Thursday 7 February 2013

सरकार ने हाईजैक कर ली नुक्कड़ की क्रांति


रू-ब-रू :डा. संजय जिवने


प्रसिद्ध नुक्कड नाट्य रंगकर्मी संजय जिवने से संजय स्वदेश की बातचीत


कर्ज में डूबे किसानों के कारण देश-दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचने वाले महाराष्टÑ के विदर्भ क्षेत्र में रंगमंच की समृद्ध परंपरा रही है। कभी विदर्भ में करीब दो दर्जन से ज्यादा रंगमंच की संस्थाएं सक्रिय रहीं। लेकिन जैसे-जैसे समाज बदला। रंगमंच के रंग काफूर होते चले गए। कुछ कलाकार समाज की बदलती नब्ज को भांप कर मुंबई जा कर चकाचौंध की दुनिया में खो गए। अब कागजों में दो चार संस्थाएं सक्रिय हैं। कभी मौके-बे-मौके साल में दो चार नाटकों के मंचन भी दिख जाता है। ऐसे मौके पर आने वाले पुराने दर्शक नष्ट हो चुके समृद्ध रंगमंच की परंपरा को याद कर लेते हैं। इसी समृद्ध परंपरा में एक नाम संजय जिवने का हैं। बीते चार दशक से संजय जीवने नुक्कड पर नाटकों से क्रांति की अलख जगा रहे हैं। श्री जिवने समाज के दबे-कुचले शोषित और वंचित वर्ग समस्याओं की विषयवस्तु के साथ ही अभिनय का ऐसा ताना बना बुनते हैं कि नुक्कड़ के दर्शकों के दिल में अमिट छाप छोड़ देते हैं। उनके अदंर की संवदेनाओं में हिलोरे आने लगती हैं। नाटक से उभरने वाली संवदेना दर्शकों के मन में सार्थक जीवन के लिए कितनी झकझोरती है, इसकी चिंता उन्हें नहीं है। श्री जिवने कहते हैं कि कुछ दर्शक नाटक के विषय वस्तु से दिल में उभरी टीस को नुक्कड़ पर ही छोड़ आगे बढ़Þ जाते हैं तो कुछ समाज में सार्थक करने का संकल्प ले लेते हैं। पर इससे समाज में बदलावा की गति बहुत मंद तो हैं, लेकिन प्रभावी है।  यह सब चलते रहता है। बदली जीवन शैली में वे समाज को जगाने का संकल्प लेकर अपना दायित्व बखूबी निभाने में लगे हैं। गत दिनों नागपुर में उनसे नुक्कड़ नाटकों पर लंबी चर्चा हुई। प्रस्तुत है डा. संजय जिवने से हुई बातचीत के कुछ प्रमुख अंश :-

प्रश्न -वर्तमान समय में देश में नुक्कड़ नाटकों की क्या स्थिति है
उत्तर
-आज नुक्कड़ नाटक हैं कहां, जो हैं, उसे सरकार ने हाईजैक कर रखा है। जो लोग इससे जुड़े हैं, उसमें से अधिकतर सरकार के लिए ही काम कर रहे हैं। वे अधिकांश समय इसी गुणा-गणित में व्यस्त रहते हैं कि किस विषय वस्तु पर नुक्कड़ नाटक की परियोजना बने और सरकार उसे मंचन के लिए प्रायोजित करें। धन मिले। कई बार सरकारी परियोजनाओं पर नजर रख कर उसके अनुरूप विषय वस्तु तैयार कर अनुदान खाने के लिए काम किया जाता है। यही कारण है कि आज कही किसी नुक्कड़ पर कोई नाटक दिखता है तो उसका विषय वस्तु इतना सहज होता है, तो दर्शक उसे मनोरंजन की तरह लेते हैं। यदि कोई स्वतंत्र रूप से समाज को जगाने के लिए ऐसा कुछ कर रहा है तो उस पर सरकार की बंदिशे हैं। महाराष्टÑ में तो यह स्थिति है कि यदि नुक्कड़ पर नाटक का मंचन करना है तो सेंसर बोर्ड से आपको अनुमति लेनी पड़ेगी। फिर जब वहां आवेदन जाता है तो स्क्रीप्ट में तरह-तरह की खामियां निकाली जाती हैं। उसे निकालने को कहा जाता है। इससे कई बार अंर्तवस्तु कमजोर पड़ जाती है। नाटक उद्देश्य से भटक जाता है। यह सरकार की नकेल है।

प्रश्न- तो क्या आज नुक्कड नाटक अपने उद्देश्य से भटक गया है?
उत्तर-
जाहिर सी बात है, जब सरकार किसी नाटक को प्रायोजित करेगी तो उसका विषय वस्तु भी सरकार का ही होगा। इसलिए ऐसे नुक्कड़ नाटकों का ठेका लेने वाले उसी विषय वस्तु को तय करते हैं जिससे केवल सरकार का उद्देश्य भर पूरा हो सके। लेकिन ऐसे नाटकों में विषय समग्रता के साथ साकार नहीं हो पाते हैं। उसकी प्रस्तुति गंभीर नहीं हो पाती। हल्के से चुटिले अंदाज में प्रस्तुति भर से इतिश्री हो जाती है। दरअसल नुक्कड़ नाटक एक क्रांति हैं, थोड़े समय में चुनौतिपूर्ण अभिनय के माध्यम से जनता को जगाना महान उद्देश्य है, इसे कमाई का साधन बनाने से इसका उद्देश्य खत्म हो जाता है। जब उद्देश्य महान हो तो उसकी कार्यशौली भी पाक साफ होनी चाहिए। प्रायोजित नाटकों से महान उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो सकती है।

प्रश्न-कई कलाकार कहते हैं कि यदि समुचित सुविधा उपलब्ध कराई जाए तो मृत होती इस कला में नई जान आ सकती है?
उत्तर-
नुक्कड़ नाटकों के लिए किस तरह की साधन और सुविधा की जरूरत है? क्या इसके मंचन के लिए संगीत और रोशनी के तकनीकी साधनों से लैस प्रेक्षागृह की आवश्यकता है या अभ्यास के लिए किसी जगह की? यह सब बहाने हैं। जगह और साधन की बात छोड़िए। यदि अंदर आग है तो स्पेश अपने आप मिल जाता है। समाज बदल चुका है। लोगों की सोच बदल चुकी है। यह समाज स्वयं आगे आकर कोई स्पेश और साधन नहीं देगा। यदि साधन मिल भी जाए तो इस बात की क्या गारंटी है कि नुक्कड़ नाटकों में धार आ जाएगी।

प्रश्न- बिना अनुदान या अन्य किसी तरह के सहयोग या साधन के आभाव में आज नुक्कड़ नाटकों की सफलता कैसे संभव है?
उत्तर-
आप सार्थक उद्देश्य से नाटक का मंचन करना चाहते हैं तो आपको न फंड की जरूरत है और न ही किसी साधन की। इसका जीता जागता उदाहरण मैं स्वयं हूं। 1978 से भूखे प्यासे नुक्कड़ पर समाज को जगाने का अभियान जारी है। ऐसा यह संभव इसलिए क्योंकि इसे मैंने सोए हुए समाज को जगाने के लिए अपनी जिम्मेदारी समझा। लेकिन सबसे ऐसा जज्बा नहीं होता है। जैसे जैसे लोगों के जीने का तरीका बदला, आदर्श बदले इसका असर इस कला पर भी पड़ा। इससे जुड़े अनेक कलाकारों ने मूल्यों से समझौता किया। लेकिन जिन्होंने परिस्थितियों से हार कर मूल्यों से समझौता किया, वे समाज को नहीं जगा पाए।
प्रश्न- आजकल नुक्कड़ नाटकों के लिए स्क्रीप्ट कौन लिखता है? इसकी क्या स्थिति है?
उत्तर-
स्क्रीप्ट की क्राइसिस पहले भी थी और अब भी है। यह सब चलते रहता है। मुख्यधारा के रंगमंच में भी यही हाल है। इसी क्राइसिस के बीच-बीच में बेहतरीन स्क्रीप्ट आते रहते हैं। जिन कलाकारों के पास अपना विजन (दृष्टिकोण) हैं, अधिकर स्क्रीप्ट वे स्वयं ही तैयार कर लेते हैं।
प्रश्न -आपके अधिक३ंर नाटक दलित समस्याओं के इर्द-गिर्द घुमती है? क्या आपने सुनियोजित तरीके से रंगमंच के इस विधा को दलित श्रेणी में बांटा?
उत्तर-
देश में जब कम्युनिस्ट आए, तब उन्होंने बड़े ही जोर-शोर से शोषितों के दर्द को मुद्दा बनाया। लेकिन वे यह नहीं समझ सकें कि भारत की असली समस्या क्या है? मूल्यों पर खूब थिएटर हुए। वे कहने के लिए प्रोगे्रसिव  रहे हैं, पर वास्तविक विषय से दूर रहे। यहां अंतिम आदमी का कोई सरोकार नहीं था। हमारी बात ही नहीं, सवाल नहीं, विषय नहीं, संघर्ष नहीं। तभी मन में यह दृढ़ता आई कि हम लोग दलित नुक्कड़ नाटकों को अलग से खड़ा करें। हमने समाज के समस्या को स्वयं भोगा था। दर्द को महसूस किया था। इसलिए लगा कि इस समाज के विषयों को लेकर उनके बीच ही जाना चाहिए और उनके मन का भ्रम तोड़ना चाहिए, जिससे कि वे सार्थन जीवन जी सकें। इसलिए हम लोगों ने अपने समाज के विषयों को अपने मंचन का विषय चुना। जब दलित मुद्दे को उठाया तो लोग हंसते थे। लेकिन आज सीरियस हैं। आज पीठ पीछे भले ही कुछ भी कहते हों, लेकिन सामने नहंी हंस सकते हैं। उन्हें मालूम है कि जाति समाज में अस्तित्व में है। यह देश की हकीकत है। इन विषयों से विमुख होकर समस्या का समाधान केसे किया जा सकता है। यही कारण है कि दलित नुक्कड नाटकों को अलग करना पड़ा।

प्रश्न-नुक्कड़ नाटकों से जुड़ने की आपकी प्रेरणा कहां से और कैसे मिली?
उत्तर-
1978 में महाराष्टÑ के मराठा विश्वविद्यालय का नाम बदल कर बाबा साहब के नाम पर करने का संघर्ष चला। इसके लिए हजारों लोग सड़ पर उतर गए। दलित तबके ने संघर्ष किया। गोली खाई। शहीद हुए। बलिदान दिए। अनेक युवाओं की शिक्षा गई। नौकरी छूटी। उसी वक्त लगा कि दलित समाज को जगाने के लिए नुक्कड़ नाटक को माध्यम बनाने का यह सही वक्त है। यही प्रभावकारी शास्त्र है। तब से जो सिलसिला शुरू हुआ वह आज भी जारी है।

प्रश्न- नुक्कड़ नाटकों का आज समाज पर क्या असर है? इस कला से पूर्णकालीन जुड़ने के कारण आपके निजी जीवन पर क्या असर पड़ा?
उत्तर
-नुक्कड़ नाटकों का प्रभाव बहुत धीमी गति से पड़ता है। पर यह प्रभावी ढंग से काम करता है। शोषित वर्गों के लिए यह काम आ सकता है। पूरे परिवार के साथ इसमें जुड़े हुए हैं। बिना बलिदान दिए कुछ नहीं मिल सकता है।

प्रश्न-अब तक कितने नुक्कड़ नाटक लिखे। कितने मंचन किए। दूसरे क्षेत्रों में मंचन में भाषा की कितनी समस्या हुई?
उत्तर-
देश के हर राज्यों के अलावा विदेशों में भी हजारों नाटक का मंचन किया। करीब 100 से ज्यादा नाटक लिखा।  देश और देश के बाहर तक मंचन किया। एशिया के अलावा यूरोपिय देशों में भी मंचन का मौका मिला। लेकिन हमेंभाषा को लेकर कभी कोई समस्या नहीं आई। क्योंकि हमारा विषय है पीड़ित, वंचित और शोषित वर्ग। इस वर्ग के लिए भाषा कभी बाधा नहीं हो सकता है। क्योंकि शोषण और  भूख की कोई भाषा नहीं होती है।

प्रश्न-आज दलित समाज को जगाने के लिए नुक्कड़ पर क्रांति की अलख जगा रहे हैं, तो इस समाज के समाजिक और आर्थिक रूप से मजबूत लोगों से कितनी अपेक्षा होती है और कितना सहयोग मिलता है?
उत्तर-
समाज के जिन लोगों ने मूवमेंट देखा है। स्वयं इसमें हिस्सा लिया और और उसके बाद समाज और शासन में कोई पद या प्रतिष्ठा प्राप्त की है, वे तो सतर्क हैं। लेकिन क्रांति के लिए सड़क पर लड़ने वाले आम आदमी आदमी होता है। मीडिया और हमारे समाज के ही अपर क्लास से बस इतनी ही अपेक्षा है कि वे हमे कुछ दे नहीं सकते तो बस सपोर्ट भर करें और जिन्हें चमड़ी बचनी है उससे उम्मीद भी  नहीं है। ऐसे लोगों से आंदोलन अड़ता भी नहीं है।

प्रश्न-जो लोग दलित नुक्कड़ नाटकों से जुड़े हैं, उसके लिए क्या कहना चाहेंगे?
उत्तर-
ग्लोबलाजेशन, निजीकरण के परिणाम सार्थक उद्देश्य को निगल रहे हैं। जो इससे जुड़ें हैं, वे थोड़ा और गंभीर हो जाए। जिनके अंदर थोड़ी सी भी बचैनी हैं, उन्हें आंखों में तेल डाल कर जिम्मेदारी लेनी चाहिए। आज बदलते दौर में आदमी अनेक ऐसी समस्याओं से घीर चुका है कि वह आत्महत्या जैसे कदम उठा रहा है। उसे सही जगह पर लाना पड़ेगा।
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1 comment:

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