अगर कोई पुरुष प्रेमी प्रेम के अधिकार का पक्षधर है तो इसे यही अधिकार अपनी बहनों को भी देना पड़ेगा, पर जो प्रेमी अपनी बहनों को घरों में कैद करके यह अधिकार नहीं देना चाहते और स्वयं लेना चाहते हैं वे साधारण से लम्पट और कामुक हैं और उनका प्रेम किसी विचारपूर्ण निष्कर्ष का हिस्सा नहीं है। इस दोहरेपन के लिए भी वे पिटने के पात्र हैं। वीरेन्द्र जैन
हर वर्ष की भांति एक बार फिर वेलैंटाइन डे आ गया है और एक बार फिर कार्ड बेचने वाले कार्ड बेच रहे हैं, गुलदस्ते बेचने वाले गुल्दस्ते और फूल बेच रहे हैं, अखबार वेलैंटाइन संदेश छापने के नाम पर विज्ञापनों का धंधा कर रहे हैं। लेकिन एक बार फिर भारतीय संस्कृति को न समझने वाले किंतु उसके नाम पर धंधा करने वाले कई राज्यों में अपनी गुंडा टोली लेकर निकलेंगे और युवा प्रेमी प्रेमिकाओं के मुँह पर कालिख मलेंगे और मारपीट करेंगे।
व्यक्तिगत स्वतंत्रता की हत्या करने वाले इन गुन्डों की सुरक्षा भाजपा शासित राज्य की पुलिस करेगी। एक बार फिर कायर बुद्धिजीवी अपने अपने सुविधा घरों में बैठ कर अखबारों में बयान देंगे। हर वर्ष की तरह यह संदेश भी दिया जाएगा कि- संत वेलैंटाइन भारत के नहीं थे तो क्या प्रेम के संदेश पर उनका कापी राइट हो गया, जबकि राधाकृष्ण की प्रेम कथाओं से लेकर कामसूत्र और खजुराहो जैसी मंदिर की दीवारों पर अंकित मूर्तियाँ तो हमारी ही बपौती हैं।
यदि नई आर्थिक नीति के वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण के प्रभाववश हम इस दिन को बसंत पंचमी, होली या अन्य किसी हिन्दू त्योहार की जगह उस कलेंडर के हिसाब से मनाने लगते हैं जिसके अनुसार हमारे सारे कामकाज चल रहे हैं तो क्या प्रेम का अर्थ बदल जाएगा! सच तो यह है कि इस दिन मनाने से इसकी संकीर्णता दूर होकर यह जाति धर्म, भाषा और राष्ट्र तक की सीमाओं से मुक्त होता है और विश्वबन्धुत्व तक पहुँचता है। आज प्रत्एक मध्यम वर्गीय परिवार रंगीन टीवी, डीवीडी प्लेयर या सिनेमा हाल में जो फिल्में देख कर खुश होता है और सपरिवार ताली बजाता है उनमें से नब्बे प्रतिशत में प्रेम कहानी ही होती है। यह सन्देश रोज रोज हर घर में पहुँच रहा है किंतु उससे किसी को कोई शिकायत नहीं होती।
वेलैंटाइन डे पर इन प्रेमियों को पिटना ही चाहिए क्योंकि वेलैंटाइन डे कायरों कामुकों और नपुंसकों के लिए नहीं होता है। वे जिन फिल्मों को देख कर जीभ लपलपा लड़कियों के पीछे चक्कर लगाते हैं उनसे वे फैशन और अदाएं तो सीखते हैं किंतु यह नहीं सीखते कि फिल्म का हीरो एक सुडौल देह का स्वाभिमानी पुरुष होता है और वह अपनी प्रेमिका की ओर उंगली उठाने वाले गुण्डों के हाथ पैर तोड़ देने में स्वयं को घायल करा लेने से लेकर जान की बाजी लगा देने में भी पीछे नहीं रहता। यह कैसा लिजलिजा दृष्य होता है कि चन्द भगवा दुपट्टाधारियों के डर से ए तथाकथित प्रेमी या तो उस दिन बाहर ही नहीं निकलते या चुपचाप अपनी प्रेमिका का अपमान बर्दाश्त करते रहते हैं और पिटते हुए संघर्ष भी नहीं करते। ऐसे प्रेमी पिटने ही चाहिए।
दूसरी बात यह कि अगर कोई पुरुष प्रेमी प्रेम के अधिकार का पक्षधर है तो इसे यही अधिकार अपनी बहनों को भी देना पड़ेगा, पर जो प्रेमी अपनी बहनों को घरों में कैद करके यह अधिकार नहीं देना चाहते और स्वयं लेना चाहते हैं वे साधारण से लम्पट और कामुक हैं और उनका प्रेम किसी विचारपूर्ण निष्कर्ष का हिस्सा नहीं है। इस दोहरेपन के लिए भी वे पिटने के पात्र हैं।
जब भी समाज बदलता है तो पुराने समाज को नियंत्रित कर उसे अपने हित में बनाए रखने वाले लोग किसी भी परिवर्तन का विरोध करते हैं। वे एक संगठित संस्था का बल रखते हैं इसलिए इक्कों दुक्कों पर भारी पड़ते हैं। ए वेलंटाइन डे मनाने वाले स्वयं इतने अपराधबोध से ग्रस्त रहते हैं कि न तो वे अपना कोई संगठन ही बनाते हैं और ना ही अपने जैसों की मदद ही करते हैं। इसलिए ए पिटते हैं और हर वर्ष की भांति पिटते ही रहेंगे जब तक कि गुंडों को उन्हीं की भाषा में जबाब नहीं देते।
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