Thursday 7 February 2013

बांझ मर्दों की बढ़Þती फौज



एक समय था, जब किसी निसंतान महिला को बांझ कर कह न केवल मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाता था, बल्कि उसे घर-परिवार के साथ समाज में भी दूसरे कोटी का मान लिया जाता था। समय बदला तो महिलाओं के माथे से ऐसे कलंक हटने लगे लगे। ए कलंक अब पुरुषों के माथे पर आने लगी है। विज्ञान ने यह हकीकत बताई कि संतान नहीं होने का एकमात्र कारण किसी महिला का बांझ होना नहीं है, बल्कि बांझ तो पुरुष भी हो सकते हैं।


अब केवल महिलाएं बांझ नहीं होती। अब मर्द भी इस कतार में खड़े हैं। मजेदार बात यह है कि बांझ मर्दों की फौज लगातार बढ़Þ रही है। इस समस्या को दूर करने का मेडिकल धंधा भी सधे हुए कदमों से पांव पसार रहा है। देश के प्रमुख शहरों में मर्दों के बांझपन के इलाज के लिए अलग से सेंटर खुल गए हैं। अश्चर्य की बात तो यह है कि अनेक युवाओं को यह पता ही नहीं कि वे आधुनिक जीवन शैली में बाप बनने की ताकत खो चुके हैं। मेडिकल कंपनियां इन्हें एक बाजार के रूप में देख रही है।


देवांशु नारायण
ज्यादा से ज्यादा धन की चाहत और बदलते समाज और परिदृश्यश् में तनाव से ग्रसित मर्द भी बांझपन का शिकार होने लगा है, ताजा शोध और डाक्टरों से जो जानकारी मिलती है वह चौंकाने वाली है। वजह चाहे जो भी हो, लेकिन हमेशा समाज ने महिलाओं के बारे में ज्यादा सोचा और बांझपन का ताज उन्हीं पर मढ़ा गया। शोध बताता है कि संतानहीनता में अब पुरुष भी बड़े कारण बन गए हैं। जिसमें शुक्राणुओं के नए मामले, तनाव से परेशानी, लोगों की जीवनशैली, मोटापे की महामारी और अत्यधिक दवाइयों का सेवन मुख्य कारक बताए गए हैं।
दो साला पहले की एक रिपोर्ट है।  उसके अनुसार आज के पुरुष प्रधान समाज के 10 प्रतिशत युवा पुरुषों के शुक्राणुओं की गुणवत्ता, मात्रा और निर्माण में भारी कमियां पाई गई हैं। साथ ही 6 प्रतिशत पुरुष बांझपन और 14 प्रतिशत अंडाशय संबंधी विफलता क्रोमोसोम में गड़बड़ी के कारण बाप बनने की क्षमता खो चुके हैं। रिपोर्ट में बांझपन के कारण 40 प्रतिशत पुरुष, 40 प्रतिशत महिलाएं तथा 20 प्रतिशत अभी भी अभूझ बने हुए हैं। ऐसा सिर्फ भारत में ही नहीं हैं, बल्कि पिछले 50 वर्षो में दुनिया भर के पुरुषों में शुक्राणुओं की संख्या 50 फीसदी कम हो गई है। डॉक्टर मानते हैं कि पुरुष में बांझपन के कारण और इसे कम करने के लिए मेडिकल साइंस को और शोध की जरूरत है। शोध रिपोर्ट के मुताबिक जानकारी मिलती है, वह मर्दों की नींद  उड़ाने के लिए काफी है।
आश्चर्य की बात तो यह है कि अनेक युवा ऐसे हैं तो बांझपन के अदृश्य बीमारी से      ग्रस्त हो चुके हैं। उन्हें इस बात का पता भी नहीं है कि वे भविष्य में बाप बनने कीक्षमता खो चुके हैं। रिपोर्ट के मुताबिक आज हमारे देश और प्रदेश में पांच में से एक दंपती निसंतान है। यह आंकड़ा स्थिर नहीं है। हर वर्ष निसंतान दंपतियों की संख्या बढ़Þती जा रही है। शहरों की 16 प्रतिशत महिलाएं निस्संतान हैं। भारत में 1981 के बादे से शहरी क्षेत्रों में संतानहीनता के मामले में 50 प्रतिशत की बढ़Þोतरी हुई है। पुरुष के मुख्य कारणों में 37 प्रतिशत वैरीकोसील, 25 प्रतिशत इंजियोपैथिक, 10 प्रतिशत शुक्राणुओं में गड़बड़ी, 9 प्रतिशत अंडकोष में खराबी बताया गया है। वहीं महिलाओं में बांझपन की समस्याएं लंबे अरसे से जुड़ी हैं, जिसमें 37 प्रतिशत से उम्र का अधिक होना, 22 प्रतिशत फैलोपियन ट्यूब की समस्या, 20 प्रतिशत पालीसिस्टिक ओवरी, 18 प्रतिशत जननांगों में टीवी और 10 प्रतिशत आनुवांशिक समस्याएं का होना है।
आंकड़ों के मुताबिक भारत के 9 करोड़ पुरुष बाप होने की क्षमता की कमी के शिकार हो चुके हैं। इस आंकड़े को बढ़Þते देख मेडिकल कंपनियां इन्हें एक बड़े उभरते हुए बाजार के रूप में देख रही है। अनुमान के आधार पर विशेषज्ञ कहते है कि देश में बांझपन के इलाज के लिए उपयोग होने वाला  दवा का कुल करोबार करीब 90 करोड़ से एक अरब तक का हो चला है। यह यह दवा का बाजार फिर फलफूल रहा है। इसके साथ ही इसके उपचार का करोबार हर साल 20 से 30 प्रतिशत की दर से आगे बढ़Þ रहा है।
हाल ही में प्रकाशित एक प्रतिष्ठित पत्रिका की रिपोर्ट के मुताबिक देश में बांझपन के इलाज के लिए 40 हजार चक्र चलते हैं, जबकि 2000 में इसकी संख्या सिर्फ 7 हजार थी। आज के समाज या वर्ग में शिक्षित युवा की संख्या ज्यादा है, वे किसी भी तकलीफ या परेशानी में तुरंत डाक्टरों से मिलते हैं और खुलकर बात करते हैं। अगर दंपतियों की बात माने तो उनका कहना होता है कि घर, परिवार और समाज को देखते हुए बच्चों का जीवन में होना अत्यंत आवश्यक माना जाता है। कई मामले तो ऐसे भी रहे हैं जहां भारतीय परंपरा में लक्ष्मी की संज्ञा प्राप्त नारियों को फरमान तक सुना दिया जाता है कि इतने समय के अंदर आपको बच्चे पैदा करना है, अगर नहीं तो पुरुष दूसरी शादी करता है और पहली लक्ष्मी आत्महत्या, आत्मदाह या आकाल मृत्यु को अपनाती है। जरा सोचिए इस विषय पर कि क्या इसका दोषी सिर्फ महिलाएं हैं, तो उत्तर मिलेगा नहीं, कहीं न कहीं पुरुष भी जींदगी की उहा-पूह में बांझपन के शिकार हो गए हैं। भारत में बच्चा पाने या जन्म देने की भी कीमत और इलाज हैं। जैसा इलाज वैसी कीमत। अगर आइयूआई के तहत गर्भाधारण किया जाता है तो इसमें 3 से 15 हजार तक खर्च आते हैं। एक अन्य इलाज में आइवीएफ के तहत गर्भाश्य को दवा के जरिए अंडाणु पैदा करने के लिए प्रेरित किया जाता है, फिर उन्हें गर्भाशय से बाहर निकालकर निषेचित किया जाता है, भ्रूण को वापस गर्भ में रख दिया जाता है और इसमें प्रति चक्र 50 हजार से 1 लाख 50 हजार तक खर्च हो जाते हैं। इसी तहत तीसरी विधि आसीएफआई में लैब में प्रत्एक अंडाणु में एक शुक्राणु डालकर उन्हें निषेचित किया जाता है और इसमें 80 हजार से 1 लाख 50 हजार खर्च हो जाते हैं।
आज के समाज में 17 प्रतिशत बांझ स्त्रियों को वैवाहिक समस्याएं झेलनी पड़ती है। बच्चे वाली 2 प्रतिशत के साथ भी ऐसा होता है। मुंबई की डॉ. फिरूजा कहती हैं कि दंपती आजकल बहुत एहतियात बरतते हैं, वे सामान्य बात पर जनरल फिजिशियन या स्त्रीरोग विशेषज्ञों से मिलने के बजाए सीधे इनफर्टिलिटी विशेषज्ञ से मिलने जाते हैं। डॉ. इंदिरा बताती हैं कि बांझपन की समस्या सरकार की योजनाओं में शामिल नहीं हैं, निस्संतान दंपतियों को बच्चा पैदा कराने में मदद कराने का कोई प्रावधान नहीं है। एबरडीन डॉ. शिलादित्य का कहना है कि संतानहीनता की परिस्थितियों का पूरा ज्ञान न होना लोगों का जीवन बरबाद कर सकता है। विकासशील देशों में इसे सार्वजनिक स्वास्थ्य का मामला मानना चाहिए।

लेखक परिचय
देवांशु नारायण : युवा पत्रकार। पटना से मंजिल की तलाश में म.प्र. सागर सेंट्रल यूनिवर्सिटी में पत्रकारिता की पढ़ाई, वहीं दैनिक भास्कर में रिर्पोटिंग और अखबार की व्यवहारिक टेÑनिंग। पटना मौर्य टीवी में छह माह तक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के तानेबाने के साथ झूठों की फौज को समझा। अब छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में दैनिक हरिभूमि के संपादकीय सहयोगी के रूप में समाचार जगत को जानते-समझते बेहतर पत्रकारिता का भविष्य देख रहे हैं।






'बेडरूम संकट' से जूझते दुनिया भर के मर्द!

from bbc
भागती आधुनिक जीवनशैली, इससे उत्पन्न तनाव, इस तनाव से बचने के लिए सिगरेट और शराब का सहारा- पुरुषों को बेडरूम में निष्क्रिय बना रहा है। कभी मर्दानगी पर इतराने वाले मर्द अब अपनी महिला साथी से नजरें चुराने लगे हैं।

यह खबर पढ़कर अजीब लगे, लेकिन पूरी दुनिया के मर्दों के सामने 'बेडरूम संकट' मुंह बाए खड़ा है। नपुंसकता, बांझपन और शीघ्रपतन की समस्या ने बेडरूम के अंदर दुनिया भर के मर्दों का विश्वास हिला दिया है। अनियमित खानपान, खानपान में पोषकता का अभाव, फास्ट फूड और कोल्डड्रिंक पर बढ़ÞÞती निर्भरता, शारीरिक श्रम में कमी, तेज भागती आधुनिक जीवनशैली, इससे उत्पन्न तनाव, इस तनाव से बचने के लिए सिगरेट और शराब का सहारा- पुरुषों को बेडरूम में निष्क्रिय बना रहा है। कभी मर्दानगी पर इतराने वाले मर्द अब अपनी महिला साथी से नजरें चुराने लगे हैं।
फ्रांसिसी मर्द पर हाल ही में हुए एक अध्ययन ने दर्शा दिया है कि न केवल फ्रांस के मर्द, बल्कि पूरी दुनिया के पुरुष बेडरूम में संकट का सामना कर रहे हैं। आधुनिक जीवनशैली के कारण मर्दो के वीर्य में शुक्राणुओं की संख्या लगातार कम हो रही है।  यही हाल रहा तो वह दिन दूर नहीं जब 'शुक्राणु विहीन वीर्य' हर देश के पुरुषों की समस्या बन जाएगी।
'ह्यूमन रिप्रोडक्शन' नाम के जर्नल में छपे शोध के मुताबिक फ्रांस में 26,600 मर्दों के वीर्य का परीक्षण किया गया। परीक्षण में पाया गया कि 16 वर्षों के भीतर इन मर्दों में 32.3% शुक्राणु घटे हैं। मतलब फ्रांसिसी मर्दों के शुक्राणुओं की संख्या साल 1989 से साल 2005 के बीच एक तिहाई गिरी है। वैसे जीव विज्ञानियों का मानना है कि पुरुषों के वीर्य में जो शुक्राणुओं की संख्या है वह अभी भी प्रजनन के लिए पर्याप्त है, लेकिन जिस दर से शुक्राणु क्षरण हो रहा है वह भविष्य के लिए चिंता का विषय है।
इस अध्ययन से जुड़े डॉक्टर जोएल ला मोए इसे गंभीर चेतावनी करार दे रहा है। उनका कहना है कि शुक्राणुओं के परीक्षण के लिए बड़े पैमाने पर किया गया यह अपनी तरह का पहला अध्ययन है, जो दर्शा रहा है कि पुरुषों के वीर्य में शुक्राणुओं की संख्या में लगातार कमी जन स्वास्थ्य के लिए एक गंभीर चेतावनी है।
ब्रिटेन के शेफील्ड विश्वविद्यालय के डॉक्टर एलन पेसी कहते है, शुक्राणुओं की संख्या में पाई गई गिरावट वैसे तो अब भी 'नॉर्मल रेंज' में है। उनके अनुसार, नर प्रजनन के लिए प्रति मिलीलीटर डेढ़ करोड़ शुक्राणुओं की जरुरत होती है। अध्ययन में प्रति मिलीमीटर चार करोड़ से अधिक शुक्राणु पाए गए हैं। लेकिन शुक्राणुओं की संख्या में कमी आ रही है, इससे इनकार तो नहीं ही किया जा सकता है।
आधुनिक लाइफस्टाइल में गड़बड़ ही गड़बड़ है
एडिनबरा विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रिचर्ड शार्प के अनुसार, हमारे आधुनिक लाइफस्टाइल में सबकुछ गड़बड़ है। अनियमित खान-पान और खानपान में जिस तरह से रसायनों का प्रयोग हो रहा है यह सब शायद उसी का असर है। वैसे इसके अहम कारणों को खोजा जाना चाहिए, क्योंकि मुद्दा गंभीर है।
आधुनिक जीवनशैली, वसा युक्त भोजन, हमारे जीवन में रसायनों की बढ़ÞÞती मौजूदगी, काम का बढ़ÞÞता दबाव और उससे उत्पन्न तनाव, सिगरेट और शराब ने उस अंग पर चोट किया है, जो मर्दों के लिए 'मर्दानगी' का पर्याय है। आखिर पुरुषों की 'मर्दानगी' की हेकड़ी 'लिंग दंभ' की वजह से ही तो है...और 'लिंग शिथिलता' ने इस हेकड़ी की हवा निकालने की शुरुआत कर दी है...भले ही अभी यह फ्रांस में दिख रहा है, लेकिन यदि अध्ययन हो तो हर देश के मर्द का 'लिंग' उन्हें धोखा देता दिख जाएगा।


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6 comments:

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