही है।


देवांशु नारायण
ज्यादा से ज्यादा धन की चाहत और बदलते समाज और परिदृश्यश् में तनाव से ग्रसित मर्द भी बांझपन का शिकार होने लगा है, ताजा शोध और डाक्टरों से जो जानकारी मिलती है वह चौंकाने वाली है। वजह चाहे जो भी हो, लेकिन हमेशा समाज ने महिलाओं के बारे में ज्यादा सोचा और बांझपन का ताज उन्हीं पर मढ़ा गया। शोध बताता है कि संतानहीनता में अब पुरुष भी बड़े कारण बन गए हैं। जिसमें शुक्राणुओं के नए मामले, तनाव से परेशानी, लोगों की जीवनशैली, मोटापे की महामारी और अत्यधिक दवाइयों का सेवन मुख्य कारक बताए गए हैं।
दो साला पहले की एक रिपोर्ट है।  उसके अनुसार आज के पुरुष प्रधान समाज के 10 प्रतिशत युवा पुरुषों के शुक्राणुओं की गुणवत्ता, मात्रा और निर्माण में भारी कमियां पाई गई हैं। साथ ही 6 प्रतिशत पुरुष बांझपन और 14 प्रतिशत अंडाशय संबंधी विफलता क्रोमोसोम में गड़बड़ी के कारण बाप बनने की क्षमता खो चुके हैं। रिपोर्ट में बांझपन के कारण 40 प्रतिशत पुरुष, 40 प्रतिशत महिलाएं तथा 20 प्रतिशत अभी भी अभूझ बने हुए हैं। ऐसा सिर्फ भारत में ही नहीं हैं, बल्कि पिछले 50 वर्षो में दुनिया भर के पुरुषों में शुक्राणुओं की संख्या 50 फीसदी कम हो गई है। डॉक्टर मानते हैं कि पुरुष में बांझपन के कारण और इसे कम करने के लिए मेडिकल साइंस को और शोध की जरूरत है। शोध रिपोर्ट के मुताबिक जानकारी मिलती है, वह मर्दों की नींद  उड़ाने के लिए काफी है।
आश्चर्य की बात तो यह है कि अनेक युवा ऐसे हैं तो बांझपन के अदृश्य बीमारी से      ग्रस्त हो चुके हैं। उन्हें इस बात का पता भी नहीं है कि वे भविष्य में बाप बनने कीक्षमता खो चुके हैं। रिपोर्ट के मुताबिक आज हमारे देश और प्रदेश में पांच में से एक दंपती निसंतान है। यह आंकड़ा स्थिर नहीं है। हर वर्ष निसंतान दंपतियों की संख्या बढ़Þती जा रही है। शहरों की 16 प्रतिशत महिलाएं निस्संतान हैं। भारत में 1981 के बादे से शहरी क्षेत्रों में संतानहीनता के मामले में 50 प्रतिशत की बढ़Þोतरी हुई है। पुरुष के मुख्य कारणों में 37 प्रतिशत वैरीकोसील, 25 प्रतिशत इंजियोपैथिक, 10 प्रतिशत शुक्राणुओं में गड़बड़ी, 9 प्रतिशत अंडकोष में खराबी बताया गया है। वहीं महिलाओं में बांझपन की समस्याएं लंबे अरसे से जुड़ी हैं, जिसमें 37 प्रतिशत से उम्र का अधिक होना, 22 प्रतिशत फैलोपियन ट्यूब की समस्या, 20 प्रतिशत पालीसिस्टिक ओवरी, 18 प्रतिशत जननांगों में टीवी और 10 प्रतिशत आनुवांशिक समस्याएं का होना है।
आंकड़ों के मुताबिक भारत के 9 करोड़ पुरुष बाप होने की क्षमता की कमी के शिकार हो चुके हैं। इस आंकड़े को बढ़Þते देख मेडिकल कंपनियां इन्हें एक बड़े उभरते हुए बाजार के रूप में देख रही है। अनुमान के आधार पर विशेषज्ञ कहते है कि देश में बांझपन के इलाज के लिए उपयोग होने वाला  दवा का कुल करोबार करीब 90 करोड़ से एक अरब तक का हो चला है। यह यह दवा का बाजार फिर फलफूल रहा है। इसके साथ ही इसके उपचार का करोबार हर साल 20 से 30 प्रतिशत की दर से आगे बढ़Þ रहा है।
हाल ही में प्रकाशित एक प्रतिष्ठित पत्रिका की रिपोर्ट के मुताबिक देश में बांझपन के इलाज के लिए 40 हजार चक्र चलते हैं, जबकि 2000 में इसकी संख्या सिर्फ 7 हजार थी। आज के समाज या वर्ग में शिक्षित युवा की संख्या ज्यादा है, वे किसी भी तकलीफ या परेशानी में तुरंत डाक्टरों से मिलते हैं और खुलकर बात करते हैं। अगर दंपतियों की बात माने तो उनका कहना होता है कि घर, परिवार और समाज को देखते हुए बच्चों का जीवन में होना अत्यंत आवश्यक माना जाता है। कई मामले तो ऐसे भी रहे हैं जहां भारतीय परंपरा में लक्ष्मी की संज्ञा प्राप्त नारियों को फरमान तक सुना दिया जाता है कि इतने समय के अंदर आपको बच्चे पैदा करना है, अगर नहीं तो पुरुष दूसरी शादी करता है और पहली लक्ष्मी आत्महत्या, आत्मदाह या आकाल मृत्यु को अपनाती है। जरा सोचिए इस विषय पर कि क्या इसका दोषी सिर्फ महिलाएं हैं, तो उत्तर मिलेगा नहीं, कहीं न कहीं पुरुष भी जींदगी की उहा-पूह में बांझपन के शिकार हो गए हैं। भारत में बच्चा पाने या जन्म देने की भी कीमत और इलाज हैं। जैसा इलाज वैसी कीमत। अगर आइयूआई के तहत गर्भाधारण किया जाता है तो इसमें 3 से 15 हजार तक खर्च आते हैं। एक अन्य इलाज में आइवीएफ के तहत गर्भाश्य को दवा के जरिए अंडाणु पैदा करने के लिए प्रेरित किया जाता है, फिर उन्हें गर्भाशय से बाहर निकालकर निषेचित किया जाता है, भ्रूण को वापस गर्भ में रख दिया जाता है और इसमें प्रति चक्र 50 हजार से 1 लाख 50 हजार तक खर्च हो जाते हैं। इसी तहत तीसरी विधि आसीएफआई में लैब में प्रत्एक अंडाणु में एक शुक्राणु डालकर उन्हें निषेचित किया जाता है और इसमें 80 हजार से 1 लाख 50 हजार खर्च हो जाते हैं।
आज के समाज में 17 प्रतिशत बांझ स्त्रियों को वैवाहिक समस्याएं झेलनी पड़ती है। बच्चे वाली 2 प्रतिशत के साथ भी ऐसा होता है। मुंबई की डॉ. फिरूजा कहती हैं कि दंपती आजकल बहुत एहतियात बरतते हैं, वे सामान्य बात पर जनरल फिजिशियन या स्त्रीरोग विशेषज्ञों से मिलने के बजाए सीधे इनफर्टिलिटी विशेषज्ञ से मिलने जाते हैं। डॉ. इंदिरा बताती हैं कि बांझपन की समस्या सरकार की योजनाओं में शामिल नहीं हैं, निस्संतान दंपतियों को बच्चा पैदा कराने में मदद कराने का कोई प्रावधान नहीं है। एबरडीन डॉ. शिलादित्य का कहना है कि संतानहीनता की परिस्थितियों का पूरा ज्ञान न होना लोगों का जीवन बरबाद कर सकता है। विकासशील देशों में इसे सार्वजनिक स्वास्थ्य का मामला मानना चाहिए।

लेखक परिचय
देवांशु नारायण : युवा पत्रकार। पटना से मंजिल की तलाश में म.प्र. सागर सेंट्रल यूनिवर्सिटी में पत्रकारिता की पढ़ाई, वहीं दैनिक भास्कर में रिर्पोटिंग और अखबार की व्यवहारिक टेÑनिंग। पटना मौर्य टीवी में छह माह तक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के तानेबाने के साथ झूठों की फौज को समझा। अब छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में दैनिक हरिभूमि के संपादकीय सहयोगी के रूप में समाचार जगत को जानते-समझते बेहतर पत्रकारिता का भविष्य देख रहे हैं।






'बेडरूम संकट' से जूझते दुनिया भर के मर्द!

from bbc
भागती आधुनिक जीवनशैली, इससे उत्पन्न तनाव, इस तनाव से बचने के लिए सिगरेट और शराब का सहारा- पुरुषों को बेडरूम में निष्क्रिय बना रहा है। कभी मर्दानगी पर इतराने वाले मर्द अब अपनी महिला साथी से नजरें चुराने लगे हैं।

यह खबर पढ़कर अजीब लगे, लेकिन पूरी दुनिया के मर्दों के सामने 'बेडरूम संकट' मुंह बाए खड़ा है। नपुंसकता, बांझपन और शीघ्रपतन की समस्या ने बेडरूम के अंदर दुनिया भर के मर्दों का विश्वास हिला दिया है। अनियमित खानपान, खानपान में पोषकता का अभाव, फास्ट फूड और कोल्डड्रिंक पर बढ़ÞÞती निर्भरता, शारीरिक श्रम में कमी, तेज भागती आधुनिक जीवनशैली, इससे उत्पन्न तनाव, इस तनाव से बचने के लिए सिगरेट और शराब का सहारा- पुरुषों को बेडरूम में निष्क्रिय बना रहा है। कभी मर्दानगी पर इतराने वाले मर्द अब अपनी महिला साथी से नजरें चुराने लगे हैं।
फ्रांसिसी मर्द पर हाल ही में हुए एक अध्ययन ने दर्शा दिया है कि न केवल फ्रांस के मर्द, बल्कि पूरी दुनिया के पुरुष बेडरूम में संकट का सामना कर रहे हैं। आधुनिक जीवनशैली के कारण मर्दो के वीर्य में शुक्राणुओं की संख्या लगातार कम हो रही है।  यही हाल रहा तो वह दिन दूर नहीं जब 'शुक्राणु विहीन वीर्य' हर देश के पुरुषों की समस्या बन जाएगी।
'ह्यूमन रिप्रोडक्शन' नाम के जर्नल में छपे शोध के मुताबिक फ्रांस में 26,600 मर्दों के वीर्य का परीक्षण किया गया। परीक्षण में पाया गया कि 16 वर्षों के भीतर इन मर्दों में 32.3% शुक्राणु घटे हैं। मतलब फ्रांसिसी मर्दों के शुक्राणुओं की संख्या साल 1989 से साल 2005 के बीच एक तिहाई गिरी है। वैसे जीव विज्ञानियों का मानना है कि पुरुषों के वीर्य में जो शुक्राणुओं की संख्या है वह अभी भी प्रजनन के लिए पर्याप्त है, लेकिन जिस दर से शुक्राणु क्षरण हो रहा है वह भविष्य के लिए चिंता का विषय है।
इस अध्ययन से जुड़े डॉक्टर जोएल ला मोए इसे गंभीर चेतावनी करार दे रहा है। उनका कहना है कि शुक्राणुओं के परीक्षण के लिए बड़े पैमाने पर किया गया यह अपनी तरह का पहला अध्ययन है, जो दर्शा रहा है कि पुरुषों के वीर्य में शुक्राणुओं की संख्या में लगातार कमी जन स्वास्थ्य के लिए एक गंभीर चेतावनी है।
ब्रिटेन के शेफील्ड विश्वविद्यालय के डॉक्टर एलन पेसी कहते है, शुक्राणुओं की संख्या में पाई गई गिरावट वैसे तो अब भी 'नॉर्मल रेंज' में है। उनके अनुसार, नर प्रजनन के लिए प्रति मिलीलीटर डेढ़ करोड़ शुक्राणुओं की जरुरत होती है। अध्ययन में प्रति मिलीमीटर चार करोड़ से अधिक शुक्राणु पाए गए हैं। लेकिन शुक्राणुओं की संख्या में कमी आ रही है, इससे इनकार तो नहीं ही किया जा सकता है।
आधुनिक लाइफस्टाइल में गड़बड़ ही गड़बड़ है
एडिनबरा विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रिचर्ड शार्प के अनुसार, हमारे आधुनिक लाइफस्टाइल में सबकुछ गड़बड़ है। अनियमित खान-पान और खानपान में जिस तरह से रसायनों का प्रयोग हो रहा है यह सब शायद उसी का असर है। वैसे इसके अहम कारणों को खोजा जाना चाहिए, क्योंकि मुद्दा गंभीर है।
आधुनिक जीवनशैली, वसा युक्त भोजन, हमारे जीवन में रसायनों की बढ़ÞÞती मौजूदगी, काम का बढ़ÞÞता दबाव और उससे उत्पन्न तनाव, सिगरेट और शराब ने उस अंग पर चोट किया है, जो मर्दों के लिए 'मर्दानगी' का पर्याय है। आखिर पुरुषों की 'मर्दानगी' की हेकड़ी 'लिंग दंभ' की वजह से ही तो है...और 'लिंग शिथिलता' ने इस हेकड़ी की हवा निकालने की शुरुआत कर दी है...भले ही अभी यह फ्रांस में दिख रहा है, लेकिन यदि अध्ययन हो तो हर देश के मर्द का 'लिंग' उन्हें धोखा देता दिख जाएगा।


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आईपीओ से पैसे जुटाकर 87 कंपनियां फरार


नई दिल्ली।
पिछले वित्त वर्ष के अंत तक ऐसी 87 लापता कंपनियां थीं जिन्होंने आईपीओ के जरिए राशि जुटायीं लेकिन बाद में उनका पता नहीं लग सका। कार्पोरेट मामलों के मंत्री सचिन पायलट का कहना है कि लापता कंपनियों की सूची में 238 कंपनियां हैं। इन कंपनियों में से 151 का पता लगा लिया गया है जबकि अन्य 87 कंपनियों का अभी तक पता नहीं चल सका है।  31 मार्च 2012 के आंकड़ों के अनुसार 87 कंपनियां ऐसी थीं जिन्होंने आरंभिक सार्वजनिक पेशकश (आईपीओ) के जरिए राशि जुटायी थी। सरकार और सेबी द्वारा ऐसे मामलों में नजर रखी जा रही है।  देश में व्यापार शुरू करने के लिए माहौल में सुधार किया जा रहा है और इस संबंध में अधिकतर विलंब राज्य स्तरीय अनुमोदनों के कारण होता है। पायलट ने कहा कि देश में कारोबार शुरू करने के लिए विभिन्न प्रावधानों को आसान बनाया गया है और कंपनी को रजिस्टर करने के लिए लगने वाले समय को कम करते हुए इसे 48 घंटा कर दिया गया है। निदेशक की पहचान संख्या और कंपनी के नाम की उपलब्धता जैसे विषय को 24 घंटों के अंदर हल किया जा सकता है।
कंपनी विधेयक में शुद्ध लाभ का कम से कम दो प्रतिशत भाग कार्पोरेट सामाजिक जिम्मेदारी (सीएसआर) के तहत खर्च किए जाने के प्रावधान के संबंध में कंपनियों की ओर से कोई आपत्ति नहीं मिली है। मंत्रालय को कंपनी विधेयक में सीएसआर के प्रावधान को लेकर किसी कंपनी की ओर से कोई आपत्ति या विरोध नहीं मिला है। मंत्री पायलट ने शीतसत्र के दौरान संसद में  कहा कि इस प्रावधान में यह भी कहा गया है कि अगर कोई कंपनी सीएसआर की राशि खर्च नहीं करती है तो उसे बोर्ड की रिपोर्ट में इसका कारण बताना होगा।

चिपक कर सोने का धंधा नया धंधा


एक घंटे में कमाती है तीन हजार
न्यूयॉर्क।
बिस्तर पर एक लड़का-लड़की चैन की नींद सो रहे हैं। पहली नजर में आपको यह पति-पत्नी लगे, लेकिन हो सकता है कि इसी बिस्तर पर अगले कुछ घंटों में लड़की के सााि दूसरा शख्त हो। पलभर में ही आप लड़की के चरित्र पर सवाल खड़ा कर सकते हैं, लेकिन आपको बता दे कि यह लड़की पेशेवर कडलर (गले लगाने वाली) है। 29 साल की जैकी सैमुअल इस तरह अनजान मर्दों के साथ प्रतिदिन सोने के 360 डॉलर और एक घंटे के 60 डॉलर (करीब 14 हजार रुपए और 3 हजार रुपए) लेती है। पैसों की कमी के कारण जैकी ने इस काम को शुरू किया है। उनका कहना है कि इसमें कुछ भी बुरा नहीं है। मुझे अपनी पढ़ाई और अपने बच्चे के लिए यह काम करना पसंद है।
जैकी एक हफ्ते में तकरीबन 30 पुरुषों के साथ हमबिस्तर होती हैं, लेकिन इसमें कोई भी अश्लील हरकत नहीं की जाती। उनके यहां आने वाले लोगों में अपराधी से लेकर सैनिक भी होते हैं। जैकी बताती हैं कि फिर भी लोग इसे बुरा मानते हैं। हालांकि उनके इस काम धंधे से ज्यादा लोगों को खबर नहीं है, लेकिन उन्हें कॉलेज से निकालने की चेतावनी मिल चुकी है। कई बार जैकी के साथी छात्र उसे वेश्या तक कहते हैं। बकौल जैकी, मुझे बचपन से पता है कि चिपक कर कैसे सोया जाता है। चिपक कर सोना शरीर के लिए भी लाभदायक है। इसमें आध्यात्म और फन का मिश्रण भी हैं। जैकी सोचती है कि उनके यहां आने वाले लोगों के जीवन में कई परेशानियां हैं। उनके कुछ पुराने ग्राहक ऐसे हैं, जिनकी पत्नियों की मौत हो चुकी है। कुछ ऐसे हैं, जो पहली बार लड़की के साथ सोना चाहते हैं। कुछ अपनी घरेलू समस्याओं से ग्रस्त है। जैकी अपनी सर्विस की आॅनलाइन प्रचार भी करती हैं।
इस धंधे में जैकी ने अंर्तवस्त्रों से ढके शरीर के किसी भी हिस्से को छूने पर पाबंदी रखती है। सोते समय वह पाजमा पहनती हैं। किसी तरह की अश्लील हरकत वह बर्दाश्त नहीं करती है। फिलहाल उसका यह बिजनेस इतना अच्छा चल रहा है कि उन्होंने एक और लड़कीको अपना सहयोगी बना कर रख लिया है। कई बार ऐसा भी होता है कि ग्राहक दो औरतों के साथ सोना चाहता है।  कई बार ऐसा भी होता है कि जैकी को अश्लील फोन और ई-मेल आते हैं। जैकी बेबाकी से कहही है कि वेश्यावृति का उसके धंधे से ज्यादा आसान है, क्योंकि चिपक कर सोने में खुद को ज्यादा केंद्रित करना होता है।
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जहां आग में नहीं जलती मुर्दों की टांग!


सूरजबानी।
गुजरात के कच्छ के रन में बनने वाला नमक देश की करीब 75 फीसदी नमक की जरूरत को पूरा करता है, लेकिन बहुत कम लोगों को इस कारोबार में लगे अगड़िया समुदाय के नमक मजदूरों की त्रासदी का भान है। ये मजदूर जिंदगी भर नमक बनाते हैं और अंत में मौत के बाद इन्हें नमक में ही दफन कर दिया जाता है। नमक मजदूरों के जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि नमक में लगातार काम करने के कारण इनकी टांगे असामान्य रूप से पतली हो जाती हैं और इस कदर सख्त हो जाती हैं कि मौत के बाद चिता की आग भी उन्हें जला नहीं पाती। नमक के खेतों में काम करने वाले मजदूर बताते हैं कि इसलिए चिता की आग बुझने के बाद इनके परिजन इनकी टांगों को इकट्ठा करते हैं और अलग से नमक की बनाई गई कब्र में दफन करते हैं ताकि वे अपने आप गल जाएं। अहमदाबाद से 235 किलोमीटर और कच्छ जिला मुख्यालय से 150 किलोमीटर दूर स्थित सूरजबारी अरब सागर से मात्र दस किलोमीटर की दूरी पर है। गुजरात के पर्यटन अधिकारी मोहम्मद फारूक पठान ने बताया कि समुदाय के लोग यहां सदियों से रह रहे हैं और जीविका के रूप में उन्हें केवल यही काम आता है, नमक बनाना। यहां का भूजल समुद्री जल के मुकाबले दस गुना अधिक नमकीन है। इस भूजल को नलकूपों से निकाला जाता है और उसके बाद उस पानी को 25 गुना 25 मीटर के छोटे छोटे खेतों में भर दिया जाता है।’ उन्होंने बताया, ‘जब सूरज की किरणें इस पानी पर पड़ती हैं तो यह धीरे धीरे सफेद नमक में बदल जाता है ।’

गैर जाति के छूते ही झोपड़ी होती है अछूत

गैर जाति के छूते ही झोपड़ी होती है अछूत

अशोक दीक्षित
छत्तीसगढ़ के वनांचल में रहने वाले कमार भुंजिया जनजातियों की एक अनूठी परंपरा आज भी कायम है। इसमें वे अपने आवास के भीतर घास-फूंस से एक विशेष प्रकार की झोपड़ी बनाते है। इस झोपड़ी को वे लाल बंगला कहते हैं। इस बंगले को यदि कोई दूसरी जाति का व्यक्ति छू दे तो बंगले को वे आग के हवाले कर देते है, और नया लाल बंगला बनाते तक अन्न जल ग्रहण नहीं करते यह लाल बंगला उनकी इष्ट देवी और देवता का निवास होता है। जिसे कोई अन्य व्यक्ति नहीं छूने देते। क्षेत्र में कमारों के विकास के लिए कई योजनाएं चल रही है। इसके बावजूद कमार भुंजिया के भुंजिया के लोग विकास के लिए कई योजनाएं चल रही है इसके बावजूद कमार भुंजिया के लोग विकास की मुख्यधारा से नहीं जुड़े है। वे आज भी अपनी प्राचीन पंरपरा और मान्यताओं के साथ पिछड़ेपन की जिंदगी जीने को मजबूर है। गरियांबंद जिले के कटेपारा के तीजू भुंजिया (58) पिता फुलसिंग भुंजिया ने बताया कि वे लोग अपने आवास के भीतर एक अलग से छिंद, खद्दर, बांस और मिट्टी का छोटा घर बनाते है। कमारों की परंपरा को विस्तार से बताने वाले तीजू ने बताया कि लाल बंगला को जलाने के बाद छूने वाले व्यक्ति द्वारा लाल बंगला का निर्माण कराया जाता है। यदि वह तैयार नहीं होता तो वे स्वयं इसे तैयार करते हैं। जब तक बंगला दोबारा नहीं बन जाता तब तक उनके परिवार का खाना पीना बंद रहता है। वे लोग लाल बंगला में देवी देवताओं को बिठाते है। देवी और देवताओं का पूजा करते हैं। छूरा ब्लाक के कमार भुंजिया जनजातियों के लिए शासन द्वारा 25 हजार रुपए प्रति एकड़ की दर पर जमीन देने का प्रावधान है, लेकिन कमार भुंजिया लोगों को कृषि योग्य जमीन पर्दान नहीं की जा रही है। ब्लाक में इन जातियों के लिए किए जा रहे विकास के सारे दावे खोखले नजर आते हैं।

बेटियों की शादी के बाद लाल बंगले में प्रवेश निशेष : पूर्वजों की परंपरा के अनुसार कमारों की बेटियों को शादी के बाद लाल बंगले में प्रवेश निषेध है। शादी के बाद जब वह मायके आती है तब उसका विशेष ख्याल रखती है। किसी कमार भुंजिया  की शादी ब्याह पर बेटी लाल बंगला में नहीं जाती वे इस परंपरा का निर्वाह जीवनभर करेंगे। साथ ही उनके आने वाली पीढ़ी भी इस परंपरा को निभाएगी। परिवार में किसी भी महिला के माहवारी आने पर बंगले को छु नहीं सकता। उस लाल बंगले के सामने अलग से अना हुआ मकान में गुजारा करते है। भुंजिया परिवार के लोग अपने निजी उपयोग में पीने अथवा उपयोग किए जाने पानी को नहर या नदियों या फिर कछार में छरिया बनाकर पानी निकालकर पानी उपयोग में लाते है।
जंगल से गांव की ओर : कमार भुंजिया जनजाति के लोग अपने आने वाली पीढ़ी को लेकर चिंतित हैं। वे जंगल से गांवों में जाकर बसते जा रहे हैं। वे अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा कर विकास की मुख्य धारा से जोड़ना चाहते हैं। हाट बजारों में किसी भी होटल या सार्वजनिक स्थानों में तेल से तली हुई वस्तुएं को सेवन नहीं करते है। स्वयं के द्वारा बनाएं ज्यादातर प्राय: बिना तेल के पसंद करते है। जंगली फलों को उपयोग में लाते हैं।
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10 रुपए के स्टांप पेपर पर बेटी का सौदा


जुर्माना भरना था तो 11 साल की बेटी बेच दी
नारायण बारेठ/जयपुर
bbc
अभी वो सावन के झूलों, मंदिर की घंटियों और सहेलियों के संग खेलने-कूदने की उमंग से सराबोर थी। लेकिन उसे मां ने ही पराये हाथों बेच दिया। मां और खरीदार में बेटी के लिए ऐसे सौदा हुआ जैसे कोई जमीन-जायदाद या गांव में मवेशी के लिए खरीद-फ़ररोख्त हो रही हो। बोली लगी और मां ने अपनी 11 साल की बेटी को बेच दिया। राजस्थान के टोंक में पुलिस ने मां, खरीदार और बिचौलिये को गिरफ्तार कर लिया है। सौदा दस रुपये के स्टाम्प कागज पर हुआ और भुगतान किस्तों में तय हुआ था। पुलिस के मुताबिक इसका भांडा तब फूटा जब बालिका ने इस सौदे का विरोध किया और बचने के लिए बस्ती से निकल भागी। बालिका का पीछा किया गया तो वो बचने के लिए एक होटल में घुस गई और फर्नीचर के पीछे छुप गई। इसे देख लोगों ने पुलिस को इत्तिला दी और इस खरीद-फरोख्त सामने आ गई।
पुलिस के मुताबिक, बालिका की मां झालावाड़ की रहने वाली है। बालिका के खरीदार के साथ मां को गिरफ्तार कर लिया गया है। टोंक के पुलिस मानव तस्करी विरोधी यूनिट के उप निरीक्षक राकेश वर्मा ने कहा कि न लोगों को अदालत में पेश किया गया है। अब ये 8 फरवरी तक पुलिस रिमांड पर हैं।  हम घटना की तह में जाने की कोशिश कर रहे है। वहीं लड़की की मां ने पुलिस को बताया कि पंचायत ने उस पर साढ़े चार लाख रुपये का जुर्माना लगाया था जिसके बाद उसने बेटी की बिक्री की क्योंकि उसे जुर्माने के लिए पैसे की जरूरत थी। महिला ने पुलिस को बताया कि उसने अपनी बेटी को सवाई माधोपुर में एक व्यक्ति के यहां 'नाते' बैठा दिया था। नाता राजस्थान में शादी की एक प्रथा है इसमें पुरुष महिला के बदले कुछ पैसा देकर शादी कर लेता है। मां अपनी बेटी को कुछ समय बाद ही सवाई माधोपुर से वापस घर ले आई। पंचायत ने इसे गलत माना और अर्थ दंड लगा दिया। इस हिसाब से लड़की दूसरी बार बिकी है। बेटी के लिए ऐसे सौदा हुआ मानो मवेशी के लिए खरीद-फ़रोख्त हो रही हो।
पुलिस को मिले दस्तावेज के मुताबिक सौदा साढ़े छह लाख में तय हुआ जिसकी पहली किश्त दो लाख रुपए 16 दिसंबर को दी गई। पुलिस को बालिका ने बताया कि मां का कलेजा नहीं पसीजा और उसे ख़रीदार को सौंप दिया गया। वे उसे कंजरी बस्ती ले आये और अनैतिक कार्य के लिए दबाव डालने लगे। उसके साथ मारपीट भी की गई। बालिका ने पुलिस को बताया कि उसे मुंबई में बेचने के बात की जा रही थी तभी वो भाग निकली। पुलिस के अनुसार बालिका सवारी ढोने वाली एक जीप में बैठ गई और किराया मांगा तो रोने लगी। तभी दोनों ख़रीदार उसे पकड़ने के लिए आ गए. उनसे बचने के लिए वो सड़क किनारे एक होटल में दाखिल हो गई। फिलहाल लड़की को बालिका-गृह में रखा गया है।
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सरकार ने हाईजैक कर ली नुक्कड़ की क्रांति


रू-ब-रू :डा. संजय जिवने


प्रसिद्ध नुक्कड नाट्य रंगकर्मी संजय जिवने से संजय स्वदेश की बातचीत


कर्ज में डूबे किसानों के कारण देश-दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचने वाले महाराष्टÑ के विदर्भ क्षेत्र में रंगमंच की समृद्ध परंपरा रही है। कभी विदर्भ में करीब दो दर्जन से ज्यादा रंगमंच की संस्थाएं सक्रिय रहीं। लेकिन जैसे-जैसे समाज बदला। रंगमंच के रंग काफूर होते चले गए। कुछ कलाकार समाज की बदलती नब्ज को भांप कर मुंबई जा कर चकाचौंध की दुनिया में खो गए। अब कागजों में दो चार संस्थाएं सक्रिय हैं। कभी मौके-बे-मौके साल में दो चार नाटकों के मंचन भी दिख जाता है। ऐसे मौके पर आने वाले पुराने दर्शक नष्ट हो चुके समृद्ध रंगमंच की परंपरा को याद कर लेते हैं। इसी समृद्ध परंपरा में एक नाम संजय जिवने का हैं। बीते चार दशक से संजय जीवने नुक्कड पर नाटकों से क्रांति की अलख जगा रहे हैं। श्री जिवने समाज के दबे-कुचले शोषित और वंचित वर्ग समस्याओं की विषयवस्तु के साथ ही अभिनय का ऐसा ताना बना बुनते हैं कि नुक्कड़ के दर्शकों के दिल में अमिट छाप छोड़ देते हैं। उनके अदंर की संवदेनाओं में हिलोरे आने लगती हैं। नाटक से उभरने वाली संवदेना दर्शकों के मन में सार्थक जीवन के लिए कितनी झकझोरती है, इसकी चिंता उन्हें नहीं है। श्री जिवने कहते हैं कि कुछ दर्शक नाटक के विषय वस्तु से दिल में उभरी टीस को नुक्कड़ पर ही छोड़ आगे बढ़Þ जाते हैं तो कुछ समाज में सार्थक करने का संकल्प ले लेते हैं। पर इससे समाज में बदलावा की गति बहुत मंद तो हैं, लेकिन प्रभावी है।  यह सब चलते रहता है। बदली जीवन शैली में वे समाज को जगाने का संकल्प लेकर अपना दायित्व बखूबी निभाने में लगे हैं। गत दिनों नागपुर में उनसे नुक्कड़ नाटकों पर लंबी चर्चा हुई। प्रस्तुत है डा. संजय जिवने से हुई बातचीत के कुछ प्रमुख अंश :-

प्रश्न -वर्तमान समय में देश में नुक्कड़ नाटकों की क्या स्थिति है
उत्तर
-आज नुक्कड़ नाटक हैं कहां, जो हैं, उसे सरकार ने हाईजैक कर रखा है। जो लोग इससे जुड़े हैं, उसमें से अधिकतर सरकार के लिए ही काम कर रहे हैं। वे अधिकांश समय इसी गुणा-गणित में व्यस्त रहते हैं कि किस विषय वस्तु पर नुक्कड़ नाटक की परियोजना बने और सरकार उसे मंचन के लिए प्रायोजित करें। धन मिले। कई बार सरकारी परियोजनाओं पर नजर रख कर उसके अनुरूप विषय वस्तु तैयार कर अनुदान खाने के लिए काम किया जाता है। यही कारण है कि आज कही किसी नुक्कड़ पर कोई नाटक दिखता है तो उसका विषय वस्तु इतना सहज होता है, तो दर्शक उसे मनोरंजन की तरह लेते हैं। यदि कोई स्वतंत्र रूप से समाज को जगाने के लिए ऐसा कुछ कर रहा है तो उस पर सरकार की बंदिशे हैं। महाराष्टÑ में तो यह स्थिति है कि यदि नुक्कड़ पर नाटक का मंचन करना है तो सेंसर बोर्ड से आपको अनुमति लेनी पड़ेगी। फिर जब वहां आवेदन जाता है तो स्क्रीप्ट में तरह-तरह की खामियां निकाली जाती हैं। उसे निकालने को कहा जाता है। इससे कई बार अंर्तवस्तु कमजोर पड़ जाती है। नाटक उद्देश्य से भटक जाता है। यह सरकार की नकेल है।

प्रश्न- तो क्या आज नुक्कड नाटक अपने उद्देश्य से भटक गया है?
उत्तर-
जाहिर सी बात है, जब सरकार किसी नाटक को प्रायोजित करेगी तो उसका विषय वस्तु भी सरकार का ही होगा। इसलिए ऐसे नुक्कड़ नाटकों का ठेका लेने वाले उसी विषय वस्तु को तय करते हैं जिससे केवल सरकार का उद्देश्य भर पूरा हो सके। लेकिन ऐसे नाटकों में विषय समग्रता के साथ साकार नहीं हो पाते हैं। उसकी प्रस्तुति गंभीर नहीं हो पाती। हल्के से चुटिले अंदाज में प्रस्तुति भर से इतिश्री हो जाती है। दरअसल नुक्कड़ नाटक एक क्रांति हैं, थोड़े समय में चुनौतिपूर्ण अभिनय के माध्यम से जनता को जगाना महान उद्देश्य है, इसे कमाई का साधन बनाने से इसका उद्देश्य खत्म हो जाता है। जब उद्देश्य महान हो तो उसकी कार्यशौली भी पाक साफ होनी चाहिए। प्रायोजित नाटकों से महान उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो सकती है।

प्रश्न-कई कलाकार कहते हैं कि यदि समुचित सुविधा उपलब्ध कराई जाए तो मृत होती इस कला में नई जान आ सकती है?
उत्तर-
नुक्कड़ नाटकों के लिए किस तरह की साधन और सुविधा की जरूरत है? क्या इसके मंचन के लिए संगीत और रोशनी के तकनीकी साधनों से लैस प्रेक्षागृह की आवश्यकता है या अभ्यास के लिए किसी जगह की? यह सब बहाने हैं। जगह और साधन की बात छोड़िए। यदि अंदर आग है तो स्पेश अपने आप मिल जाता है। समाज बदल चुका है। लोगों की सोच बदल चुकी है। यह समाज स्वयं आगे आकर कोई स्पेश और साधन नहीं देगा। यदि साधन मिल भी जाए तो इस बात की क्या गारंटी है कि नुक्कड़ नाटकों में धार आ जाएगी।

प्रश्न- बिना अनुदान या अन्य किसी तरह के सहयोग या साधन के आभाव में आज नुक्कड़ नाटकों की सफलता कैसे संभव है?
उत्तर-
आप सार्थक उद्देश्य से नाटक का मंचन करना चाहते हैं तो आपको न फंड की जरूरत है और न ही किसी साधन की। इसका जीता जागता उदाहरण मैं स्वयं हूं। 1978 से भूखे प्यासे नुक्कड़ पर समाज को जगाने का अभियान जारी है। ऐसा यह संभव इसलिए क्योंकि इसे मैंने सोए हुए समाज को जगाने के लिए अपनी जिम्मेदारी समझा। लेकिन सबसे ऐसा जज्बा नहीं होता है। जैसे जैसे लोगों के जीने का तरीका बदला, आदर्श बदले इसका असर इस कला पर भी पड़ा। इससे जुड़े अनेक कलाकारों ने मूल्यों से समझौता किया। लेकिन जिन्होंने परिस्थितियों से हार कर मूल्यों से समझौता किया, वे समाज को नहीं जगा पाए।
प्रश्न- आजकल नुक्कड़ नाटकों के लिए स्क्रीप्ट कौन लिखता है? इसकी क्या स्थिति है?
उत्तर-
स्क्रीप्ट की क्राइसिस पहले भी थी और अब भी है। यह सब चलते रहता है। मुख्यधारा के रंगमंच में भी यही हाल है। इसी क्राइसिस के बीच-बीच में बेहतरीन स्क्रीप्ट आते रहते हैं। जिन कलाकारों के पास अपना विजन (दृष्टिकोण) हैं, अधिकर स्क्रीप्ट वे स्वयं ही तैयार कर लेते हैं।
प्रश्न -आपके अधिक३ंर नाटक दलित समस्याओं के इर्द-गिर्द घुमती है? क्या आपने सुनियोजित तरीके से रंगमंच के इस विधा को दलित श्रेणी में बांटा?
उत्तर-
देश में जब कम्युनिस्ट आए, तब उन्होंने बड़े ही जोर-शोर से शोषितों के दर्द को मुद्दा बनाया। लेकिन वे यह नहीं समझ सकें कि भारत की असली समस्या क्या है? मूल्यों पर खूब थिएटर हुए। वे कहने के लिए प्रोगे्रसिव  रहे हैं, पर वास्तविक विषय से दूर रहे। यहां अंतिम आदमी का कोई सरोकार नहीं था। हमारी बात ही नहीं, सवाल नहीं, विषय नहीं, संघर्ष नहीं। तभी मन में यह दृढ़ता आई कि हम लोग दलित नुक्कड़ नाटकों को अलग से खड़ा करें। हमने समाज के समस्या को स्वयं भोगा था। दर्द को महसूस किया था। इसलिए लगा कि इस समाज के विषयों को लेकर उनके बीच ही जाना चाहिए और उनके मन का भ्रम तोड़ना चाहिए, जिससे कि वे सार्थन जीवन जी सकें। इसलिए हम लोगों ने अपने समाज के विषयों को अपने मंचन का विषय चुना। जब दलित मुद्दे को उठाया तो लोग हंसते थे। लेकिन आज सीरियस हैं। आज पीठ पीछे भले ही कुछ भी कहते हों, लेकिन सामने नहंी हंस सकते हैं। उन्हें मालूम है कि जाति समाज में अस्तित्व में है। यह देश की हकीकत है। इन विषयों से विमुख होकर समस्या का समाधान केसे किया जा सकता है। यही कारण है कि दलित नुक्कड नाटकों को अलग करना पड़ा।

प्रश्न-नुक्कड़ नाटकों से जुड़ने की आपकी प्रेरणा कहां से और कैसे मिली?
उत्तर-
1978 में महाराष्टÑ के मराठा विश्वविद्यालय का नाम बदल कर बाबा साहब के नाम पर करने का संघर्ष चला। इसके लिए हजारों लोग सड़ पर उतर गए। दलित तबके ने संघर्ष किया। गोली खाई। शहीद हुए। बलिदान दिए। अनेक युवाओं की शिक्षा गई। नौकरी छूटी। उसी वक्त लगा कि दलित समाज को जगाने के लिए नुक्कड़ नाटक को माध्यम बनाने का यह सही वक्त है। यही प्रभावकारी शास्त्र है। तब से जो सिलसिला शुरू हुआ वह आज भी जारी है।

प्रश्न- नुक्कड़ नाटकों का आज समाज पर क्या असर है? इस कला से पूर्णकालीन जुड़ने के कारण आपके निजी जीवन पर क्या असर पड़ा?
उत्तर
-नुक्कड़ नाटकों का प्रभाव बहुत धीमी गति से पड़ता है। पर यह प्रभावी ढंग से काम करता है। शोषित वर्गों के लिए यह काम आ सकता है। पूरे परिवार के साथ इसमें जुड़े हुए हैं। बिना बलिदान दिए कुछ नहीं मिल सकता है।

प्रश्न-अब तक कितने नुक्कड़ नाटक लिखे। कितने मंचन किए। दूसरे क्षेत्रों में मंचन में भाषा की कितनी समस्या हुई?
उत्तर-
देश के हर राज्यों के अलावा विदेशों में भी हजारों नाटक का मंचन किया। करीब 100 से ज्यादा नाटक लिखा।  देश और देश के बाहर तक मंचन किया। एशिया के अलावा यूरोपिय देशों में भी मंचन का मौका मिला। लेकिन हमेंभाषा को लेकर कभी कोई समस्या नहीं आई। क्योंकि हमारा विषय है पीड़ित, वंचित और शोषित वर्ग। इस वर्ग के लिए भाषा कभी बाधा नहीं हो सकता है। क्योंकि शोषण और  भूख की कोई भाषा नहीं होती है।

प्रश्न-आज दलित समाज को जगाने के लिए नुक्कड़ पर क्रांति की अलख जगा रहे हैं, तो इस समाज के समाजिक और आर्थिक रूप से मजबूत लोगों से कितनी अपेक्षा होती है और कितना सहयोग मिलता है?
उत्तर-
समाज के जिन लोगों ने मूवमेंट देखा है। स्वयं इसमें हिस्सा लिया और और उसके बाद समाज और शासन में कोई पद या प्रतिष्ठा प्राप्त की है, वे तो सतर्क हैं। लेकिन क्रांति के लिए सड़क पर लड़ने वाले आम आदमी आदमी होता है। मीडिया और हमारे समाज के ही अपर क्लास से बस इतनी ही अपेक्षा है कि वे हमे कुछ दे नहीं सकते तो बस सपोर्ट भर करें और जिन्हें चमड़ी बचनी है उससे उम्मीद भी  नहीं है। ऐसे लोगों से आंदोलन अड़ता भी नहीं है।

प्रश्न-जो लोग दलित नुक्कड़ नाटकों से जुड़े हैं, उसके लिए क्या कहना चाहेंगे?
उत्तर-
ग्लोबलाजेशन, निजीकरण के परिणाम सार्थक उद्देश्य को निगल रहे हैं। जो इससे जुड़ें हैं, वे थोड़ा और गंभीर हो जाए। जिनके अंदर थोड़ी सी भी बचैनी हैं, उन्हें आंखों में तेल डाल कर जिम्मेदारी लेनी चाहिए। आज बदलते दौर में आदमी अनेक ऐसी समस्याओं से घीर चुका है कि वह आत्महत्या जैसे कदम उठा रहा है। उसे सही जगह पर लाना पड़ेगा।
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कायरों, कामुकों के लिए नहीं है वेलेन्टाइन डे



अगर कोई पुरुष प्रेमी प्रेम के अधिकार का पक्षधर है तो इसे यही अधिकार अपनी बहनों को भी देना पड़ेगा, पर जो प्रेमी अपनी बहनों को घरों में कैद करके यह अधिकार नहीं देना चाहते और स्वयं लेना चाहते हैं वे साधारण से लम्पट और कामुक हैं और उनका प्रेम किसी विचारपूर्ण निष्कर्ष का हिस्सा नहीं है। इस दोहरेपन के लिए भी वे पिटने के पात्र हैं। 
वीरेन्द्र जैन
हर वर्ष की भांति एक बार फिर वेलैंटाइन डे आ गया है और एक बार फिर कार्ड बेचने वाले कार्ड बेच रहे हैं, गुलदस्ते बेचने वाले गुल्दस्ते और फूल बेच रहे हैं, अखबार वेलैंटाइन संदेश छापने के नाम पर विज्ञापनों का धंधा कर रहे हैं। लेकिन एक बार फिर भारतीय संस्कृति को न समझने वाले किंतु उसके नाम पर धंधा करने वाले कई राज्यों में अपनी गुंडा टोली लेकर निकलेंगे और युवा प्रेमी प्रेमिकाओं के मुँह पर कालिख मलेंगे और मारपीट करेंगे।
व्यक्तिगत स्वतंत्रता की हत्या करने वाले इन गुन्डों की सुरक्षा भाजपा शासित राज्य की पुलिस करेगी। एक बार फिर कायर बुद्धिजीवी अपने अपने सुविधा घरों में बैठ कर अखबारों में बयान देंगे। हर वर्ष की तरह यह संदेश भी दिया जाएगा कि- संत वेलैंटाइन भारत के नहीं थे तो क्या प्रेम के संदेश पर उनका कापी राइट हो गया, जबकि राधाकृष्ण की प्रेम कथाओं से लेकर कामसूत्र और खजुराहो जैसी मंदिर की दीवारों पर अंकित मूर्तियाँ तो हमारी ही बपौती हैं।
यदि नई आर्थिक नीति के वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण के प्रभाववश हम इस दिन को बसंत पंचमी, होली या अन्य किसी हिन्दू त्योहार की जगह उस कलेंडर के हिसाब से मनाने लगते हैं जिसके अनुसार हमारे सारे कामकाज चल रहे हैं तो क्या प्रेम का अर्थ बदल जाएगा! सच तो यह है कि इस दिन मनाने से इसकी संकीर्णता दूर होकर यह जाति धर्म, भाषा और राष्ट्र तक की सीमाओं से मुक्त होता है और विश्वबन्धुत्व तक पहुँचता है। आज प्रत्एक मध्यम वर्गीय परिवार रंगीन टीवी, डीवीडी प्लेयर या सिनेमा हाल में जो फिल्में देख कर खुश होता है और सपरिवार ताली बजाता है उनमें से नब्बे प्रतिशत में प्रेम कहानी ही होती है। यह सन्देश रोज रोज हर घर में पहुँच रहा है किंतु उससे किसी को कोई शिकायत नहीं होती।
वेलैंटाइन डे पर इन प्रेमियों को पिटना ही चाहिए क्योंकि वेलैंटाइन डे कायरों कामुकों और नपुंसकों के लिए नहीं होता है। वे जिन फिल्मों को देख कर जीभ लपलपा लड़कियों के पीछे चक्कर लगाते हैं उनसे वे फैशन और अदाएं तो सीखते हैं किंतु यह नहीं सीखते कि फिल्म का हीरो एक सुडौल देह का स्वाभिमानी पुरुष होता है और वह अपनी प्रेमिका की ओर उंगली उठाने वाले गुण्डों के हाथ पैर तोड़ देने में स्वयं को घायल करा लेने से लेकर जान की बाजी लगा देने में भी पीछे नहीं रहता। यह कैसा लिजलिजा दृष्य होता है कि चन्द भगवा दुपट्टाधारियों के डर से ए तथाकथित प्रेमी या तो उस दिन बाहर ही नहीं निकलते या चुपचाप अपनी प्रेमिका का अपमान बर्दाश्त करते रहते हैं और पिटते हुए संघर्ष भी नहीं करते। ऐसे प्रेमी पिटने ही चाहिए।  
दूसरी बात यह कि अगर कोई पुरुष प्रेमी प्रेम के अधिकार का पक्षधर है तो इसे यही अधिकार अपनी बहनों को भी देना पड़ेगा, पर जो प्रेमी अपनी बहनों को घरों में कैद करके यह अधिकार नहीं देना चाहते और स्वयं लेना चाहते हैं वे साधारण से लम्पट और कामुक हैं और उनका प्रेम किसी विचारपूर्ण निष्कर्ष का हिस्सा नहीं है। इस दोहरेपन के लिए भी वे पिटने के पात्र हैं।   
जब भी समाज बदलता है तो पुराने समाज को नियंत्रित कर उसे अपने हित में बनाए रखने वाले लोग किसी भी परिवर्तन का विरोध करते हैं। वे एक संगठित संस्था का बल रखते हैं इसलिए इक्कों दुक्कों पर भारी पड़ते हैं। ए वेलंटाइन डे मनाने वाले स्वयं इतने अपराधबोध से ग्रस्त रहते हैं कि न तो वे अपना कोई संगठन ही बनाते हैं और ना ही अपने जैसों की मदद ही करते हैं। इसलिए ए पिटते हैं और हर वर्ष की भांति पिटते ही रहेंगे जब तक कि गुंडों को उन्हीं की भाषा में जबाब नहीं देते।
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घड़ी बचाएगी औरत की आबरू


विस्फोट न्यूज नेटवर्क
जिस देश में महिलाओं की स्थिति सोमालिया से भी बदतर हो उस देश में बलात्कार जैसी समस्या से कैसे निजात पाया जा सकता है? दुनिया के कुछ गैर सरकारी संगठनों का अध्ययन है कि दुनिया में पांच देश ऐसे हैं जहां महिलाओं की दशा सबसे दयनीय है। रायटर समर्थित एक गैर सरकारी संस्था ट्रस्ट लॉ ने साल भर पहले जो आंकड़े जारी किए थे उसमें बताया था कि महिलाओं के प्रति अत्याचार के मामले में भारत ने सोमालिया को भी पीछे छोड़ दिया है। बीते दिसंबर महीने में दिल्ली में हुई बलात्कार की जघन्य घटना ने इन आशंकाओं और अध्ययनों को बल दिया है कि वास्तव में भारत में महिलाओं के प्रति पुरुषों की मनोदशा 'ठीक नहीं है'। ऐसे में और उपायों के साथ साथ भारत सरकार एक ऐसी घड़ी विकसित कर रही है जो महिलाओं पर किए जाने अत्याचार के वक्त उनकी सुरक्षा करेगी।
भारत के संचार मंत्री कपिल सिब्बल ने पिछले हफ्ते इस संबंध में जो जानकारी सार्वजनिक की है उसके मुताबिक भारत सरकार का संचार मंत्रालय इस दिशा में गंभीर प्रयास कर रहा है। सस्ते आकाश टेबलेट को लांच करने के बाद अब संचार मंत्रालय इंडियन टेलीफोन इंडस्ट्रीज (आईटीआई) और सीडैक के सहयोग से एक ऐसी घड़ी विकसित करने की कोशिश कर रहा है जो किसी महिला पर अत्याचार के वक्त महिला की तत्काल मदद करेगा।
असल में इस घड़ी में जीपीएस सिस्टम लगाया हुआ होगा जिसके जरिए महिला की ओर से शिकायत का संदेश मिलते ही तत्काल महिला के लोकेशन का पता कर लिया जाएगा। शिकायत करने के लिए भी महिला को न तो कोई फोन करना है और न चिल्लाकर मदद मांगनी है। घड़ी में लगी एक बटन को दबाते ही एक साथ कई काम को अंजाम दे दिया जाएगा। पहला काम यह कि घड़ी अपने आप एक एसएमएस स्थानीय पुलिस थाने को भेजेगा, साथ ही एक एसएमएस उस व्यक्ति को जाएगा जिसका नाम महिला ने पहले से अपनी लिस्ट में शामिल कर रखा होगा। जिसके बाद पुलिस जीपीएस के जरिए उस महिला के लोकेशन का पता करके उसे ट्रेस कर सकेगी और संकटग्रस्त महिला की मदद कर सकती है, साथ ही परिवार या निकट के व्यक्ति को संदेश मिलने पर वह भी महिला की मदद के लिए प्रयास शुरू कर सकता है। इसके साथ ही इस जादुई घड़ी में एक वीडियो रिकार्डर भी लगा होगा जो 30 मिनट का वीडियो रिकार्ड करके डेटा सुरक्षित रख सकेगा। इस घड़ी को दो संस्करण में पेश किया जाएगा जिसकी कीमत 1,000 और 3,000 रखे जाने का अनुमान है। कपिल सिब्बल का कहना है कि इस साल के मध्य तक घड़ी का प्रोटोटाइप तैयार हो जाएगा और उम्मीद करनी चाहिए कि साल के आखिर में यह घड़ी बाजार में उपलब्ध भी हो जाएगी।

एक कोठे पर क्रांति का अर्थशास्त्र


यहां काम करने वाली वेश्याएं औसतन महीने में एक लाख रुपए कमाती हैं और इसका बड़ा हिस्सा वे बच्चों की पढ़ाई पर खर्च कर रही हैं। उनके बच्चे महंगे स्कूलों में और ऊंची शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं।

एक कोठे की मालकिन ने बताया कि यहां पर काम करने वाली एक वेश्या महीने में कम से कम एक लाख रुपए कमाती है। यहां वेश्यावृत्ति शुरू करने की औसतन उम्र 13 साल है और रिटायरमेंट की औसत उम्र 30 साल है। 17 साल में वेश्याएं दो करोड़ रुपए से भी ज्यादा कमाती हैं।

मेरठ। मेरठ के कबाड़ी बाजार स्थित वेश्यावृत्ति कारोबार में क्रांतिकारी परिवर्तन देखने को मिल रहा है। यहां पर काम करने वाली डेढ़ हजार से भी ज्यादा वेश्याओं के बच्चे देश के नामी गिरामी स्कूलों में पढ़ रहे हैं। इतना ही नहीं, एक कोठे की मालकिन की तो सबसे रोचक कहानी निकलकर आई है। फिलहाल वह जिंदा नहीं हैं, पर उनकी जगह कोठा देख रही नई मालकिन का कहना है कि उन्होंने अपने दोनों भाइयों को यहीं पर काम करके पढ़ाया लिखाया। आज उनका एक भाई मध्य प्रदेश में आईपीएस है और दूसरा भाई उत्तर प्रदेश में वेटनरी डॉक्टर है।
वेस्ट यूपी में सबसे बड़ा वेश्यावृत्ति का ठिकाना कबाड़ी बाजार को माना जाता है। कबाड़ी बाजार में साठ से भी ज्यादा कोठे हैं। इनमें से एक कोठे की मालकिन बताती हैं कि फिलहाल बाजार में 1100 से 1500 के बीच में वेश्याएं हैं। इनमें पचास फीसदी वेश्याएं पारंपरिक रूप से वेश्यावृत्ति करती आ रही हैं। एक मूल रूप से राजस्थान की हैं। बाकी वेश्याओं में नेपाल, बंगाल, उड़ीसा आदि क्षेत्रों से तस्करी करके लाई गई लड़कियां हैं।
इन वेश्याओं के बीच काम करने वाली संकल्प संस्था की अध्यक्ष अतुल शर्मा बताती हैं कि जिन वेश्याओं ने यहां काम करना स्वीकार कर लिया है, उनमें से किसी के भी बच्चे सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ते। मेरठ के टॉप स्कूलों में, जहां अच्छी डोनेशन देने वालों के बच्चों का एडमीशन नहीं होता है, इनके बच्चे उन स्कूलों में पढ़ते हैं। इतना ही नहीं, इनके बच्चे देश के सबसे अच्छे स्कूलों में पढ़ रहे हैं। उनका दावा है कि इस वक्त यहां रहने वाली सभी वेश्याओं के बच्चे अच्छी पढ़ाई कर रहे हैं। इतना ही नहीं, एक दो के बच्चे तो एमटेक और एमबीए करके मल्टी नेशनल कंपनियों में काम कर रहे हैं।
एक कोठे की मालकिन के मुताबिक उसे रोज पुलिस को छह सौ रुपए देने होते हैं। यह रकम कोठे पर काम करने वाली लड़कियां अपनी कमाई में से इकट्ठा कर देती हैं। इसके अलावा हर लड़की को रोज 300 रुपए पुलिस को और 300 रुपए कोठे का किराया देना होता है। एक कोठे पर औसतन 10 से 12 लड़कियां काम करती हैं।
मेरठ के कबाड़ी बाजार की जिस्म मंडी में देह की कीमत 400 रुपए से लगनी शुरू होती है। कोठे की मालकिनों के मुताबिक इन लड़कियों के ग्राहक ज्यादातर निम्न वर्ग से होते हैं। अक्सर सादी वर्दी में सेना के लोग भी आते हैं। कबाड़ी बाजार से बाहर ले जाने के लिए भी लड़कियों की बुकिंग होती है। बुकिंग रेट 1200 रुपए से 2000 रुपए तक होता है, लेकिन 30-40 हजार रुपए की सिक्योरिटी जमा करनी होती है, जो बाद में वापस हो जाती है।
30 साल की जरीना (काल्पनिक नाम) के बच्चे की उम्र 17 साल हो गई है। वह बंगाल से तस्करी करके लाई गई थीं, पर यहीं बस गईं। उनका बच्चा पूना में बीटेक करने लगा है। जरीना कहती हैं कि उनका ख्वाब है कि उनका बच्चा आईएएस बने। इसके लिए कितना भी पैसा लगे, अच्छी से अच्छी कोचिंग हो, पर ख्वाब पूरा होना चाहिए। जरीना अकेली नहीं हैं। ऐसे ख्वाल देखने वाली अनेक वेश्याएं हैं।
यहां सभी कोठों के बीच एक सीढ़ी भर का ही फासला है। और सीढ़ी भी इतनी संकरी कि एक बार में एक ही व्यक्ति इसका प्रयोग कर सकता है। एक कोठे की मालकिन ने बताया कि यहां पर काम करने वाली एक वेश्या महीने में कम से कम एक लाख रुपए कमाती है। यहां वेश्यावृत्ति शुरू करने की औसतन उम्र 13 साल है और रिटायरमेंट की औसत उम्र 30 साल है। 17 साल में वेश्याएं दो करोड़ रुपए से भी ज्यादा कमाती हैं।
संकल्प संस्था की अध्यक्ष अतुल शर्मा कहती हैं कि दरअसल इनके बच्चों की पढ़ाई ही इनका रिटायरमेंट प्लान है। इनमें से कुछ तो शादी भी करने लगी हैं। अभी हाल ही में यहां काम करने वाली एक लड़की ने अपनी बच्ची के पिता से शादी कर ली। सबसे अच्छी बात तो यह है कि अब कोई यह नहीं कह सकता है कि वेश्याओं के बच्चों के बाप का नाम नहीं पता। ये लोग इतनी सावधानी बरतती हैं कि इन्हें पता होता है कि उनके गर्भ में पल रहे बच्चे का पिता कौन है। यहां पर पिछले पांच सालों में जन्मे सभी बच्चों का जन्म प्रमाण पत्र है जिसमें उनके पिता का नाम दर्ज है।  - दैनिक भास्कर.कॉम से साभार