Monday, 16 September 2013

जन को जगाओ, बच्चों को बचाओ


भारत में केंद्र और राज्य सरकार के ढेरों ऐसी योजनाएं हैं जिसके माध्यम से सरकारी अमला बच्चों के बेहतर भविष्य का दावा करता हैं, लेकिन हालात यह है कि ऐसी योजनाएं लाखों मासूम तक पहुंचने से पहले भ्रष्टाचार का ग्रास बन जाती है। ये भ्रष्टाचारी कभी यह नहीं सोचते हैं कि जिनके हिस्से की राशि वे भ्रष्टाचार के रूप में लेकर कर अपने घर-परिवार में बच्चों को ऐसो आराम उपलब्ध करा रहे हैं, दरअसल उसकी कीमत किसी दूसरे के गोद के मासूम के मुंह में जाने वाला निवाला है, स्वास्थ्य सुविधाओं समेत अन्य दूसरी योजनाओं  के रूप में उनकी जिंदगी है।
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संजय स्वदेश 




संयुक्त राष्ट्र ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि उसके प्रयासों से पिछले दो दशक में दुनिया भर के करीब नौ लाख बच्चों की जिंदगियां बचाई जा सकी हैं लेकिन 2015 तक इस मृत्यु दर में दो तिहाई की कमी का लक्ष्य फिलहाल पूरा होता नहीं दिखता। रिपोर्ट खुलासा करती है कि 1990 में जहां विभिन्न कारणों से दुनिया भर में पांच साल तक की आयु के एक करोड़ 26 लाख बच्चे असमय काल के ग्रास बन गए। वहीं 2012 में यह आंकड़ा 66 लाख पर ही रुक गया।
रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में पांच साल से कम उम्र के आधे से अधिक बच्चों की मौत अकेले भारत, चीन, कांगो, पाकिस्तान और नाइजीरिया में होती है। बच्चों की इस असामयिक मौत के लिए निमोनिया, मलेरिया और दस्त के साथ कुपोषण को बड़ी वजह बताया गया है। इस अभियान का सबसे सुखद, सराहनीय और उल्लेखनीय पहलू यह है कि बांग्लादेश, इथोपिया, नेपाल, लाइबेरिया, मलावी और तंजानिया जैसे गरीब देश भरसक कोशिश करते हुए 1990 के बाद से अब तक अपने यहां बाल मृत्यु दर में दो तिहाई या उससे अधिक की कमी का लक्ष्य हासिल कर प्रेरक बन गए हैं। ए गरीब देश भारत जैसे विकासोन्मुख देशों के लिए बड़ी प्रेरणा कहे जा सकते हैं जहां दिन-ब-दिन बढ़Þती जनसंख्या के साथ बाल मृत्यु दर सबसे भयावह समस्या बनी हुई है। यूनिसेफ की 2012 की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2011 में वैश्विक स्तर पर इस आयु वर्ग के प्रतिदिन मरने वाले 19000 बच्चों में से करीब चौथाई भारत में मृत्यु का ग्रास बने। यानी हर दिन करीब चार हजार बच्चे मौत के मुंह में समा गए। बाल विकास के नाम पर तमाम सरकारी और गैर-सरकारी योजनाओं की मौजूदगी के बावजूद अपने यहां दुनिया के बाकी देशों की तुलना में सबसे ज्यादा मौतें होना बहुत त्रासद और विचारणीय है। अपने यहां बच्चों की असामयिक मौत के पीछे गरीबी, कुपोषण और अशिक्षा सबसे बड़े कारण माने जाते हैं और इसके लिए अंतत: हमारा शासन तंत्र जिम्मेदार है।
भारत में केंद्र और राज्य सरकार के ढेरों ऐसी योजनाएं हैं जिसके माध्यम से सरकारी अमला बच्चों के बेहतर भविष्य का दावा करता हैं, लेकिन हालात यह है कि ऐसी योजनाएं लाखों मासूम तक पहुंचने से पहले भ्रष्टाचार का ग्रास बन जाती है। ये भ्रष्टाचारी कभी यह नहीं सोचते हैं कि जिनके हिस्से की राशि वे भ्रष्टाचार के रूप में लेकर कर अपने घर-परिवार में बच्चों को ऐसो आराम उपलब्ध करा रहे हैं, दरअसल उसकी कीमत किसी दूसरे के गोद के मासूम के मुंह में जाने वाला निवाला है, स्वास्थ्य सुविधाओं समेत अन्य दूसरी योजनाओं  के रूप में उनकी जिंदगी है।
मासूम बच्चों के लालन-पालन, स्वास्थ्य और शिक्षा के लिए अनुकूल माहौल बनाने की जिम्मेदारी केवल केंद्र सरकार पर नहीं हैं। केंद्र सरकार के साथ राज्य सरकार के कंधे पर भी यही बोझ है। आज के मासूम बच्चे ही कल के जिम्मेदार नागरिक हैंÑ,  जैसा वे वातावरण पाकर बड़े होंगे वैसा ही आने वाले भारत का भविष्य होगा। आज देश में छोटे-बड़े क्षेत्रों में कई क्रूर इंसान मिल जाएंगे। वे असामाजिक तत्वों के दायरे में आएंगे। दरअसल ऐसी प्रवृत्ति उनके बचपन में मिले वातावरण के कारण ही विकसित हुए। समाज की भी ऐसी जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने बीच के भूखे-नंगे और किसी बीमारी से पीड़ित बच्चों की सुध ले। भविष्य संवारने की जिम्मेदारी केवल सरकार और एक परिवार विशेष की नहीं होती है। समाज को इस दिशा के सोचना बेहद जरूरी है कि आज के नौनिहालों के मन में यदि नकारात्मक प्रवृत्ति घर करती है और वे बड़े होकर असामाजिक तत्वों हो जाते हैं। फिर वे उसी समाज को दर्द देंगे। समाजिक-सरकारी उपेक्षा से में पल कर तैयार होने वाले नागरिक इस बात की गारंटी नहीं दिलाते हैं कि वे अपने बचपन में समाजिक और सरकारी  उपेक्षा के बदले समाज और देश के साथ कुछ अच्छा करेंगे। राष्टÑीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चलाई जाने वाली योजनाओं की सफलता की रफ्तार बहुत धीमे हैं। क्योंकि इन योजनाओं में समाज का उचित सहयोग नहीं मिल पता है। समाज में माहौल तैयार करने की प्रक्रिया एक वाहन के दो  पहिए की तरह है। एक पहिया योजनाओं के क्रियान्वयन करने वाले एजेंसियों हैं तो दूसरा समाज। यह सामूहिक जिम्मेदारी है।

Sunday, 8 September 2013

samachar visfot vikash chhattisi.

samachar visphot august issu spacail issue on vikash chattisi based n 36 development story in chhattishgarh

Tuesday, 13 August 2013

डेढ़ गुनी ज्यादा सैलरी पर राहुल के ‘वॉर रूम’ से जुड़ रहे हैं पत्रकार


त्रिदीब रमण

सीनियर पत्रकारों में राहुल गांधी के ‘वॉर रूम’ ज्वाइन करने की होड़ मची है। हालिया दिनों में कम से कम डेढ़ दर्जन पत्रकार जिनमें से अधिकांश भाजपा बीट कवर कर रहे थे, उन्होंने अपनी जमी-जमायी अखबार की नौकरी को लात मार कर कोई डेढ़ गुनी बढ़ी हुई तनख्खाह पर राहुल का साथ ज्वाइन कर लिया है। राहुल और उनकी टीम ने भाजपा बीट कवर रहे पत्रकारों को महज इसीलिए प्रमुखता दी है कि इनका मानना है कि ये पत्रकार भाजपा व संघ की अंदरूनी राजनीति और उनकी चुनावी रणनीतियों को बखूबी समझते हैं। राहुल ने इन पत्रकारों से वादा किया है कि लोकसभा चुनाव के बाद इन्हें उनके मूल संस्थानों में फिर से नौकरी दिलवा दी जाएगी। ‘वॉर रूम’ की नौकरी को ये पत्रकार भी खूब इंज्वाय कर रहे हैं, क्योंकि यहां काम का कोई तनाव नहीं है। ‘वॉर रूम’ में कोक, काफी की वेंडिंग मशीनों से लेकर किस्म-किस्म के सेंडविच की व्यवस्था है। जब यह पत्रकार फुर्सत में होते हैं तो राहुल की यार्कशायर टेरियर ब्रीड की मादा कुत्ता पिद्दी के संग खेल लिया करते हैं।    

सुचारू रूप से चल सकती है संसद

सोमवार से शुरू होने वाले संसद का मानसून सत्र के सुचारू रूप से चलने की संभावना है। कांग्रेस की डेमेज कंट्रोल टीम ने सर्वदलीय बैठक के बाद प्रमुख विपक्षी दलों के नेताओं से मिलने-जुलने का क्रम जारी रखा हुआ है। कांग्रेस रणनीतिकारों ने भाजपा और सपा दोनों दलों के समन्वय के लिए ज्यादा कोशिशें की हैं। सपा नेताओं की चिंता डिफेंस और टेलिकॉम सेक्टर में एफडीआई को लेकर है। वहीं सपा फूड सिक्यूरिटी बिल में एक तरह की पारदर्शिता चाहती है और सरकार से जानना चाहती है कि वे इस योजना को जन वितरण प्रणाली के साथ कैसे जोड़ेगी। वहीं भाजपा मोटे तौर पर फूड सिक्यूरिटी बिल और जमीन अधिग्रहण बिल को संसद में पास कराने के लिए तैयार हो गई है।

एक नए अवतार में अमर

अमर सिंह अपने एक नए सियासी अवतार में सामने आने को तैयार हैं। हालिया दिनों में सोनिया और राहुल से इनकी नज़दीकियां काफी बढ़ी हैं। इन्हें गांधी परिवार से नज़दीक लाने में दिग्गी राजा की एक महती भूमिका रही है। लिहाज़ा आने वाले लोकसभा चुनाव में पोस्ट पोल अलायंस को लेकर क्षेत्रीय दलों के साथ अमर की एक सक्रिय भूमिका हो सकती है। अमर की ममता बनर्जी, जयललिता, करूणानिधि और नवीन पटनायक जैसे क्षेत्रीय क्षत्रपों से काफी दोस्ती है। सो, वे चुनाव पश्चात इन क्षेत्रीय दलों को कांग्रेस के पाले में भी ला सकते हैं। पूर्व में जब अमर दुबई के एक निजी अस्पताल में अपना इलाज करा स्वदेश लौटने वाले थे तो उनके पुराने मित्र अनिल अंबानी ने अपना एक विशेष चार्टर्ड विमान उन्हें दिल्ली लाने के लिए दुबई भेजा था, पर अमर अंबानी के विशेष विमान की बजाए अपने एक शेख मित्र के चार्टर्ड विमान पर सवार होकर स्वदेश लौटे थे। जब वे दुबई में थे तो सोनिया गांधी ने भी बकायदा उन्हें फोन कर उनका कुशलक्षेम पूछा था। 

पलटवार को तैयार मोदी
पार्टी के अंदर और बाहर अपने धुर विरोधियों से निपटने के लिए नरेंद्र मोदी की रणनीति तैयार है। सो, किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए जब आने वाले दिनों में मीडिया में लाल कृष्ण अडवानी, सुषमा स्वराज, यशवंत सिन्हा और शत्रुध्न सिन्हा जैसे भाजपा नेताओं के गड़े मुर्दे उखड़ जाएं। इस काम में मोदी को अमरीका की पीआर फर्म ‘एपको वर्ल्डवाइड’ का हर मुमकिन साथ मिल रहा है। अमरीका में रह रहे अपने कई अनिवासी भारतीय मित्रों की सलाह पर मोदी ने सर्वप्रथम अगस्त 2007 में पीआर कंपनी ‘एपको’ की सेवाएं ली थीं। तब से लेकर आज तक यह कंपनी मोदी और गुजरात को एक ब्रांड के तौर पर स्थापित करने में जुटी है। ‘वायब्रेंट गुजरात’ कैंपेन का आइडिया भी इसी कंपनी  का बताया जाता है। सनद रहे कि अमिताभ बगान को गुजरात का ब्रांड एंबेसेडर बनाने और मोदी के लिए ‘नमो’ विशेषण प्रचारित करने में इसी कंपनी की भूमिका थी। सन्  2009 में मोदी ने इस कंपनी के साथ अपने करार को पुन: रिन्यू किया और बताया जाता है कि इस कंपनी के प्रयासों से अब तक गुजरात में 153बिलियन अमरीकी डॉलर का निवेश आ चुका है। इस कंपनी ने ‘वन इस्त्रायल’, ‘वन मलेशिया’ जैसे कई सफल राजनीतिक कैंपेन को परवान चढ़ाया है। भारत में इस कंपनी का आॅपरेशन मीडिया विशेषज्ञ सुकांति घोष देखते हैं।
 
कांग्रेस में इमेज चमकाने की होड़

अपने युवराज राहुल गांधी की देखा-देखी इनके कई दरबारी मंत्री भी अपनी इमेज चमकाने में जुट गए हैं। सूत्र बताते हैं कि पी.चिदंबरम, कपिल सिब्बल और मनीष तिवारी समेत कई कांग्रेसी मंत्रियों ने अपनी इमेज चमकाने के लिए अलग-अलग पीआर एजेंसियों का सहारा लिया है। वहीं राहुल की हालिया डांट के बाद कांग्रेसी मंत्रियों के तेवर भी ढीले हुए हैं और विपक्ष पर हमला साधने में वे शब्दोंं का भी सोच-समझकर चयन कर रहे हैं।

दिल तो बगाा है जी।

कहते हैं इश्क व मुश्क छुपाए नहीं छुपते, कांग्रेस के एक बड़े और बड़बोले नेता के साथ भी ऐसा ही है। वे एक बड़े प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं, अपने मुख्यमंत्रित्व काल में इनका दिल एक एंग्लो इंडियन महिला पर आ गया। इस एंग्लो इंडियन युवती की मां श्रीमती इंदिरा गांधी की गवर्नेंस रह चुकी हैं। तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री साहब को बखूबी इस बात का इल्म था कि यह एंग्लो इंडियन युवती शादी-शुदा है, पर दिल तो बगाा है जी, वे अपने इश्क के तूफां को कहां रोक पाए और उन्होंने उस युवती को एंग्लो इंडियन कोटे से विधान परिषद में नॉमिनेट कर दिया और युवती के वकील पति को राज्य का एटॉर्नी जनरल नियुक्त कर दिया। आज की तारीख में वह युवती जो अब एक परिपक्व महिला हो चुकी है अपने पति और बेटी के साथ दिल्ली से सटे नोएडा में रहती है। पति और बेटी दोनों ही सुप्रीम कोर्ट में वकालत करते हैं। नेताजी अब भी इस महिला के निरंतर संपर्क में हैं, पर जब मियां-बीवी राज़ी तो क्या करेगा काज़ी। समझा जाता है कि इस राजनेता के देश के तीन शीर्ष उद्योगपतियों की कंपनियों में 100 करोड़ से ज्यादा का निवेश है।

राजनाथ के बड़े मंसूबे
भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह जब से अमेरिका से लौट कर स्वदेश आए हैं उनके इरादे बम-बम हैं, बड़े बोल और बड़े फैसलों के हिमायती हो गए हैं, उनके राजनैतिक सलाहकारों और ज्योतिषियों ने उन्हें समझा दिया है कि ‘भाजपा की ओर से बस दो ही लोग प्रधानमंत्री बनने की रेस में हैं-एक नरेंद्र मोदी, दूसरे स्वयं राजनाथ। नरेंद्र मोदी की पार्टी और पार्टी से बाहर उनकी स्वीकार्यता को लेकर कई प्रश्नचिन्ह लगे हुए हैं। वहीं राजनाथ के नाम का कोई विरोध नहीं, चुनांचे 2014 में उनके प्रधानमंत्री बनने की संभावनाएं कहीं कम नहीं।’ राजनाथ के पांव अब जमीं पर कम, मंदिरों व गुरूओं के दरबार में ज्यादा पड़ रहे हैं। अभी हालिया दिनों में उन्होंने असम के प्रख्यात कामाख्या देवी मंदिर में एक बड़ा यज्ञ करवाया है और इस यज्ञ के निहितार्थ क्या हैं, यह कोई छुपी बात नहीं रह गई।

मोदी को धन देने की होड़

भाजपा से सहानुभूति रखने वाले प्रमुख उद्योगपतियों से नरेंद्र मोदी ने निरंतर संपर्क बनाया हुआ है। सूत्र बताते हैं कि मोदी ने इन उद्योगपतियों से साफ कह रखा है कि वे भाजपा के किसी नेता को व्यक्तिगत तौर पर फंड न करें, उन्हें जो भी पैसा देना है वह पार्टी के केंद्रीय कोष में जमा कराएं। मोदी ने साफ कर दिया है कि आने वाले चुनाव में हर भाजपा प्रत्याशी को कितना धन दिया जाना है इसका निर्धारण वे स्वयं करेंगे। पर उड़ती चिड़िया के पर गिनने में माहिर थैलीशाह मोदी के मंतव्य को भली-भांति भांप गए हैं और इनमें से कईयों ने तो अभी से मोदी को चंदा देना शुरू कर दिया है। देश के एक बड़े उद्योगपति ने तो वादा किया है कि मोदी की इमेज व ब्रांड बिल्डिंग में जितना पैसा खर्च हो रहा है इसका व्यय वे स्वयं वहन करेंगे। सूत्र बताते हैं कि गुजरात से भावनात्मक लगाव रखने वाले इस उद्योगपति ने अभी से इसका खर्च उठाना भी शुरू कर दिया है।  

दलबदल की होड़

चुनावी मौसम आ चुका है, लिहाज़ा सियासत में एक-दूसरे के घर आने-जाने की रवायतें भी शुरू हो गई हैं। नरेंद्र मोदी के चुनावी प्रचार की बागडोर संभालने के बाद से भाजपा के बाज़ार भाव में इजाफा हुआ है। सो, अन्य दलों के कई नेता भाजपा ज्वाइन करने को तैयार बैठे हैं। हैरत की बात तो यह कि इन कतारबद्द नेताओं में कांग्रेसी नेताओं की संख्या सबसे ज्यादा है। हरियाणा के एक बड़े बिजनेसमैन टर्न राजनेता ने भी हालिया दिनों में भाजपा के कुछ शीर्ष नेताओं से मिलकर पाला बदल की इ छा जतायी है। सनद रहे कि ये फिलहाल कांग्रेस में हैं और कांग्रेस को चुनावी चंदा देने में उनका कोई सानी नहीं। मध्य प्रदेश में सबसे ज्यादा कांग्रेसी नेता पाला बदल को इ छुक बताए जाते हैं।

...और अंत में

आखिर बकरे की मां कब तक ख़ैर मनाएगी। 2जी मामले में भयंकर उथल-पुथल लाने वाली देश की एक प्रमुख कारपोरेट लॉबिस्ट नीरा राडिया को लेकर कोर्ट का रूख सख्त हो सकता है। सूत्र बताते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के कहने पर नीरा राडिया मामले को जांच के लिए सीबीआई के सुपुर्द किया जा सकता है।  (एनटीआई)

Thursday, 11 July 2013


समाचार विस्फोट के दो वर्ष पूरे, अब सप्ताहिक भी होगा प्रकाशित
नागपुर से प्रकाशित हिंदी मासिक पत्रिका समाचार विस्फोट ने सफलतापूर्वक दो वर्ष पूरा कर लिए हैं। अगस्त, 2011 से शुरू हुई यह मासिक पत्रिका ने समाचारों के वैचारिक तेवरों के साथ तेजी से महाराष्टÑ, छत्तीसढ़, मध्यप्रदेश, राजस्थान, झारखंड, बिहार एवं ओडिशा के कुछ क्षेत्रों में प्रसार किया हैं।
गत दो वर्षों दो वर्ष में समाचार विस्फोट को पाठकों से मिले रिस्पांस को देखते हुए इसका अन्य क्षेत्रों में भी प्रसार किया जा रहा है। संभावना है कि अगस्त महीने से ही समाचार विस्फोट छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से टेबुलाइट साइज में साप्ताहिक संस्करण के रूप में प्रकाशित होगा। यही से इसे देशभर में प्रसार की योजना है। साप्ताहिक समाचार विस्फोट को ज्यादा से ज्यादा पाठकों तक पहुंचाने के लिए देश भर से प्रतिनिधियों को जोड़ने का क्रम जारी है। समाचार विस्फोट से स्वतंत्र रूपे से जुड़ने के इच्छुक पत्रकार samachar.visfot@gmail.com संपर्क कर सकते हैं।
 
 
 

Thursday, 23 May 2013

samachar visfot may 2013


भारतीय बाजार से चीन मालामाल

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भारत के बड़े बाजार में धंधा कर चोखा मुनाफा बटोरने वाली कंपनियों की दो जमात है। एक वह जो अपने उत्पाद में थोड़ी बहुत गुणवत्ता देकर भारतीय व्यापारियों के ग्राहकों को लुभा रहे हैं, दूसरे वे हैं जो घटिया उत्पाद या धोखा देकर भारतीय व्यापारी, कपंनियां या ग्राहकों का पैसा हड़प ले रही हैं

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संजय स्वदेश
पड़ोसी देश चीन कभी भी भारत का विश्वस्त नहीं रहा। लेकिन वैश्विक स्तर पर बदले हालात और बाजार के प्रभाव के कारण कूटनीतिक स्तर पर हमेशा दोनों देशों के संबंधों को सकारात्मक बनाये रखने की पहल दोनों देशों की ओ से होती है। वैश्विक स्तर पर मजबूत होते भारत के कदम चीन की आंखों में हमेशा खटकता रहा है। लिहाजा, चीन ने हमेशा से हर मोर्चे पर भारत को कमजोर करने की कोशिश करता रहा है। कभी सीमा में घुसपैठ करके तो कभी देश के महत्वपूर्ण प्रतिष्ठानों के वेबसाइटों साइबर धावा बोलकर मानसिक रूप से अशांत करता है। लेकिन आर्थिक स्तर पर चीन भारत को जिस तरह से खोखला कर रहा है, वह निश्चय ही गंभीर है। मीडिया में भारतीय सीमा पर चीनी सैनिकों की हलचल की खबरों पर नजर ज्यादा रहती है, लेकिन इस हलचल के पीछे चीन से जुड़े आर्थिक मुद्दे अक्सर गौड़ होते गए हैं।
करीब दशक भर पहले जब चीनी माल भारत में सस्ते दामों में पहुंचा तब लोगों ने हाथों-हाथ लिया। हालांकि चीन अभी भी भारत की हर जरूरत की समान यहां तक ही हमारे भगवान की मूर्तियों तक को भेज रहा है। शुरुआती दिनों में वस्तुओं की गुणवत्ता इतनी खराब निकली कि धीरे-धीरे  लोगों को विश्वास चीनी वस्तुओं से उठने लगा। लेकिन शुरुआती दौर में चीन ने भारती व्यपारियों को भीषण तरीके से मानसिक आघात पहुंचाया। अब भारत आने वाला चीनी माल में अब थोड़ी बहुत गुणवत्ता आने लगी है। यहीं कारण है कि  गुणवत्ता को लेकर टूटा जनता का विश्वास किफायती दाम के कारण फिर बहाल होने लगा है। आम भारतीय बाजार में ब्रांडेट कंपनियों का 20 से 40 हजार में मिलने वाला टेबवलेट चीनी ब्रांड में हूबहू  दो-चार हजार में उपलब्ध हो जा रहा है।
जो लोग ब्रांडेड टेबलेट नहीं खरीद पाते हैं, चीनी टेबलेट से टशन मारते हैं। यह तो केवल टेबलेट भर की बात है। खिलौना, देवी-देवताओं की प्रतिमाओं से लेकर, फर्नीचर और इलेक्ट्रॉनिक वस्तुएं चीनी उत्पाद भारत में उपलब्ध हैं।
समझदार भारतीय उपभोक्ता अब किफायती दर के साथ गुणवत्ता की तुलना कर वस्तुओं को चुनने लगा है। चीन से आयातित सस्ती वस्तुओं से भारतीय कारोबारियों और निर्माताओं पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। सबसे अधिक नुकसान भारत के छोटे और मझौले उद्यमियों पर पड़ा है। भारत के बड़े बाजार में धंधा कर चोखा मुनाफा बटोरने वाली कंपनियों की दो जमात है। एक वह जो अपने उत्पाद में थोड़ी बहुत गुणवत्ता देकर भारतीय व्यापारियों के ग्राहकों को लुभा रहे हैं, दूसरे वे हैं जो घटिया उत्पाद या धोखा देकर देशी व्यापारी, कपंनियां या ग्राहकों का पैसा हड़प ले रही हैं।
हालही में चीन से व्यापार करने वालों को भारतीय दूतावास ने खबरदार करते हुए सचेत रहने को कहा। पिछले वर्ष 86 भारतीय कंपनियों को चीनी कपंनियों ने धोखा दिया। धोखा खाने वाले छोटे और मझोले स्तर के भारतीय कारोबारी थे। दिया है कि भारतीय कंपनियां कोई भी कारोबारी समझौता करने से पहले चीनी कंपनियों की जांच-परख कर लें। जो चीनी चीनी कंपनियां धोखाधड़ी में शामिल पाई गर्इं है, वे रसायन, स्टील, सौर उर्जा के उपकरण, आॅटो व्हील, आर्ट एंड क्राफ्ट्स, हाडर्वेयर और बायोलॉजिकल टेक्नोलॉजी के कारोबार से जुड़ी हैं। ऐसे मामले भी सामने आए हैं जब भारतीय कंपनियों ने चीन से मशीनरी मंगवाई। जब इसकी इंस्टालेशन करने के बाद काम शुरू किया तो मशीन चली ही नहीं। चीनी वेबसाइट देखकर भारतीय व्यापारी सामान खरीदने को आर्डर देते हैं। चीनी कंपनियां उनसे पैसा तो ले लेती है, लेकिन बाद में सामान भेजती ही नहीं। भारतीय दूतावास ऐसी धोखेबाजी चीनी कंपनियों की सूची आॅनलाइन उपलब्ध करा रहा है। चीनी कंपनियों की धोखेबाजी के धंधे से अलग अनेक चीनी कंपनियां भारत में बेहतर धंधा कर मालामाल हो रही हैं। देश की प्रतिष्ठित औद्योगिक संगठन का दावा हैकि चीन भारतीय अर्थव्यवस्था को किसी भी तरह से नुकसान पहुंचाने का खतरा नहीं उठा सकता है क्योंकि उसके भारत से व्यापक व्यापारिक हित जुड़े हुए हैं। भारत के बढ़ते बाजार में चीन की हिस्सेदारी में बड़ी तेजी से बढ़ोतरी हुई है। फिलहाल चीन का भारत में वार्षिक कारोबार 40 अरब डॉलर यानी की करीब 2 लाख 22 हजार करोड़ रुपये हो रहा है। संभावना है कि चालू वित्त वर्ष में यह आंकड़ा बड़ 44 अरब डॉलर तक पहुंच जाएगा। एसोचैम का सुझाव है कि भारत और चीन को आपस में व्यापारिक अंतर को पाटने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए।
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संजय स्वदेश

Wednesday, 20 March 2013

प्राचीन भाषा की हत्या का उपक्रम

संदर्भ : सिविल सेवा परीक्षा से पाली को हटाना

तर्क देने वाले कह सकते हैं कि आज पालि बोलता कौन है? यही सवाल संस्कृत और उर्दू को लेकर भी उठाया जा सकता है। संस्कृत बोलने वाले एक प्रतिशत लोग भी देश में नहीं है। जिस भाषा से रोजगार उपलबध होती है, वह उतना ही समृद्ध होती है। रोजगार उपलब्ध करा कर ही अंग्रेजी ने हिंदी को मात दे दी। पाली संस्कृत को पछाड़ रही है।
संजय स्वदेश

संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) की सिविल सेवा की मुख्य परीक्षा के पाठ्यक्रम से अंग्रेजी की अनिवार्यता को फिलहाल रोक कर के केंद्र सरकार ने खूब वाहवाही बटोरी। यह खबर कई प्रमुख समाचारपत्रों के प्रमुखता से प्रकाशित हुई। हिंदी प्रेमियों ने खूब स्वागत किया। लेकिन इसी के साथ आयोग ने भारत की प्राचीन भाषा पालि का गला घोंट दिया। किसी को कोनोकान खबर नहीं लगी। पालि भाषा एवं साहित्य अनुसंधान परिषद ने इसके खिलाफ आवाज उठाई। पर अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता है। न कहीं शोर सुनाई दिया और न ही कई कोई बड़ा विरोध। आयोग की परीक्षाओं से अंग्रेजी की अनिवार्यता को हटाने के लिए वर्षों आंदोलन चले। करीब एक दशक पहले की बात है तब आयोग के मुख्य द्वार पर हिंदी समर्थित विरोधियों का एक तंबू हमेशा दिखता था। वहां के बैनर पर यह लिखा होता था कि हिंदी के समर्थन में चलने वाला देश में अब तक का सबसे बड़ा आंदोलन। एक बार दिल्ली में शाहजहां रोड़ से गुजरते वक्त किसी ने बताया था कि इसके समर्थन में अटल बिहारी वाजपेयी जैसे दिग्गज उतर चुके हैं। लेकिन कब उस आंदोलन का दम घुट गया और प्रदर्शनकारियों का तंबू हट गया, किसी को कानोकान खबर नहीं चली। ऐसे समय में जब न कोई आंदोलन था और न ही कहीं से कोई दबाव। आयोग ने हिंदी के प्रति हमदर्दी दिखाते हुए अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त कर देने की घोषणा कर दी। बात असानी से हजम नहीं होती। जब समाज में अंग्रेजी का भूत भूत सवार हो रहा हो, तब अपने आप आयोग ने आखिर रहमदिली क्यों दिखाया। ढेरों ऐसे प्रतिभाशाली लोग हैं जिन्होंने आयोग की अंग्रेजी की अनिवार्यता के कारण परीक्षा में असफलता की मुंह खाई। लेकिन अन्य क्षेत्रों में सफलता के शिखर पर पहुंचे। फिलहाल चर्चा, आयोग के पाठ्यक्रम से पालि को हटाने को लेकर है। प्राचीनकाल की जनभाषा और धार्मिक अल्पसंख्यकों बौद्धों की एक मात्र भाषा को हटाने के पीछे आयोग की क्या मंशा रही, इसे न ही उसने बताना उचित समझा और न ही सार्वजनिक रूप से समझाना। पालि भषा के विषय को लेकर सिवलि सेवा की मुख्य परीक्षा देने वाले प्रतिभागियों की संख्या हजारों में है। जिसमें से अधिकतर प्रतिभागी सफलता को प्राप्त करते हैं। मजेदार बात यह है कि सिविल सेवा की मुख्य परीक्षा में इस भाषा को ऐच्छिक विषय के रूप में चुनने वाले अधिकतर प्रतिभागी दलित, आदिवासी और पिछड़े समुदाय से होते हैं। आयोग के कठिन मापदंडों के कारण ही वर्षों से आरक्षित वर्ग के भरपूर अफसर बनाने में पूरी तरह से नकाम रहे हैं। शीर्ष सेवा में सैकड़ों पद आरक्षित वर्ग के रिक्त पड़े हैं।
महंगे और पहुंच से दूर पाठ्यक्रमों में दाखिला नहीं मिलने के कारण हर वर्ष हजारों विद्यार्थी पालि और बौद्ध अध्ययन में दाखिला लेते हैं। हालात तो यह है कि एक ओर जहां विश्वविद्यालयों के संस्कृत विभाग में सन्नाटा पसरता जा हरा है, वहीं पालि और बौद्ध अध्ययन के विभाग गुलजार होने लगे हैं। इसके बाद भी बिना किसी ठोस तर्क दिए बगैर पालि के प्रति यूपीएससी की  मनमानी उसकी साकारात्मक मंशा को जाहिर नहीं करती है। दलित, आदिवासी और पिछड़े हमेशा ही इस बात को लेकर यह शोर मचाते रहे हैं कि जिन कठिन राहों को वे अपनी मेहनत से आसान बना रहे हैं नीति नियंता किसी न किसी तरह से उनके राह में और अड़ंगा डालते हैं। सिविल सेवा परीक्षा से पालि का हटाना देश के उन हजारों युवाओं के सपने तोड़ने जैसा है जो पालि का अध्ययन कर रहे हैं और इस विषय के साथ देश की सर्वोच्च प्रतिष्ठित सेवा क्षेत्र अपनी काबिलियत सिद्ध करना चाहते हैं।
सिविल सेवा की परीक्षा में संस्कृत, उर्दू और पंजाबी को अभी भी रखा गया है। जैसे संस्कृत हिंदुओं से, उर्दू मुस्लिमों से तथा पंजाबी सिक्खों से संबंधित है। वैसे ही पालि बौद्ध धर्म के लोगों से संबंधित है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत में इनकी संख्या बढ़ रही है। भविष्य में निश्चय ही समाज में इस भाषा की प्रतिष्ठा और रूढ़ होगी। तर्क देने वाले कह सकते हैं कि आज पालि बोलता कौन है? यही सवाल संस्कृत और उर्दू को लेकर भी उठाया जा सकता है। संस्कृत बोलने वाले एक प्रतिशत लोग भी देश में नहीं है। संस्कृत भाषा के प्रति बचे खुचे लोगों का भी मोहभंग हो रहा है। विभिन्न विश्वविद्यालयों में संचालित संस्कृत के पाठ्यक्रमों में दाखिले के लिए पर्याप्त संख्या में विद्यार्थी भी नहीं पहुंच रहे हैं। लेकिन पालि भाषा की स्थिति संस्कृत से उलट है। वर्तमान समय में पालि को लगभग 55 विश्वविद्यालयों में पालि एवं बौद्ध अध्ययन विषयों का अध्यपन हो रहा है। विदेशों को छोÞड़कर सिर्फ भारत में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग हर साल दो बार यूजीसी नेट एवं जेआरएफ की परीक्षा पालि भाषा में भी आयोजित करवा रहा है। सभी लगभग 55 विश्वविद्यालयों और उनके संबंद्ध कॉलेजों में स्रातक, एमए, एमफिल, पीएचडी की उपधियां दी जाती है। इसके साथ ही पालि भाषा एवं साहित्य में प्रमाण-पत्र, डिप्लोमा एवं पालि आचार्य की भी उपाधि दी जाती है। इतना ही नहीं वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा बोर्ड, बिहार माध्यमिक शिक्षा बोर्ड एवं महाराष्टÑ माध्यमिक शिक्षा बोर्ड में भी पालि भाषा विषय की पढ़ाई हाई स्कूल एवं इंटरमीडिएट कक्षाआ में होती है। इसके अलावा देशभर के करीब पचास से ज्यादा विश्वविद्यालयों में पाली भाषा विभाग संचालित है। पालि भाषा के बिना प्राचीन भारतीय इतिहास को जनाना कठिन ही नहीं, अपितु असंभव भी है, क्योंकि पालि भाषा भारत देश की प्राच्य भाषाओं (पालि,प्रकृत व संस्कृत) में से एक महत्पूर्ण भाषा है। ऐतिहासिक महत्व की दृष्टि ही नहीं बल्कि सार्क देशों और दक्षिणी एशियाई देशों के साथ हमारी विदेश नीतियों को भी यह भाषा प्रभावित करती है। क्योंकि इन देशों में बौद्ध धर्म का प्रभाव ज्यादा है। तमाम सार्थक बिंदुओं की अनदेखी करते हुए केवल पालि भाषा को यूपीएसी की परीक्षा से अचानक हटाने का निर्णय अदूरदर्शिता नहीं है। जिस भाषा से रोजगार उपलबध होती है, वह उतना ही समृद्ध होती है। रोजगार उपलब्ध करा कर ही अंग्रेजी ने हिंदी को मात दे दी। पाली संस्कृत को पछाड़ रही है। ऐसे समय में जब यूपीएससी द्वारा पालि को पाठ्यक्रम से हटाने का निर्णय इसका गला घोंटने से कम नहीं है।

Thursday, 7 February 2013

बांझ मर्दों की बढ़Þती फौज



एक समय था, जब किसी निसंतान महिला को बांझ कर कह न केवल मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाता था, बल्कि उसे घर-परिवार के साथ समाज में भी दूसरे कोटी का मान लिया जाता था। समय बदला तो महिलाओं के माथे से ऐसे कलंक हटने लगे लगे। ए कलंक अब पुरुषों के माथे पर आने लगी है। विज्ञान ने यह हकीकत बताई कि संतान नहीं होने का एकमात्र कारण किसी महिला का बांझ होना नहीं है, बल्कि बांझ तो पुरुष भी हो सकते हैं।


अब केवल महिलाएं बांझ नहीं होती। अब मर्द भी इस कतार में खड़े हैं। मजेदार बात यह है कि बांझ मर्दों की फौज लगातार बढ़Þ रही है। इस समस्या को दूर करने का मेडिकल धंधा भी सधे हुए कदमों से पांव पसार रहा है। देश के प्रमुख शहरों में मर्दों के बांझपन के इलाज के लिए अलग से सेंटर खुल गए हैं। अश्चर्य की बात तो यह है कि अनेक युवाओं को यह पता ही नहीं कि वे आधुनिक जीवन शैली में बाप बनने की ताकत खो चुके हैं। मेडिकल कंपनियां इन्हें एक बाजार के रूप में देख रही है।


देवांशु नारायण
ज्यादा से ज्यादा धन की चाहत और बदलते समाज और परिदृश्यश् में तनाव से ग्रसित मर्द भी बांझपन का शिकार होने लगा है, ताजा शोध और डाक्टरों से जो जानकारी मिलती है वह चौंकाने वाली है। वजह चाहे जो भी हो, लेकिन हमेशा समाज ने महिलाओं के बारे में ज्यादा सोचा और बांझपन का ताज उन्हीं पर मढ़ा गया। शोध बताता है कि संतानहीनता में अब पुरुष भी बड़े कारण बन गए हैं। जिसमें शुक्राणुओं के नए मामले, तनाव से परेशानी, लोगों की जीवनशैली, मोटापे की महामारी और अत्यधिक दवाइयों का सेवन मुख्य कारक बताए गए हैं।
दो साला पहले की एक रिपोर्ट है।  उसके अनुसार आज के पुरुष प्रधान समाज के 10 प्रतिशत युवा पुरुषों के शुक्राणुओं की गुणवत्ता, मात्रा और निर्माण में भारी कमियां पाई गई हैं। साथ ही 6 प्रतिशत पुरुष बांझपन और 14 प्रतिशत अंडाशय संबंधी विफलता क्रोमोसोम में गड़बड़ी के कारण बाप बनने की क्षमता खो चुके हैं। रिपोर्ट में बांझपन के कारण 40 प्रतिशत पुरुष, 40 प्रतिशत महिलाएं तथा 20 प्रतिशत अभी भी अभूझ बने हुए हैं। ऐसा सिर्फ भारत में ही नहीं हैं, बल्कि पिछले 50 वर्षो में दुनिया भर के पुरुषों में शुक्राणुओं की संख्या 50 फीसदी कम हो गई है। डॉक्टर मानते हैं कि पुरुष में बांझपन के कारण और इसे कम करने के लिए मेडिकल साइंस को और शोध की जरूरत है। शोध रिपोर्ट के मुताबिक जानकारी मिलती है, वह मर्दों की नींद  उड़ाने के लिए काफी है।
आश्चर्य की बात तो यह है कि अनेक युवा ऐसे हैं तो बांझपन के अदृश्य बीमारी से      ग्रस्त हो चुके हैं। उन्हें इस बात का पता भी नहीं है कि वे भविष्य में बाप बनने कीक्षमता खो चुके हैं। रिपोर्ट के मुताबिक आज हमारे देश और प्रदेश में पांच में से एक दंपती निसंतान है। यह आंकड़ा स्थिर नहीं है। हर वर्ष निसंतान दंपतियों की संख्या बढ़Þती जा रही है। शहरों की 16 प्रतिशत महिलाएं निस्संतान हैं। भारत में 1981 के बादे से शहरी क्षेत्रों में संतानहीनता के मामले में 50 प्रतिशत की बढ़Þोतरी हुई है। पुरुष के मुख्य कारणों में 37 प्रतिशत वैरीकोसील, 25 प्रतिशत इंजियोपैथिक, 10 प्रतिशत शुक्राणुओं में गड़बड़ी, 9 प्रतिशत अंडकोष में खराबी बताया गया है। वहीं महिलाओं में बांझपन की समस्याएं लंबे अरसे से जुड़ी हैं, जिसमें 37 प्रतिशत से उम्र का अधिक होना, 22 प्रतिशत फैलोपियन ट्यूब की समस्या, 20 प्रतिशत पालीसिस्टिक ओवरी, 18 प्रतिशत जननांगों में टीवी और 10 प्रतिशत आनुवांशिक समस्याएं का होना है।
आंकड़ों के मुताबिक भारत के 9 करोड़ पुरुष बाप होने की क्षमता की कमी के शिकार हो चुके हैं। इस आंकड़े को बढ़Þते देख मेडिकल कंपनियां इन्हें एक बड़े उभरते हुए बाजार के रूप में देख रही है। अनुमान के आधार पर विशेषज्ञ कहते है कि देश में बांझपन के इलाज के लिए उपयोग होने वाला  दवा का कुल करोबार करीब 90 करोड़ से एक अरब तक का हो चला है। यह यह दवा का बाजार फिर फलफूल रहा है। इसके साथ ही इसके उपचार का करोबार हर साल 20 से 30 प्रतिशत की दर से आगे बढ़Þ रहा है।
हाल ही में प्रकाशित एक प्रतिष्ठित पत्रिका की रिपोर्ट के मुताबिक देश में बांझपन के इलाज के लिए 40 हजार चक्र चलते हैं, जबकि 2000 में इसकी संख्या सिर्फ 7 हजार थी। आज के समाज या वर्ग में शिक्षित युवा की संख्या ज्यादा है, वे किसी भी तकलीफ या परेशानी में तुरंत डाक्टरों से मिलते हैं और खुलकर बात करते हैं। अगर दंपतियों की बात माने तो उनका कहना होता है कि घर, परिवार और समाज को देखते हुए बच्चों का जीवन में होना अत्यंत आवश्यक माना जाता है। कई मामले तो ऐसे भी रहे हैं जहां भारतीय परंपरा में लक्ष्मी की संज्ञा प्राप्त नारियों को फरमान तक सुना दिया जाता है कि इतने समय के अंदर आपको बच्चे पैदा करना है, अगर नहीं तो पुरुष दूसरी शादी करता है और पहली लक्ष्मी आत्महत्या, आत्मदाह या आकाल मृत्यु को अपनाती है। जरा सोचिए इस विषय पर कि क्या इसका दोषी सिर्फ महिलाएं हैं, तो उत्तर मिलेगा नहीं, कहीं न कहीं पुरुष भी जींदगी की उहा-पूह में बांझपन के शिकार हो गए हैं। भारत में बच्चा पाने या जन्म देने की भी कीमत और इलाज हैं। जैसा इलाज वैसी कीमत। अगर आइयूआई के तहत गर्भाधारण किया जाता है तो इसमें 3 से 15 हजार तक खर्च आते हैं। एक अन्य इलाज में आइवीएफ के तहत गर्भाश्य को दवा के जरिए अंडाणु पैदा करने के लिए प्रेरित किया जाता है, फिर उन्हें गर्भाशय से बाहर निकालकर निषेचित किया जाता है, भ्रूण को वापस गर्भ में रख दिया जाता है और इसमें प्रति चक्र 50 हजार से 1 लाख 50 हजार तक खर्च हो जाते हैं। इसी तहत तीसरी विधि आसीएफआई में लैब में प्रत्एक अंडाणु में एक शुक्राणु डालकर उन्हें निषेचित किया जाता है और इसमें 80 हजार से 1 लाख 50 हजार खर्च हो जाते हैं।
आज के समाज में 17 प्रतिशत बांझ स्त्रियों को वैवाहिक समस्याएं झेलनी पड़ती है। बच्चे वाली 2 प्रतिशत के साथ भी ऐसा होता है। मुंबई की डॉ. फिरूजा कहती हैं कि दंपती आजकल बहुत एहतियात बरतते हैं, वे सामान्य बात पर जनरल फिजिशियन या स्त्रीरोग विशेषज्ञों से मिलने के बजाए सीधे इनफर्टिलिटी विशेषज्ञ से मिलने जाते हैं। डॉ. इंदिरा बताती हैं कि बांझपन की समस्या सरकार की योजनाओं में शामिल नहीं हैं, निस्संतान दंपतियों को बच्चा पैदा कराने में मदद कराने का कोई प्रावधान नहीं है। एबरडीन डॉ. शिलादित्य का कहना है कि संतानहीनता की परिस्थितियों का पूरा ज्ञान न होना लोगों का जीवन बरबाद कर सकता है। विकासशील देशों में इसे सार्वजनिक स्वास्थ्य का मामला मानना चाहिए।

लेखक परिचय
देवांशु नारायण : युवा पत्रकार। पटना से मंजिल की तलाश में म.प्र. सागर सेंट्रल यूनिवर्सिटी में पत्रकारिता की पढ़ाई, वहीं दैनिक भास्कर में रिर्पोटिंग और अखबार की व्यवहारिक टेÑनिंग। पटना मौर्य टीवी में छह माह तक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के तानेबाने के साथ झूठों की फौज को समझा। अब छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में दैनिक हरिभूमि के संपादकीय सहयोगी के रूप में समाचार जगत को जानते-समझते बेहतर पत्रकारिता का भविष्य देख रहे हैं।






'बेडरूम संकट' से जूझते दुनिया भर के मर्द!

from bbc
भागती आधुनिक जीवनशैली, इससे उत्पन्न तनाव, इस तनाव से बचने के लिए सिगरेट और शराब का सहारा- पुरुषों को बेडरूम में निष्क्रिय बना रहा है। कभी मर्दानगी पर इतराने वाले मर्द अब अपनी महिला साथी से नजरें चुराने लगे हैं।

यह खबर पढ़कर अजीब लगे, लेकिन पूरी दुनिया के मर्दों के सामने 'बेडरूम संकट' मुंह बाए खड़ा है। नपुंसकता, बांझपन और शीघ्रपतन की समस्या ने बेडरूम के अंदर दुनिया भर के मर्दों का विश्वास हिला दिया है। अनियमित खानपान, खानपान में पोषकता का अभाव, फास्ट फूड और कोल्डड्रिंक पर बढ़ÞÞती निर्भरता, शारीरिक श्रम में कमी, तेज भागती आधुनिक जीवनशैली, इससे उत्पन्न तनाव, इस तनाव से बचने के लिए सिगरेट और शराब का सहारा- पुरुषों को बेडरूम में निष्क्रिय बना रहा है। कभी मर्दानगी पर इतराने वाले मर्द अब अपनी महिला साथी से नजरें चुराने लगे हैं।
फ्रांसिसी मर्द पर हाल ही में हुए एक अध्ययन ने दर्शा दिया है कि न केवल फ्रांस के मर्द, बल्कि पूरी दुनिया के पुरुष बेडरूम में संकट का सामना कर रहे हैं। आधुनिक जीवनशैली के कारण मर्दो के वीर्य में शुक्राणुओं की संख्या लगातार कम हो रही है।  यही हाल रहा तो वह दिन दूर नहीं जब 'शुक्राणु विहीन वीर्य' हर देश के पुरुषों की समस्या बन जाएगी।
'ह्यूमन रिप्रोडक्शन' नाम के जर्नल में छपे शोध के मुताबिक फ्रांस में 26,600 मर्दों के वीर्य का परीक्षण किया गया। परीक्षण में पाया गया कि 16 वर्षों के भीतर इन मर्दों में 32.3% शुक्राणु घटे हैं। मतलब फ्रांसिसी मर्दों के शुक्राणुओं की संख्या साल 1989 से साल 2005 के बीच एक तिहाई गिरी है। वैसे जीव विज्ञानियों का मानना है कि पुरुषों के वीर्य में जो शुक्राणुओं की संख्या है वह अभी भी प्रजनन के लिए पर्याप्त है, लेकिन जिस दर से शुक्राणु क्षरण हो रहा है वह भविष्य के लिए चिंता का विषय है।
इस अध्ययन से जुड़े डॉक्टर जोएल ला मोए इसे गंभीर चेतावनी करार दे रहा है। उनका कहना है कि शुक्राणुओं के परीक्षण के लिए बड़े पैमाने पर किया गया यह अपनी तरह का पहला अध्ययन है, जो दर्शा रहा है कि पुरुषों के वीर्य में शुक्राणुओं की संख्या में लगातार कमी जन स्वास्थ्य के लिए एक गंभीर चेतावनी है।
ब्रिटेन के शेफील्ड विश्वविद्यालय के डॉक्टर एलन पेसी कहते है, शुक्राणुओं की संख्या में पाई गई गिरावट वैसे तो अब भी 'नॉर्मल रेंज' में है। उनके अनुसार, नर प्रजनन के लिए प्रति मिलीलीटर डेढ़ करोड़ शुक्राणुओं की जरुरत होती है। अध्ययन में प्रति मिलीमीटर चार करोड़ से अधिक शुक्राणु पाए गए हैं। लेकिन शुक्राणुओं की संख्या में कमी आ रही है, इससे इनकार तो नहीं ही किया जा सकता है।
आधुनिक लाइफस्टाइल में गड़बड़ ही गड़बड़ है
एडिनबरा विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रिचर्ड शार्प के अनुसार, हमारे आधुनिक लाइफस्टाइल में सबकुछ गड़बड़ है। अनियमित खान-पान और खानपान में जिस तरह से रसायनों का प्रयोग हो रहा है यह सब शायद उसी का असर है। वैसे इसके अहम कारणों को खोजा जाना चाहिए, क्योंकि मुद्दा गंभीर है।
आधुनिक जीवनशैली, वसा युक्त भोजन, हमारे जीवन में रसायनों की बढ़ÞÞती मौजूदगी, काम का बढ़ÞÞता दबाव और उससे उत्पन्न तनाव, सिगरेट और शराब ने उस अंग पर चोट किया है, जो मर्दों के लिए 'मर्दानगी' का पर्याय है। आखिर पुरुषों की 'मर्दानगी' की हेकड़ी 'लिंग दंभ' की वजह से ही तो है...और 'लिंग शिथिलता' ने इस हेकड़ी की हवा निकालने की शुरुआत कर दी है...भले ही अभी यह फ्रांस में दिख रहा है, लेकिन यदि अध्ययन हो तो हर देश के मर्द का 'लिंग' उन्हें धोखा देता दिख जाएगा।


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आईपीओ से पैसे जुटाकर 87 कंपनियां फरार


नई दिल्ली।
पिछले वित्त वर्ष के अंत तक ऐसी 87 लापता कंपनियां थीं जिन्होंने आईपीओ के जरिए राशि जुटायीं लेकिन बाद में उनका पता नहीं लग सका। कार्पोरेट मामलों के मंत्री सचिन पायलट का कहना है कि लापता कंपनियों की सूची में 238 कंपनियां हैं। इन कंपनियों में से 151 का पता लगा लिया गया है जबकि अन्य 87 कंपनियों का अभी तक पता नहीं चल सका है।  31 मार्च 2012 के आंकड़ों के अनुसार 87 कंपनियां ऐसी थीं जिन्होंने आरंभिक सार्वजनिक पेशकश (आईपीओ) के जरिए राशि जुटायी थी। सरकार और सेबी द्वारा ऐसे मामलों में नजर रखी जा रही है।  देश में व्यापार शुरू करने के लिए माहौल में सुधार किया जा रहा है और इस संबंध में अधिकतर विलंब राज्य स्तरीय अनुमोदनों के कारण होता है। पायलट ने कहा कि देश में कारोबार शुरू करने के लिए विभिन्न प्रावधानों को आसान बनाया गया है और कंपनी को रजिस्टर करने के लिए लगने वाले समय को कम करते हुए इसे 48 घंटा कर दिया गया है। निदेशक की पहचान संख्या और कंपनी के नाम की उपलब्धता जैसे विषय को 24 घंटों के अंदर हल किया जा सकता है।
कंपनी विधेयक में शुद्ध लाभ का कम से कम दो प्रतिशत भाग कार्पोरेट सामाजिक जिम्मेदारी (सीएसआर) के तहत खर्च किए जाने के प्रावधान के संबंध में कंपनियों की ओर से कोई आपत्ति नहीं मिली है। मंत्रालय को कंपनी विधेयक में सीएसआर के प्रावधान को लेकर किसी कंपनी की ओर से कोई आपत्ति या विरोध नहीं मिला है। मंत्री पायलट ने शीतसत्र के दौरान संसद में  कहा कि इस प्रावधान में यह भी कहा गया है कि अगर कोई कंपनी सीएसआर की राशि खर्च नहीं करती है तो उसे बोर्ड की रिपोर्ट में इसका कारण बताना होगा।

चिपक कर सोने का धंधा नया धंधा


एक घंटे में कमाती है तीन हजार
न्यूयॉर्क।
बिस्तर पर एक लड़का-लड़की चैन की नींद सो रहे हैं। पहली नजर में आपको यह पति-पत्नी लगे, लेकिन हो सकता है कि इसी बिस्तर पर अगले कुछ घंटों में लड़की के सााि दूसरा शख्त हो। पलभर में ही आप लड़की के चरित्र पर सवाल खड़ा कर सकते हैं, लेकिन आपको बता दे कि यह लड़की पेशेवर कडलर (गले लगाने वाली) है। 29 साल की जैकी सैमुअल इस तरह अनजान मर्दों के साथ प्रतिदिन सोने के 360 डॉलर और एक घंटे के 60 डॉलर (करीब 14 हजार रुपए और 3 हजार रुपए) लेती है। पैसों की कमी के कारण जैकी ने इस काम को शुरू किया है। उनका कहना है कि इसमें कुछ भी बुरा नहीं है। मुझे अपनी पढ़ाई और अपने बच्चे के लिए यह काम करना पसंद है।
जैकी एक हफ्ते में तकरीबन 30 पुरुषों के साथ हमबिस्तर होती हैं, लेकिन इसमें कोई भी अश्लील हरकत नहीं की जाती। उनके यहां आने वाले लोगों में अपराधी से लेकर सैनिक भी होते हैं। जैकी बताती हैं कि फिर भी लोग इसे बुरा मानते हैं। हालांकि उनके इस काम धंधे से ज्यादा लोगों को खबर नहीं है, लेकिन उन्हें कॉलेज से निकालने की चेतावनी मिल चुकी है। कई बार जैकी के साथी छात्र उसे वेश्या तक कहते हैं। बकौल जैकी, मुझे बचपन से पता है कि चिपक कर कैसे सोया जाता है। चिपक कर सोना शरीर के लिए भी लाभदायक है। इसमें आध्यात्म और फन का मिश्रण भी हैं। जैकी सोचती है कि उनके यहां आने वाले लोगों के जीवन में कई परेशानियां हैं। उनके कुछ पुराने ग्राहक ऐसे हैं, जिनकी पत्नियों की मौत हो चुकी है। कुछ ऐसे हैं, जो पहली बार लड़की के साथ सोना चाहते हैं। कुछ अपनी घरेलू समस्याओं से ग्रस्त है। जैकी अपनी सर्विस की आॅनलाइन प्रचार भी करती हैं।
इस धंधे में जैकी ने अंर्तवस्त्रों से ढके शरीर के किसी भी हिस्से को छूने पर पाबंदी रखती है। सोते समय वह पाजमा पहनती हैं। किसी तरह की अश्लील हरकत वह बर्दाश्त नहीं करती है। फिलहाल उसका यह बिजनेस इतना अच्छा चल रहा है कि उन्होंने एक और लड़कीको अपना सहयोगी बना कर रख लिया है। कई बार ऐसा भी होता है कि ग्राहक दो औरतों के साथ सोना चाहता है।  कई बार ऐसा भी होता है कि जैकी को अश्लील फोन और ई-मेल आते हैं। जैकी बेबाकी से कहही है कि वेश्यावृति का उसके धंधे से ज्यादा आसान है, क्योंकि चिपक कर सोने में खुद को ज्यादा केंद्रित करना होता है।
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जहां आग में नहीं जलती मुर्दों की टांग!


सूरजबानी।
गुजरात के कच्छ के रन में बनने वाला नमक देश की करीब 75 फीसदी नमक की जरूरत को पूरा करता है, लेकिन बहुत कम लोगों को इस कारोबार में लगे अगड़िया समुदाय के नमक मजदूरों की त्रासदी का भान है। ये मजदूर जिंदगी भर नमक बनाते हैं और अंत में मौत के बाद इन्हें नमक में ही दफन कर दिया जाता है। नमक मजदूरों के जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि नमक में लगातार काम करने के कारण इनकी टांगे असामान्य रूप से पतली हो जाती हैं और इस कदर सख्त हो जाती हैं कि मौत के बाद चिता की आग भी उन्हें जला नहीं पाती। नमक के खेतों में काम करने वाले मजदूर बताते हैं कि इसलिए चिता की आग बुझने के बाद इनके परिजन इनकी टांगों को इकट्ठा करते हैं और अलग से नमक की बनाई गई कब्र में दफन करते हैं ताकि वे अपने आप गल जाएं। अहमदाबाद से 235 किलोमीटर और कच्छ जिला मुख्यालय से 150 किलोमीटर दूर स्थित सूरजबारी अरब सागर से मात्र दस किलोमीटर की दूरी पर है। गुजरात के पर्यटन अधिकारी मोहम्मद फारूक पठान ने बताया कि समुदाय के लोग यहां सदियों से रह रहे हैं और जीविका के रूप में उन्हें केवल यही काम आता है, नमक बनाना। यहां का भूजल समुद्री जल के मुकाबले दस गुना अधिक नमकीन है। इस भूजल को नलकूपों से निकाला जाता है और उसके बाद उस पानी को 25 गुना 25 मीटर के छोटे छोटे खेतों में भर दिया जाता है।’ उन्होंने बताया, ‘जब सूरज की किरणें इस पानी पर पड़ती हैं तो यह धीरे धीरे सफेद नमक में बदल जाता है ।’

गैर जाति के छूते ही झोपड़ी होती है अछूत

गैर जाति के छूते ही झोपड़ी होती है अछूत

अशोक दीक्षित
छत्तीसगढ़ के वनांचल में रहने वाले कमार भुंजिया जनजातियों की एक अनूठी परंपरा आज भी कायम है। इसमें वे अपने आवास के भीतर घास-फूंस से एक विशेष प्रकार की झोपड़ी बनाते है। इस झोपड़ी को वे लाल बंगला कहते हैं। इस बंगले को यदि कोई दूसरी जाति का व्यक्ति छू दे तो बंगले को वे आग के हवाले कर देते है, और नया लाल बंगला बनाते तक अन्न जल ग्रहण नहीं करते यह लाल बंगला उनकी इष्ट देवी और देवता का निवास होता है। जिसे कोई अन्य व्यक्ति नहीं छूने देते। क्षेत्र में कमारों के विकास के लिए कई योजनाएं चल रही है। इसके बावजूद कमार भुंजिया के भुंजिया के लोग विकास के लिए कई योजनाएं चल रही है इसके बावजूद कमार भुंजिया के लोग विकास की मुख्यधारा से नहीं जुड़े है। वे आज भी अपनी प्राचीन पंरपरा और मान्यताओं के साथ पिछड़ेपन की जिंदगी जीने को मजबूर है। गरियांबंद जिले के कटेपारा के तीजू भुंजिया (58) पिता फुलसिंग भुंजिया ने बताया कि वे लोग अपने आवास के भीतर एक अलग से छिंद, खद्दर, बांस और मिट्टी का छोटा घर बनाते है। कमारों की परंपरा को विस्तार से बताने वाले तीजू ने बताया कि लाल बंगला को जलाने के बाद छूने वाले व्यक्ति द्वारा लाल बंगला का निर्माण कराया जाता है। यदि वह तैयार नहीं होता तो वे स्वयं इसे तैयार करते हैं। जब तक बंगला दोबारा नहीं बन जाता तब तक उनके परिवार का खाना पीना बंद रहता है। वे लोग लाल बंगला में देवी देवताओं को बिठाते है। देवी और देवताओं का पूजा करते हैं। छूरा ब्लाक के कमार भुंजिया जनजातियों के लिए शासन द्वारा 25 हजार रुपए प्रति एकड़ की दर पर जमीन देने का प्रावधान है, लेकिन कमार भुंजिया लोगों को कृषि योग्य जमीन पर्दान नहीं की जा रही है। ब्लाक में इन जातियों के लिए किए जा रहे विकास के सारे दावे खोखले नजर आते हैं।

बेटियों की शादी के बाद लाल बंगले में प्रवेश निशेष : पूर्वजों की परंपरा के अनुसार कमारों की बेटियों को शादी के बाद लाल बंगले में प्रवेश निषेध है। शादी के बाद जब वह मायके आती है तब उसका विशेष ख्याल रखती है। किसी कमार भुंजिया  की शादी ब्याह पर बेटी लाल बंगला में नहीं जाती वे इस परंपरा का निर्वाह जीवनभर करेंगे। साथ ही उनके आने वाली पीढ़ी भी इस परंपरा को निभाएगी। परिवार में किसी भी महिला के माहवारी आने पर बंगले को छु नहीं सकता। उस लाल बंगले के सामने अलग से अना हुआ मकान में गुजारा करते है। भुंजिया परिवार के लोग अपने निजी उपयोग में पीने अथवा उपयोग किए जाने पानी को नहर या नदियों या फिर कछार में छरिया बनाकर पानी निकालकर पानी उपयोग में लाते है।
जंगल से गांव की ओर : कमार भुंजिया जनजाति के लोग अपने आने वाली पीढ़ी को लेकर चिंतित हैं। वे जंगल से गांवों में जाकर बसते जा रहे हैं। वे अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा कर विकास की मुख्य धारा से जोड़ना चाहते हैं। हाट बजारों में किसी भी होटल या सार्वजनिक स्थानों में तेल से तली हुई वस्तुएं को सेवन नहीं करते है। स्वयं के द्वारा बनाएं ज्यादातर प्राय: बिना तेल के पसंद करते है। जंगली फलों को उपयोग में लाते हैं।
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10 रुपए के स्टांप पेपर पर बेटी का सौदा


जुर्माना भरना था तो 11 साल की बेटी बेच दी
नारायण बारेठ/जयपुर
bbc
अभी वो सावन के झूलों, मंदिर की घंटियों और सहेलियों के संग खेलने-कूदने की उमंग से सराबोर थी। लेकिन उसे मां ने ही पराये हाथों बेच दिया। मां और खरीदार में बेटी के लिए ऐसे सौदा हुआ जैसे कोई जमीन-जायदाद या गांव में मवेशी के लिए खरीद-फ़ररोख्त हो रही हो। बोली लगी और मां ने अपनी 11 साल की बेटी को बेच दिया। राजस्थान के टोंक में पुलिस ने मां, खरीदार और बिचौलिये को गिरफ्तार कर लिया है। सौदा दस रुपये के स्टाम्प कागज पर हुआ और भुगतान किस्तों में तय हुआ था। पुलिस के मुताबिक इसका भांडा तब फूटा जब बालिका ने इस सौदे का विरोध किया और बचने के लिए बस्ती से निकल भागी। बालिका का पीछा किया गया तो वो बचने के लिए एक होटल में घुस गई और फर्नीचर के पीछे छुप गई। इसे देख लोगों ने पुलिस को इत्तिला दी और इस खरीद-फरोख्त सामने आ गई।
पुलिस के मुताबिक, बालिका की मां झालावाड़ की रहने वाली है। बालिका के खरीदार के साथ मां को गिरफ्तार कर लिया गया है। टोंक के पुलिस मानव तस्करी विरोधी यूनिट के उप निरीक्षक राकेश वर्मा ने कहा कि न लोगों को अदालत में पेश किया गया है। अब ये 8 फरवरी तक पुलिस रिमांड पर हैं।  हम घटना की तह में जाने की कोशिश कर रहे है। वहीं लड़की की मां ने पुलिस को बताया कि पंचायत ने उस पर साढ़े चार लाख रुपये का जुर्माना लगाया था जिसके बाद उसने बेटी की बिक्री की क्योंकि उसे जुर्माने के लिए पैसे की जरूरत थी। महिला ने पुलिस को बताया कि उसने अपनी बेटी को सवाई माधोपुर में एक व्यक्ति के यहां 'नाते' बैठा दिया था। नाता राजस्थान में शादी की एक प्रथा है इसमें पुरुष महिला के बदले कुछ पैसा देकर शादी कर लेता है। मां अपनी बेटी को कुछ समय बाद ही सवाई माधोपुर से वापस घर ले आई। पंचायत ने इसे गलत माना और अर्थ दंड लगा दिया। इस हिसाब से लड़की दूसरी बार बिकी है। बेटी के लिए ऐसे सौदा हुआ मानो मवेशी के लिए खरीद-फ़रोख्त हो रही हो।
पुलिस को मिले दस्तावेज के मुताबिक सौदा साढ़े छह लाख में तय हुआ जिसकी पहली किश्त दो लाख रुपए 16 दिसंबर को दी गई। पुलिस को बालिका ने बताया कि मां का कलेजा नहीं पसीजा और उसे ख़रीदार को सौंप दिया गया। वे उसे कंजरी बस्ती ले आये और अनैतिक कार्य के लिए दबाव डालने लगे। उसके साथ मारपीट भी की गई। बालिका ने पुलिस को बताया कि उसे मुंबई में बेचने के बात की जा रही थी तभी वो भाग निकली। पुलिस के अनुसार बालिका सवारी ढोने वाली एक जीप में बैठ गई और किराया मांगा तो रोने लगी। तभी दोनों ख़रीदार उसे पकड़ने के लिए आ गए. उनसे बचने के लिए वो सड़क किनारे एक होटल में दाखिल हो गई। फिलहाल लड़की को बालिका-गृह में रखा गया है।
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सरकार ने हाईजैक कर ली नुक्कड़ की क्रांति


रू-ब-रू :डा. संजय जिवने


प्रसिद्ध नुक्कड नाट्य रंगकर्मी संजय जिवने से संजय स्वदेश की बातचीत


कर्ज में डूबे किसानों के कारण देश-दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचने वाले महाराष्टÑ के विदर्भ क्षेत्र में रंगमंच की समृद्ध परंपरा रही है। कभी विदर्भ में करीब दो दर्जन से ज्यादा रंगमंच की संस्थाएं सक्रिय रहीं। लेकिन जैसे-जैसे समाज बदला। रंगमंच के रंग काफूर होते चले गए। कुछ कलाकार समाज की बदलती नब्ज को भांप कर मुंबई जा कर चकाचौंध की दुनिया में खो गए। अब कागजों में दो चार संस्थाएं सक्रिय हैं। कभी मौके-बे-मौके साल में दो चार नाटकों के मंचन भी दिख जाता है। ऐसे मौके पर आने वाले पुराने दर्शक नष्ट हो चुके समृद्ध रंगमंच की परंपरा को याद कर लेते हैं। इसी समृद्ध परंपरा में एक नाम संजय जिवने का हैं। बीते चार दशक से संजय जीवने नुक्कड पर नाटकों से क्रांति की अलख जगा रहे हैं। श्री जिवने समाज के दबे-कुचले शोषित और वंचित वर्ग समस्याओं की विषयवस्तु के साथ ही अभिनय का ऐसा ताना बना बुनते हैं कि नुक्कड़ के दर्शकों के दिल में अमिट छाप छोड़ देते हैं। उनके अदंर की संवदेनाओं में हिलोरे आने लगती हैं। नाटक से उभरने वाली संवदेना दर्शकों के मन में सार्थक जीवन के लिए कितनी झकझोरती है, इसकी चिंता उन्हें नहीं है। श्री जिवने कहते हैं कि कुछ दर्शक नाटक के विषय वस्तु से दिल में उभरी टीस को नुक्कड़ पर ही छोड़ आगे बढ़Þ जाते हैं तो कुछ समाज में सार्थक करने का संकल्प ले लेते हैं। पर इससे समाज में बदलावा की गति बहुत मंद तो हैं, लेकिन प्रभावी है।  यह सब चलते रहता है। बदली जीवन शैली में वे समाज को जगाने का संकल्प लेकर अपना दायित्व बखूबी निभाने में लगे हैं। गत दिनों नागपुर में उनसे नुक्कड़ नाटकों पर लंबी चर्चा हुई। प्रस्तुत है डा. संजय जिवने से हुई बातचीत के कुछ प्रमुख अंश :-

प्रश्न -वर्तमान समय में देश में नुक्कड़ नाटकों की क्या स्थिति है
उत्तर
-आज नुक्कड़ नाटक हैं कहां, जो हैं, उसे सरकार ने हाईजैक कर रखा है। जो लोग इससे जुड़े हैं, उसमें से अधिकतर सरकार के लिए ही काम कर रहे हैं। वे अधिकांश समय इसी गुणा-गणित में व्यस्त रहते हैं कि किस विषय वस्तु पर नुक्कड़ नाटक की परियोजना बने और सरकार उसे मंचन के लिए प्रायोजित करें। धन मिले। कई बार सरकारी परियोजनाओं पर नजर रख कर उसके अनुरूप विषय वस्तु तैयार कर अनुदान खाने के लिए काम किया जाता है। यही कारण है कि आज कही किसी नुक्कड़ पर कोई नाटक दिखता है तो उसका विषय वस्तु इतना सहज होता है, तो दर्शक उसे मनोरंजन की तरह लेते हैं। यदि कोई स्वतंत्र रूप से समाज को जगाने के लिए ऐसा कुछ कर रहा है तो उस पर सरकार की बंदिशे हैं। महाराष्टÑ में तो यह स्थिति है कि यदि नुक्कड़ पर नाटक का मंचन करना है तो सेंसर बोर्ड से आपको अनुमति लेनी पड़ेगी। फिर जब वहां आवेदन जाता है तो स्क्रीप्ट में तरह-तरह की खामियां निकाली जाती हैं। उसे निकालने को कहा जाता है। इससे कई बार अंर्तवस्तु कमजोर पड़ जाती है। नाटक उद्देश्य से भटक जाता है। यह सरकार की नकेल है।

प्रश्न- तो क्या आज नुक्कड नाटक अपने उद्देश्य से भटक गया है?
उत्तर-
जाहिर सी बात है, जब सरकार किसी नाटक को प्रायोजित करेगी तो उसका विषय वस्तु भी सरकार का ही होगा। इसलिए ऐसे नुक्कड़ नाटकों का ठेका लेने वाले उसी विषय वस्तु को तय करते हैं जिससे केवल सरकार का उद्देश्य भर पूरा हो सके। लेकिन ऐसे नाटकों में विषय समग्रता के साथ साकार नहीं हो पाते हैं। उसकी प्रस्तुति गंभीर नहीं हो पाती। हल्के से चुटिले अंदाज में प्रस्तुति भर से इतिश्री हो जाती है। दरअसल नुक्कड़ नाटक एक क्रांति हैं, थोड़े समय में चुनौतिपूर्ण अभिनय के माध्यम से जनता को जगाना महान उद्देश्य है, इसे कमाई का साधन बनाने से इसका उद्देश्य खत्म हो जाता है। जब उद्देश्य महान हो तो उसकी कार्यशौली भी पाक साफ होनी चाहिए। प्रायोजित नाटकों से महान उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो सकती है।

प्रश्न-कई कलाकार कहते हैं कि यदि समुचित सुविधा उपलब्ध कराई जाए तो मृत होती इस कला में नई जान आ सकती है?
उत्तर-
नुक्कड़ नाटकों के लिए किस तरह की साधन और सुविधा की जरूरत है? क्या इसके मंचन के लिए संगीत और रोशनी के तकनीकी साधनों से लैस प्रेक्षागृह की आवश्यकता है या अभ्यास के लिए किसी जगह की? यह सब बहाने हैं। जगह और साधन की बात छोड़िए। यदि अंदर आग है तो स्पेश अपने आप मिल जाता है। समाज बदल चुका है। लोगों की सोच बदल चुकी है। यह समाज स्वयं आगे आकर कोई स्पेश और साधन नहीं देगा। यदि साधन मिल भी जाए तो इस बात की क्या गारंटी है कि नुक्कड़ नाटकों में धार आ जाएगी।

प्रश्न- बिना अनुदान या अन्य किसी तरह के सहयोग या साधन के आभाव में आज नुक्कड़ नाटकों की सफलता कैसे संभव है?
उत्तर-
आप सार्थक उद्देश्य से नाटक का मंचन करना चाहते हैं तो आपको न फंड की जरूरत है और न ही किसी साधन की। इसका जीता जागता उदाहरण मैं स्वयं हूं। 1978 से भूखे प्यासे नुक्कड़ पर समाज को जगाने का अभियान जारी है। ऐसा यह संभव इसलिए क्योंकि इसे मैंने सोए हुए समाज को जगाने के लिए अपनी जिम्मेदारी समझा। लेकिन सबसे ऐसा जज्बा नहीं होता है। जैसे जैसे लोगों के जीने का तरीका बदला, आदर्श बदले इसका असर इस कला पर भी पड़ा। इससे जुड़े अनेक कलाकारों ने मूल्यों से समझौता किया। लेकिन जिन्होंने परिस्थितियों से हार कर मूल्यों से समझौता किया, वे समाज को नहीं जगा पाए।
प्रश्न- आजकल नुक्कड़ नाटकों के लिए स्क्रीप्ट कौन लिखता है? इसकी क्या स्थिति है?
उत्तर-
स्क्रीप्ट की क्राइसिस पहले भी थी और अब भी है। यह सब चलते रहता है। मुख्यधारा के रंगमंच में भी यही हाल है। इसी क्राइसिस के बीच-बीच में बेहतरीन स्क्रीप्ट आते रहते हैं। जिन कलाकारों के पास अपना विजन (दृष्टिकोण) हैं, अधिकर स्क्रीप्ट वे स्वयं ही तैयार कर लेते हैं।
प्रश्न -आपके अधिक३ंर नाटक दलित समस्याओं के इर्द-गिर्द घुमती है? क्या आपने सुनियोजित तरीके से रंगमंच के इस विधा को दलित श्रेणी में बांटा?
उत्तर-
देश में जब कम्युनिस्ट आए, तब उन्होंने बड़े ही जोर-शोर से शोषितों के दर्द को मुद्दा बनाया। लेकिन वे यह नहीं समझ सकें कि भारत की असली समस्या क्या है? मूल्यों पर खूब थिएटर हुए। वे कहने के लिए प्रोगे्रसिव  रहे हैं, पर वास्तविक विषय से दूर रहे। यहां अंतिम आदमी का कोई सरोकार नहीं था। हमारी बात ही नहीं, सवाल नहीं, विषय नहीं, संघर्ष नहीं। तभी मन में यह दृढ़ता आई कि हम लोग दलित नुक्कड़ नाटकों को अलग से खड़ा करें। हमने समाज के समस्या को स्वयं भोगा था। दर्द को महसूस किया था। इसलिए लगा कि इस समाज के विषयों को लेकर उनके बीच ही जाना चाहिए और उनके मन का भ्रम तोड़ना चाहिए, जिससे कि वे सार्थन जीवन जी सकें। इसलिए हम लोगों ने अपने समाज के विषयों को अपने मंचन का विषय चुना। जब दलित मुद्दे को उठाया तो लोग हंसते थे। लेकिन आज सीरियस हैं। आज पीठ पीछे भले ही कुछ भी कहते हों, लेकिन सामने नहंी हंस सकते हैं। उन्हें मालूम है कि जाति समाज में अस्तित्व में है। यह देश की हकीकत है। इन विषयों से विमुख होकर समस्या का समाधान केसे किया जा सकता है। यही कारण है कि दलित नुक्कड नाटकों को अलग करना पड़ा।

प्रश्न-नुक्कड़ नाटकों से जुड़ने की आपकी प्रेरणा कहां से और कैसे मिली?
उत्तर-
1978 में महाराष्टÑ के मराठा विश्वविद्यालय का नाम बदल कर बाबा साहब के नाम पर करने का संघर्ष चला। इसके लिए हजारों लोग सड़ पर उतर गए। दलित तबके ने संघर्ष किया। गोली खाई। शहीद हुए। बलिदान दिए। अनेक युवाओं की शिक्षा गई। नौकरी छूटी। उसी वक्त लगा कि दलित समाज को जगाने के लिए नुक्कड़ नाटक को माध्यम बनाने का यह सही वक्त है। यही प्रभावकारी शास्त्र है। तब से जो सिलसिला शुरू हुआ वह आज भी जारी है।

प्रश्न- नुक्कड़ नाटकों का आज समाज पर क्या असर है? इस कला से पूर्णकालीन जुड़ने के कारण आपके निजी जीवन पर क्या असर पड़ा?
उत्तर
-नुक्कड़ नाटकों का प्रभाव बहुत धीमी गति से पड़ता है। पर यह प्रभावी ढंग से काम करता है। शोषित वर्गों के लिए यह काम आ सकता है। पूरे परिवार के साथ इसमें जुड़े हुए हैं। बिना बलिदान दिए कुछ नहीं मिल सकता है।

प्रश्न-अब तक कितने नुक्कड़ नाटक लिखे। कितने मंचन किए। दूसरे क्षेत्रों में मंचन में भाषा की कितनी समस्या हुई?
उत्तर-
देश के हर राज्यों के अलावा विदेशों में भी हजारों नाटक का मंचन किया। करीब 100 से ज्यादा नाटक लिखा।  देश और देश के बाहर तक मंचन किया। एशिया के अलावा यूरोपिय देशों में भी मंचन का मौका मिला। लेकिन हमेंभाषा को लेकर कभी कोई समस्या नहीं आई। क्योंकि हमारा विषय है पीड़ित, वंचित और शोषित वर्ग। इस वर्ग के लिए भाषा कभी बाधा नहीं हो सकता है। क्योंकि शोषण और  भूख की कोई भाषा नहीं होती है।

प्रश्न-आज दलित समाज को जगाने के लिए नुक्कड़ पर क्रांति की अलख जगा रहे हैं, तो इस समाज के समाजिक और आर्थिक रूप से मजबूत लोगों से कितनी अपेक्षा होती है और कितना सहयोग मिलता है?
उत्तर-
समाज के जिन लोगों ने मूवमेंट देखा है। स्वयं इसमें हिस्सा लिया और और उसके बाद समाज और शासन में कोई पद या प्रतिष्ठा प्राप्त की है, वे तो सतर्क हैं। लेकिन क्रांति के लिए सड़क पर लड़ने वाले आम आदमी आदमी होता है। मीडिया और हमारे समाज के ही अपर क्लास से बस इतनी ही अपेक्षा है कि वे हमे कुछ दे नहीं सकते तो बस सपोर्ट भर करें और जिन्हें चमड़ी बचनी है उससे उम्मीद भी  नहीं है। ऐसे लोगों से आंदोलन अड़ता भी नहीं है।

प्रश्न-जो लोग दलित नुक्कड़ नाटकों से जुड़े हैं, उसके लिए क्या कहना चाहेंगे?
उत्तर-
ग्लोबलाजेशन, निजीकरण के परिणाम सार्थक उद्देश्य को निगल रहे हैं। जो इससे जुड़ें हैं, वे थोड़ा और गंभीर हो जाए। जिनके अंदर थोड़ी सी भी बचैनी हैं, उन्हें आंखों में तेल डाल कर जिम्मेदारी लेनी चाहिए। आज बदलते दौर में आदमी अनेक ऐसी समस्याओं से घीर चुका है कि वह आत्महत्या जैसे कदम उठा रहा है। उसे सही जगह पर लाना पड़ेगा।
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कायरों, कामुकों के लिए नहीं है वेलेन्टाइन डे



अगर कोई पुरुष प्रेमी प्रेम के अधिकार का पक्षधर है तो इसे यही अधिकार अपनी बहनों को भी देना पड़ेगा, पर जो प्रेमी अपनी बहनों को घरों में कैद करके यह अधिकार नहीं देना चाहते और स्वयं लेना चाहते हैं वे साधारण से लम्पट और कामुक हैं और उनका प्रेम किसी विचारपूर्ण निष्कर्ष का हिस्सा नहीं है। इस दोहरेपन के लिए भी वे पिटने के पात्र हैं। 
वीरेन्द्र जैन
हर वर्ष की भांति एक बार फिर वेलैंटाइन डे आ गया है और एक बार फिर कार्ड बेचने वाले कार्ड बेच रहे हैं, गुलदस्ते बेचने वाले गुल्दस्ते और फूल बेच रहे हैं, अखबार वेलैंटाइन संदेश छापने के नाम पर विज्ञापनों का धंधा कर रहे हैं। लेकिन एक बार फिर भारतीय संस्कृति को न समझने वाले किंतु उसके नाम पर धंधा करने वाले कई राज्यों में अपनी गुंडा टोली लेकर निकलेंगे और युवा प्रेमी प्रेमिकाओं के मुँह पर कालिख मलेंगे और मारपीट करेंगे।
व्यक्तिगत स्वतंत्रता की हत्या करने वाले इन गुन्डों की सुरक्षा भाजपा शासित राज्य की पुलिस करेगी। एक बार फिर कायर बुद्धिजीवी अपने अपने सुविधा घरों में बैठ कर अखबारों में बयान देंगे। हर वर्ष की तरह यह संदेश भी दिया जाएगा कि- संत वेलैंटाइन भारत के नहीं थे तो क्या प्रेम के संदेश पर उनका कापी राइट हो गया, जबकि राधाकृष्ण की प्रेम कथाओं से लेकर कामसूत्र और खजुराहो जैसी मंदिर की दीवारों पर अंकित मूर्तियाँ तो हमारी ही बपौती हैं।
यदि नई आर्थिक नीति के वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण के प्रभाववश हम इस दिन को बसंत पंचमी, होली या अन्य किसी हिन्दू त्योहार की जगह उस कलेंडर के हिसाब से मनाने लगते हैं जिसके अनुसार हमारे सारे कामकाज चल रहे हैं तो क्या प्रेम का अर्थ बदल जाएगा! सच तो यह है कि इस दिन मनाने से इसकी संकीर्णता दूर होकर यह जाति धर्म, भाषा और राष्ट्र तक की सीमाओं से मुक्त होता है और विश्वबन्धुत्व तक पहुँचता है। आज प्रत्एक मध्यम वर्गीय परिवार रंगीन टीवी, डीवीडी प्लेयर या सिनेमा हाल में जो फिल्में देख कर खुश होता है और सपरिवार ताली बजाता है उनमें से नब्बे प्रतिशत में प्रेम कहानी ही होती है। यह सन्देश रोज रोज हर घर में पहुँच रहा है किंतु उससे किसी को कोई शिकायत नहीं होती।
वेलैंटाइन डे पर इन प्रेमियों को पिटना ही चाहिए क्योंकि वेलैंटाइन डे कायरों कामुकों और नपुंसकों के लिए नहीं होता है। वे जिन फिल्मों को देख कर जीभ लपलपा लड़कियों के पीछे चक्कर लगाते हैं उनसे वे फैशन और अदाएं तो सीखते हैं किंतु यह नहीं सीखते कि फिल्म का हीरो एक सुडौल देह का स्वाभिमानी पुरुष होता है और वह अपनी प्रेमिका की ओर उंगली उठाने वाले गुण्डों के हाथ पैर तोड़ देने में स्वयं को घायल करा लेने से लेकर जान की बाजी लगा देने में भी पीछे नहीं रहता। यह कैसा लिजलिजा दृष्य होता है कि चन्द भगवा दुपट्टाधारियों के डर से ए तथाकथित प्रेमी या तो उस दिन बाहर ही नहीं निकलते या चुपचाप अपनी प्रेमिका का अपमान बर्दाश्त करते रहते हैं और पिटते हुए संघर्ष भी नहीं करते। ऐसे प्रेमी पिटने ही चाहिए।  
दूसरी बात यह कि अगर कोई पुरुष प्रेमी प्रेम के अधिकार का पक्षधर है तो इसे यही अधिकार अपनी बहनों को भी देना पड़ेगा, पर जो प्रेमी अपनी बहनों को घरों में कैद करके यह अधिकार नहीं देना चाहते और स्वयं लेना चाहते हैं वे साधारण से लम्पट और कामुक हैं और उनका प्रेम किसी विचारपूर्ण निष्कर्ष का हिस्सा नहीं है। इस दोहरेपन के लिए भी वे पिटने के पात्र हैं।   
जब भी समाज बदलता है तो पुराने समाज को नियंत्रित कर उसे अपने हित में बनाए रखने वाले लोग किसी भी परिवर्तन का विरोध करते हैं। वे एक संगठित संस्था का बल रखते हैं इसलिए इक्कों दुक्कों पर भारी पड़ते हैं। ए वेलंटाइन डे मनाने वाले स्वयं इतने अपराधबोध से ग्रस्त रहते हैं कि न तो वे अपना कोई संगठन ही बनाते हैं और ना ही अपने जैसों की मदद ही करते हैं। इसलिए ए पिटते हैं और हर वर्ष की भांति पिटते ही रहेंगे जब तक कि गुंडों को उन्हीं की भाषा में जबाब नहीं देते।
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घड़ी बचाएगी औरत की आबरू


विस्फोट न्यूज नेटवर्क
जिस देश में महिलाओं की स्थिति सोमालिया से भी बदतर हो उस देश में बलात्कार जैसी समस्या से कैसे निजात पाया जा सकता है? दुनिया के कुछ गैर सरकारी संगठनों का अध्ययन है कि दुनिया में पांच देश ऐसे हैं जहां महिलाओं की दशा सबसे दयनीय है। रायटर समर्थित एक गैर सरकारी संस्था ट्रस्ट लॉ ने साल भर पहले जो आंकड़े जारी किए थे उसमें बताया था कि महिलाओं के प्रति अत्याचार के मामले में भारत ने सोमालिया को भी पीछे छोड़ दिया है। बीते दिसंबर महीने में दिल्ली में हुई बलात्कार की जघन्य घटना ने इन आशंकाओं और अध्ययनों को बल दिया है कि वास्तव में भारत में महिलाओं के प्रति पुरुषों की मनोदशा 'ठीक नहीं है'। ऐसे में और उपायों के साथ साथ भारत सरकार एक ऐसी घड़ी विकसित कर रही है जो महिलाओं पर किए जाने अत्याचार के वक्त उनकी सुरक्षा करेगी।
भारत के संचार मंत्री कपिल सिब्बल ने पिछले हफ्ते इस संबंध में जो जानकारी सार्वजनिक की है उसके मुताबिक भारत सरकार का संचार मंत्रालय इस दिशा में गंभीर प्रयास कर रहा है। सस्ते आकाश टेबलेट को लांच करने के बाद अब संचार मंत्रालय इंडियन टेलीफोन इंडस्ट्रीज (आईटीआई) और सीडैक के सहयोग से एक ऐसी घड़ी विकसित करने की कोशिश कर रहा है जो किसी महिला पर अत्याचार के वक्त महिला की तत्काल मदद करेगा।
असल में इस घड़ी में जीपीएस सिस्टम लगाया हुआ होगा जिसके जरिए महिला की ओर से शिकायत का संदेश मिलते ही तत्काल महिला के लोकेशन का पता कर लिया जाएगा। शिकायत करने के लिए भी महिला को न तो कोई फोन करना है और न चिल्लाकर मदद मांगनी है। घड़ी में लगी एक बटन को दबाते ही एक साथ कई काम को अंजाम दे दिया जाएगा। पहला काम यह कि घड़ी अपने आप एक एसएमएस स्थानीय पुलिस थाने को भेजेगा, साथ ही एक एसएमएस उस व्यक्ति को जाएगा जिसका नाम महिला ने पहले से अपनी लिस्ट में शामिल कर रखा होगा। जिसके बाद पुलिस जीपीएस के जरिए उस महिला के लोकेशन का पता करके उसे ट्रेस कर सकेगी और संकटग्रस्त महिला की मदद कर सकती है, साथ ही परिवार या निकट के व्यक्ति को संदेश मिलने पर वह भी महिला की मदद के लिए प्रयास शुरू कर सकता है। इसके साथ ही इस जादुई घड़ी में एक वीडियो रिकार्डर भी लगा होगा जो 30 मिनट का वीडियो रिकार्ड करके डेटा सुरक्षित रख सकेगा। इस घड़ी को दो संस्करण में पेश किया जाएगा जिसकी कीमत 1,000 और 3,000 रखे जाने का अनुमान है। कपिल सिब्बल का कहना है कि इस साल के मध्य तक घड़ी का प्रोटोटाइप तैयार हो जाएगा और उम्मीद करनी चाहिए कि साल के आखिर में यह घड़ी बाजार में उपलब्ध भी हो जाएगी।

एक कोठे पर क्रांति का अर्थशास्त्र


यहां काम करने वाली वेश्याएं औसतन महीने में एक लाख रुपए कमाती हैं और इसका बड़ा हिस्सा वे बच्चों की पढ़ाई पर खर्च कर रही हैं। उनके बच्चे महंगे स्कूलों में और ऊंची शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं।

एक कोठे की मालकिन ने बताया कि यहां पर काम करने वाली एक वेश्या महीने में कम से कम एक लाख रुपए कमाती है। यहां वेश्यावृत्ति शुरू करने की औसतन उम्र 13 साल है और रिटायरमेंट की औसत उम्र 30 साल है। 17 साल में वेश्याएं दो करोड़ रुपए से भी ज्यादा कमाती हैं।

मेरठ। मेरठ के कबाड़ी बाजार स्थित वेश्यावृत्ति कारोबार में क्रांतिकारी परिवर्तन देखने को मिल रहा है। यहां पर काम करने वाली डेढ़ हजार से भी ज्यादा वेश्याओं के बच्चे देश के नामी गिरामी स्कूलों में पढ़ रहे हैं। इतना ही नहीं, एक कोठे की मालकिन की तो सबसे रोचक कहानी निकलकर आई है। फिलहाल वह जिंदा नहीं हैं, पर उनकी जगह कोठा देख रही नई मालकिन का कहना है कि उन्होंने अपने दोनों भाइयों को यहीं पर काम करके पढ़ाया लिखाया। आज उनका एक भाई मध्य प्रदेश में आईपीएस है और दूसरा भाई उत्तर प्रदेश में वेटनरी डॉक्टर है।
वेस्ट यूपी में सबसे बड़ा वेश्यावृत्ति का ठिकाना कबाड़ी बाजार को माना जाता है। कबाड़ी बाजार में साठ से भी ज्यादा कोठे हैं। इनमें से एक कोठे की मालकिन बताती हैं कि फिलहाल बाजार में 1100 से 1500 के बीच में वेश्याएं हैं। इनमें पचास फीसदी वेश्याएं पारंपरिक रूप से वेश्यावृत्ति करती आ रही हैं। एक मूल रूप से राजस्थान की हैं। बाकी वेश्याओं में नेपाल, बंगाल, उड़ीसा आदि क्षेत्रों से तस्करी करके लाई गई लड़कियां हैं।
इन वेश्याओं के बीच काम करने वाली संकल्प संस्था की अध्यक्ष अतुल शर्मा बताती हैं कि जिन वेश्याओं ने यहां काम करना स्वीकार कर लिया है, उनमें से किसी के भी बच्चे सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ते। मेरठ के टॉप स्कूलों में, जहां अच्छी डोनेशन देने वालों के बच्चों का एडमीशन नहीं होता है, इनके बच्चे उन स्कूलों में पढ़ते हैं। इतना ही नहीं, इनके बच्चे देश के सबसे अच्छे स्कूलों में पढ़ रहे हैं। उनका दावा है कि इस वक्त यहां रहने वाली सभी वेश्याओं के बच्चे अच्छी पढ़ाई कर रहे हैं। इतना ही नहीं, एक दो के बच्चे तो एमटेक और एमबीए करके मल्टी नेशनल कंपनियों में काम कर रहे हैं।
एक कोठे की मालकिन के मुताबिक उसे रोज पुलिस को छह सौ रुपए देने होते हैं। यह रकम कोठे पर काम करने वाली लड़कियां अपनी कमाई में से इकट्ठा कर देती हैं। इसके अलावा हर लड़की को रोज 300 रुपए पुलिस को और 300 रुपए कोठे का किराया देना होता है। एक कोठे पर औसतन 10 से 12 लड़कियां काम करती हैं।
मेरठ के कबाड़ी बाजार की जिस्म मंडी में देह की कीमत 400 रुपए से लगनी शुरू होती है। कोठे की मालकिनों के मुताबिक इन लड़कियों के ग्राहक ज्यादातर निम्न वर्ग से होते हैं। अक्सर सादी वर्दी में सेना के लोग भी आते हैं। कबाड़ी बाजार से बाहर ले जाने के लिए भी लड़कियों की बुकिंग होती है। बुकिंग रेट 1200 रुपए से 2000 रुपए तक होता है, लेकिन 30-40 हजार रुपए की सिक्योरिटी जमा करनी होती है, जो बाद में वापस हो जाती है।
30 साल की जरीना (काल्पनिक नाम) के बच्चे की उम्र 17 साल हो गई है। वह बंगाल से तस्करी करके लाई गई थीं, पर यहीं बस गईं। उनका बच्चा पूना में बीटेक करने लगा है। जरीना कहती हैं कि उनका ख्वाब है कि उनका बच्चा आईएएस बने। इसके लिए कितना भी पैसा लगे, अच्छी से अच्छी कोचिंग हो, पर ख्वाब पूरा होना चाहिए। जरीना अकेली नहीं हैं। ऐसे ख्वाल देखने वाली अनेक वेश्याएं हैं।
यहां सभी कोठों के बीच एक सीढ़ी भर का ही फासला है। और सीढ़ी भी इतनी संकरी कि एक बार में एक ही व्यक्ति इसका प्रयोग कर सकता है। एक कोठे की मालकिन ने बताया कि यहां पर काम करने वाली एक वेश्या महीने में कम से कम एक लाख रुपए कमाती है। यहां वेश्यावृत्ति शुरू करने की औसतन उम्र 13 साल है और रिटायरमेंट की औसत उम्र 30 साल है। 17 साल में वेश्याएं दो करोड़ रुपए से भी ज्यादा कमाती हैं।
संकल्प संस्था की अध्यक्ष अतुल शर्मा कहती हैं कि दरअसल इनके बच्चों की पढ़ाई ही इनका रिटायरमेंट प्लान है। इनमें से कुछ तो शादी भी करने लगी हैं। अभी हाल ही में यहां काम करने वाली एक लड़की ने अपनी बच्ची के पिता से शादी कर ली। सबसे अच्छी बात तो यह है कि अब कोई यह नहीं कह सकता है कि वेश्याओं के बच्चों के बाप का नाम नहीं पता। ये लोग इतनी सावधानी बरतती हैं कि इन्हें पता होता है कि उनके गर्भ में पल रहे बच्चे का पिता कौन है। यहां पर पिछले पांच सालों में जन्मे सभी बच्चों का जन्म प्रमाण पत्र है जिसमें उनके पिता का नाम दर्ज है।  - दैनिक भास्कर.कॉम से साभार

Wednesday, 2 January 2013

Tuesday, 1 January 2013

सांप, बिच्छू, मेढ़क के जहर इज्जत की हिफाजत

आत्मरक्षा
नागकन्या, नागलोक आदि की कहानियां पुराणों, लोकगाथाओं में भरी पड़ी हैं। इनका ऐतिहासिक प्रमाण मिले न मिले, झारखंड के संथाल परगना इलाके में तो आज भी नाग कन्याएं निवास करती हैं। इन संथाली आदिवासी बालाओं को यहां नाग कन्या के तौर पर ही माना जाता है। ये बालाएं अपने दुश्मनों के लिए ठीक उसी तरह खतरनाक हैं जैसे की चोट खायी हुई नागिन।
झारखंड के संथाल परगना इलाके आदिवासी लड़कियां अपने आबरु की हिफाजत के लिए खतरनाक जहर रखती है। इनके पास ऐसा जहर है जो जहरीले सांप, जहरीले बिच्छू और जहरीले मेंढ़क से निकाले गये हैं। इस जहर में स्थानीय लोहार तीर और छोटे नस्तर को बड़ी बारीकी से पिरोते हैं। ताकि ऐसे नस्तर में परत दर परत जहर पूरी तरह समा जाये। ऐसा करने पर ये नस्तर और तीर इतने जहरीले हो जाते हैं कि जिस्म पर लगते ही पूरा शरीर पंगु हो जाता है।
हैरत की बात यह है कि आदिवासी ऐसे जहर को कहीं बाहर से नहीं मंगवाते बल्कि खुद जंगलों में ही जहरीले सांपों का शिकार कर तैयार करते हैं। आदिवासियों का सबसे पसंदीदा सांप करैत, गेहुमन और खरीश है जो आज भी इन आदिवासी इलाको में खूब मिलता है। वैसे कभी-कभी सपेरों की सहायता से भी ये लोग जहर निकालते हैं। इलाके के लोग बताते हैं कि सांप के जहर को गर्म कर इसे बनाया जाता है। यह हाथ से छूने पर खतरनाक है। जहरीले तीर का इस्तेमाल आदिवासी जंगल में रहने वाले खतरनाक जानवरों से अपने आपको बचाने के लिए सदियों से करते रहे हैं। यहां एक नन्हा नस्तर भी इनके पास रहता है। यह जितना छोटा है उतना ही खतरनाक भी। ये नस्तर आदिवासी लड़कियां अपने पास रखती है। ताकि किसी भी तरह की विपदा में वो इसका इस्तेमाल कर सकें।
सुबह होते ही इन आदिवासी लड़कियों का अधिकतर समय जंगलों में ही गुजरता है। लकड़ी काटने से लेकर पत्ते चुनने तक में। ऐसे में इन सुदूर जंगलों में कब इनकी अस्मत खतरे में पड़ जाये कहा नहीं जा सकता है। आदिवासी लड़की कामिनी बेसरा कहती है कि जब वे जंगल जाती हैं तो उनके पास इस छोटे नस्तर रहने से डर नहीं लगता। वो अपने को हथियारों से लैस समझती हैं। ऐसे में वो इसी नस्तर से अपना बचाव करती हैं। आम तौर पर ये आदिवासी लड़कियां इस नस्तर को या तो कमर में छिपा कर रखती हैं या फिर ताबीज की तरह ही अपने बाजु या गले में बांध कर रखती है। ताकि किसी भी समय निकालने में आसानी हो। ये नस्तर पर चढ़ा खतरनाक जहर का एक वार ही पूरे शरीर को शिथिल कर देने के लिए काफी है। यही वजह है की झारखंड के संथाल परगना में संथाली बालाएं नाग कन्या बनी फिरती हैं। नि:संकोच जंगलों में घूमने वाली ये लड़कियां थी उसे तरह सरसराती हुई जंगलों को छानती हैं जैसे की मस्त नागिन हों। ऐसे में किसी की मजाल नहीं कि कोई इनके पास आने की हिमाकत कर सके।
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देह शोषण को लाल सलाम

कभी सामंतवादी व्यवस्था के खिलाफ युद्ध के नाम पर शुरू हुआ नक्सली आंदोलन अपने ही संगठन में नारी देह के भंवर में फंस गया है। सामंतों के महिलाओं पर यौन उत्पीड़न की जो घटनाएं पहले सुनी जाती थी, आज वैसा ही कुछ नक्सली संगठन में शामिल महिलाओं के साथ हो रहा है। वे अपने ही साथियों की हवस का शिकार हो रही है। या यूं कहें तो नक्सली आंदोलन के कार्यकर्ता हवस की आग में जल कर न केवल अपने ही महिला साथियों से जबरदस्ती सेक्स की भूख मिटा रहे है। बल्कि आदिवासी इलाकों के लड़कियों का भी जबरन देह शोषण कर रहे हैं। महिलाएं मजबूर है, न विरोध कर पाती हैं और न हीं संगठन छोड़ समाज की मुख्यधारा से जुड़ने की हिम्मत जुटा पा रही है।
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आदिवासी बच्चियों का यौन शोषण कर रहे नक्सली
-सुरक्षाकर्मियों को फांसने के लिए किया स्वीट-प्वाइजन का गठन

संजय स्वदेश

छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले की पुलिस ने मद्देड़ थाना क्षेत्र में 11 और 12 वर्ष की दो ऐसी नाबालिग लड़कियों का मामला दर्ज किया, जिसकी अस्मत के साथ नक्सलियों ने खिलवाड़ किया। दोनों लड़कियों ने नक्सली सदस्य कुड़ियम गुज्जा, नागेश और शिवाजी पर शारीरिक शोषण करने का आरोप लगाया है। ये लड़कियों पुलिस को तब हाथ लगी जब जिला पुलिस बल और केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) का सयुंक्त दल मद्देड़ क्षेत्र में गस्त और खोजी अभियान के लिए रवाना हुआ था। क्षेत्र में गांव से लगे जंगल में पुलिस दल को ये दो नाबालिक लड़कियां मिली। पुलिस द्वारा पूछताछ पर लड़कियों ने बताया कि नक्सली मुड़ियम गुज्जा और उसके साथी उन्हें जबरदस्ती अपने साथ ले गये थे तथा जंगल में कुड़ियम गुज्जा, नागेश और शिवाजी ने जबरन उनकी आबरु को तार-तार किया। दोनों लड़कियों ने यह भी खुलासा किया कि उनके देह शोषण का सिलसिला काफी समय से चल रहा था। नक्सली उन्हें गांव आकर ले जाते हैं। उनसे काम करवाते है तथा डरा-धमका कर जबरन शारीरिक संबंध बनाते हैं। परिवार वालों के द्वारा मना करने पर उन्हें जान से मार डालने अथवा गांव से निकाल देने की धमकैी देते हैं। लड़कियों ने बताया कि वे अपने गांव वापस नहीं जाना चाहती हैं तथा वे कभी स्कूल नहीं गई है अब आश्रम में रहकर पढ़ना चाहती है। जिला के पुलिस अधीक्षक प्रशांत अग्रवावल कहते हैं कि लड़कियों द्वारा इसकी जानकारी देने के बाद पुलिस दल ने उन्हें सुरक्षित बीजापुर पहुंचाया तथा उनकी रिपोर्ट पर दो नवंबर को नक्सलियोंं के खिलाफ मामला दर्ज किया गया। दोनों लड़कियों की  मेडिकल जांच में उनके शारीरिक शोषण किए जाने की पुष्टि हुई। जिला पुलिस अधीक्षक ने बताया कि पूछताछ के दौरान लड़कियोंं ने जानकारी दी है कि उनके जैसी और भी कई लड़कियां हैं जिन्हें गांव से नक्सली अगवा कर अपने साथ ले जाते हैं तथा उनका शारीरिक शोषण करते हैं। लड़कियोंं के माता पिता द्वारा इसका विरोध किये जाने पर उन्हें गांव से बाहर निकाल देने की धमकी देते हैं। नक्सलियों ने गांव वालों को लड़कियों को पढ़ाने के लिए मना किया हुआ है। फिलहाल पुलिस ने दोनों लड़कियों के पुर्नवास और शिक्षा के लिए समुचित व्यवस्था कर रही है।
मासूम लड़कियों के यौन शोषण की यह हकीकत तब सामने आई जब पुलिस ने उन्हें पकड़ा। छत्तीसगढ़ के नक्सली इलाकों की हकीकत यह है कि नक्सल इलाकों में आदिवासियों की बेटियां नहीं पढ़ पा रहीं। घरों में कैद इन नन्ही जानों पर नक्सलियों का कहर बरप रहा है। नक्सली न केवल इनका यौन शोषण कर रहे हैं बल्कि इन लड़कियों का इस्तेमाल नक्सली क्षेत्र में तैनात सुरक्षाकर्मियों को फंसाने के लिए भी प्रशिक्षित कर रहे हैं।
केंद्रीय गृहमंत्रालय को मिली सूचना के अनुसार नक्सली 12 से 16 साल की लड़कियों का इस्तेमाल जहां सुरक्षाकर्मियोंं को फंसाने के लिए प्रशिक्षित कर रहे हैं वहीं नक्सली नेता इनका यौन शोषण भी कर रहे हैं। लड़कियों को नहीं भेजने वाले परिवार को जान से मारने की धमकी जा रही है। यही कारण है कि नक्सली बारी-बारी से अपनी भर्तियों में लड़कों के अलावा बाल-संघम में लड़कियों को भी सशस्त्र प्रशिक्षण दे रहे हैं। गृह मंत्रालय के सूत्रों के अनुसार गोंडी भाषा में मिले कुछ कागजातों के हवाले से मिली जानकारी में यह साफ है कि नक्सलियों ने कुछ लड़कियों को खास तरह से प्रशिक्षित किया है ताकि समय पर वे सुरक्षाकर्मियों को उनके ही जाल में फंसा सकें। गरीब आदिवासी लड़कियों के यौन शोषण की जानकारी पहले झारखंड और पश्चिम बंगाल की महिला नक्सली नेताओं ने दी थी अब छत्तीसगढ़ के बीहड़ में भी स्वीट-प्वाइजन के नाम से कुछ लड़कियों की टीम तैयार की गई है। सियासी रूप से बेहद संवेदनशील माने जाने वाले इस मुद्दे पर खुल कर फिलहाल कोई भी बोलने को तैयार नहीं लेकिन नाम जाहिर नहीं करने की शर्त पर सभी नेता इस बात को मानते हैं गरीब लड़कियों के देह से नक्सली लंबे समय से जबरदस्ती करते रहे हैं। स्थानीय जिला पंचायत और ग्रामीणों के स्तर पर देह शोषण का सच कई बार सामने आ चुका है।
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फ्री सेक्स के चंगुल में आंदोलन

अन्याय के प्रति खिलाफत के नाम पर अपने हिंसा को जायज ठहराने वाले नक्सलियों के कारनामें आए दिन सुर्खियों में रहते हैं। लेकिन एक सच यह भी है कि पिछले कुछ वर्षों में नक्सली क्षेत्रों से पुलिस द्वारा बरामद नक्सलियों के कागजात और कुछ पूर्व की घटनाएं यह साबित करती हैं कि नक्सल आंदोलन सेक्स के चंगुल में फंसा हुआ है।
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किसान आत्महत्या के लिए हमेशा सुिखर्यों में रहने वाले विदर्भ के गडचिरौली जिले में फरवरी, 2009 में नक्सलियों को एक बहुत बड़ा हमला हुआ था। 15 पुलिसकमिर्यों को नक्सलियों ने बेरहमी से तड़पा तड़पा कर मारा था और खुद सही सलामत भागने में सफल हो गये थे। पर बाद में पुलिस ने मौके से और जंगलों की गहन तलाशी में नक्सलियों का कुछ समान बरामद किया था।  भागते वक्त नक्सली बड़ी मात्रा में अपना साहित्य और दूसरा सामान छोड़ गए थे। इससे नक्सलियों से जुड़ी कुछ सनसनीखेज बातों का खुलासा हुआ। जो कागजात उसे प्राप्त हुए हैं उसमें कुछ कागजात ऐसे भी थे  जो नक्सलियों के शीर्ष नेताओं द्वारा संगठन में बढ़ रहे मुक्त सेक्स चिंता को साफ बयान कर रह थे।  इसका मतलब है कि नक्सली संगठन के अंदर भी इस मुक्त यौन व्यवहार को लेकर चिंता व्याप्त है।
वर्ष 2011 में भी बिहार और झारखंड में आत्मसमर्पण करने वाली महिला नक्सलियों ने यह स्वीकार किया कि उनके साथ कई पुरुष नक्सलियों ने शारीरिक संबंध बनाएं। झारखंड पुलिस ने नक्सली क्षेत्रों से गर्भनिरोधक सैस पॉवर बढ़ाने वाली गोलियां, कडोम आदि भारी मात्रा में बरामद किये थे।
जानकार कहते हैं कि नक्सली नीति निर्धारक अपनी लड़ाई को जनआंदोलन का व्यापक रूप देना चाहते हैं। लेकिन इसके लिए संगठन में 40 प्रतिशत महिलाओं का होना आवश्यक है। इसके लिए बड़ी संख्या में महिलाओं को जोड़ा भी गया था। प्रशिक्षण दिया गया। कई हमलों पर महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही। यहां तक कि गड़चिरौली के हमले में नक्सली दल का नेतत्व महिला कमांडर ने किया था। पर अफसोस हर क्षेत्र की अंदरूनी हकीकत की तरह तथाकथित जनआंदोलनों के अंदर से भी यौन कुंठाओं की हकीकत अब बाहर निकल रही है। ऐसा नहीं है कि नक्सल आंदोलन से जुड़े शीर्ष लोग इससे अनजान हैं। नक्सली नेता इस बात से चिंतित है जिसकी तस्दीक गढ़चिरौली घटना के बाद बरामद कागजातों से होती है लेकिन यह सच भी सामने आ रहा है कि नक्सल आंदोलन से जुड़कर महिलाएं पछता रही है। संगठन से मोह भंग हो रहा होगा। तभी तो नक्सली नेताओं ने कड़ी चेतावनी देते हुए पुरुष साथियों को महिलाओं से दूरी बनाये रखने की चेतावनी दी है। संयम के नये नियम बने है जिन्हें नहीं मानने पर दंड देने का भी फरमान जारी किया गया है।
इस बात की संभावना से इनकार नहीं की जा सकती है कि नक्सलियों में एड्स की स्थिति गंभीर हो रही है। शीर्ष नक्सल नेता जानते हैं कि सेक्स की लोलुपता में फंस कर संगठन के सदस्य खुद को कमजोर कर रहे है। एचआईवी से ग्रस्त हो रहे है। जंगल में भागते छिपते जांच व इलाज मुिश्कल होगा। यह हकीकत बाहर जाएगी तो संगठन में 40 प्रतिशत महिलाओं को जोड़ने का लक्ष्य कभी पूरा नहीं होगा और लड़ाई कभी जनआंदोलन का रूप नहीं ले सकेगी। दिसंबर 2006 में भी यह खबर आई थी कि विदर्भ के गढ़चिरौली जिले में ही जब नक्सली शिविर पर पुलिस ने छापा मारा तो वहां कंडोम, सेक्स क्षमता बढ़ाने वाली दवाएं व अश्लील फिल्म की सीडी आदि मिली थी। करीब पांच वर्ष पहले एक और खबर आई थी। इंद्रा उर्फ पुष्पकला नाम की एक नक्सली महिला ने पुलिस के सामने समर्पण किया था। समर्पण के बाद उसने पुलिस को बताया कि उसके साथ उसके उपकमांडर ने कई बार बलात्कार किया। उसने यह भी बताया कि संगठन में हर महिला कम से कम चार-पांच नक्सलियों के हवस की भूख मिटाने की वस्तु की तरह है। इससे कई महिलाएं गंभीर यौन रोगों से पीड़ित हो जाती हैं। 24 वर्र्षीय सोनू नाम की और नक्सली ने पुलिस को समपर्ण किया और कुछ ऐसी ही कहानी बताई।
उसने पुलिस को बताया कि बाली उम्र में ह ीवह नक्सली आंदोलन में शामिल हो गई। तब उसे इस बात का अंदाजा नहीं था कि यहां उसके अपने ही आबरू तार-तार करेंगे। उसे नक्सली कमांडर से प्यार हुआ। शादी की। पर उसके बुरे दिन तब शुरू हुए जब उसका नक्सली पति पुलिस मुठभेड़ में मारा गया। इसके बाद दूसरे साथियों की केवल निगाहों तक नजर आने वाली यौन लोलुपता हकीकत में सामने आ गई। कई नक्सलियों ने उसके साथ हवस की भूख मिटाई। आखिर सोनू को वहां से भागना पड़ा। पुलिस को समर्पित किया। सोनू ने भी पुलिस को यही बताया था कि संगठन की हर महिला तीन-चार नक्सलियों की की हवस की शिकार होती है।
कुछ वर्ष पहले पुलिस ने सुशीला नाम की एक नक्सली सिपाही को पकड़ा था। जब उसे गिरफ्तार किया गया तब वह गंभीर यौन रोग सिफलिस से पीड़ित थी। जानकार कहते हैं कि नक्सली संगठन में शामिल हर महिला की ऐसी ही दर्द भरी कहानी है। उनके मन में संगठन में आने का पछतावा है। पर क्या करें उनके लिए स्थिति सांप छूछूंदर की तरह है। पुलिस को समर्पण करती हैं तो शेष उम्र जेल में बीतने का खतरा है और संगठन में बगावत किया तो उसकी सजा जेल से ज्यादा भयावह होगी। गढ़चिरौली की घटना में पुलिसकमिर्यों को तड़पा तड़पा कर बेरहमी से मारने वाली नक्सली कमाण्डर भले ही महिला थी लेकिन न जाने कितनी महिलाएं हवस का शिकार होकर संगठन में हर दिन खुद तड़प-तड़प कर जिंदा मौत का शिकार हो रही हैं।
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प्रेम की सजा पहले नसबंदी तब शादी
नक्सल प्रभावित छत्तीसगढ़ में जंगलों की खाक छान रहे नक्सलियों को प्रेम की भी सजा दी जाती है। नक्सली यहां प्रेम तो कर सकते हैं, लेकिन अपना घर नहीं बसा सकते हैं। कांकेर जिले में आत्मसमर्पण करने वाले नक्सली कमांडरों के मुताबिक शादी से पहले ही उनकी जबरदस्ती नसबंदी कर दी जाती है। पिछले दिनों छत्तीसगढ़ के कांकेर जिले में वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के सामने आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों ने नक्सली नेताओं द्वारा उनके साथ किए जा रहे दुर्व्यहार के बारे में विस्तार से बताया। आत्मसमर्पण करने वाले नक्सली सदस्यों पूर्व बस्तर डिविजन कमेटी के सदस्य सुनील कुमार मतलाम, उसकी पत्नी और कोर कमेटी की कमांडर जैनी उर्फ जयंती, परतापुर क्षेत्र के जन मीलिशिया कमांडर रामदास, उनकी पत्नी पानीडोबिर (कोयलीबेड़ा) एलओएस की डिप्टी कमांडर सुशीला,  सीतापुर (कोयलीबेड़ा) एलओएस के कमांडर जयलाल, उसकी पत्नी सीतापुर एलओएस की सदस्या आसमानी उर्फ सनाय और रावघाट में सक्रिय प्लाटून नम्बर 25 की सदस्य सामो मंडावी ने अपनी आपबीती सुनाई। उन्होंने बताया कि जंगल में उनके साथ आंध्रप्रदेश के नक्सली नेता बुरा बर्ताव तो करते ही है साथ ही साथ उन्हें प्रेम करने की सजा भी दी जाती है। सुनील (31 वर्ष) ने बताया कि तीन नक्सलियों ने अपनी पत्नी के साथ आत्मसमर्पण किया है तथा तीनों पुरुषों की शादी से पहले ही नसबंदी कर दी गई है।  वह कांकेर जिले के आमाबेड़ा थाना क्षेत्र के फूफगांव का रहने वाला है। जब वह 17 साल का था तब नक्सली उसके गांव पहुंचे और उसे अपने साथ लेकर चले गए। नक्सलियों ने सुशील को प्रशिक्षण दिया और वह सक्रिय नक्सली सदस्य बन गया। इस दौरान वह कई वारदातों में शामिल रहा जिसमें कई पुलिसकर्मी शहीद भी हुए। सुनील ने बताया कि जब वह नक्सली सदस्य के रूप में काम कर रहा था तब उसे चेतना नाट्य मंडल की कमांडर जैनी उर्फ जयंती कुरोटी के साथ काम करने का मौका मिला। जैनी से उसकी जान पहचान हुई और बाद में यह जान पहचान प्रेम में बदल गई। जब सुनील और जैनी ने शादी कर अपना परिवार बसाना चाहा तब नक्सली नेताओं ने उसके प्रेम को स्वीकार कर लिया, लेकिन उसे घर बसाने की इजाजत नहीं दी गई। नक्सली नेताओं ने कहा कि जब सुनील नसबंदी करवा लेगा तभी उसे जैनी के साथ शादी करने की इजाजत दी जाएगी। जैनी को पाने के लिए सुनील ने ऐसा ही किया। जंगल में ही उसकी नसबंदी कर दी गई। अब सुनील मुख्यधारा में शामिल होकर अच्छी जिंदगी जीना चाहता है। वह चाहता है कि वह फिर से आपरेशन करवाए तथा अपना घर बसा सके।
यही स्थिति रामदास और जयलाल की भी है। उन्हें भी प्रेम करने की इजाजत तो दी गई लेकिन जब शादी की बारी आई तब उनकी नसबंदी कर दी गई। सुनील ने बताया कि यह बर्ताव उन सभी नक्सलियों के साथ होता है जिन्हें जंगल में किसी महिला नक्सली से प्रेम हो जाता है और वह उससे शादी करना चाहता है। नक्सलियों की यहां शादी केवल नसबंदी कराने की शर्त पर ही हो पाती है। यदि कोई सदस्य इससे मना करता है तब पहले उसे खूब प्रताड़ित किया जाता है और जबरदस्ती उसकी नसबंदी कर दी जाती है। उसने बताया कि जंगल में नसबंदी करने के लिए पश्चिम बंगाल से डाक्टरों को यहां बुलाया जाता है। इस आपरेशन के बाद कई नक्सली गंभीर रूप से बीमार भी हो जाते हैं। यहां कई नक्सली ऐसे हैं जिनकी जबरदस्ती नसबंदी कर दी गई है और वे सामने आने से डरते हैं।
आंदोलन खतरे में पड़ने का भय : सुनील ने बताया कि नक्सली नेताओं का मानना है कि एक बार शादी हो गई और बाल बच्चे हुए तब नक्सली सदस्य उस बच्चे के अच्छे लालन पालन के लिए घर लौट सकते हैं और उनका आंदोलन खतरे में पड़ जाएगा। इससे बचने के लिए वह पहले पुरुषों की नसबंदी कर देते हैं। पुरुषों की ही नसबंदी करने के कारणों के बारे में पूछने पर सुनील ने बताया कि महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों की नसबंदी आसान होती है। कांकेर के पुलिस अधीक्षक राहुल भगत का कहना है कि पुलिस का को इस बात की जानकारी लगातार मिल रही थी कि जंगल में पुरुष नक्सलियों की जबरदस्ती नसबंदी कर दी जाती है। यदि नक्सली सदस्य साधारण जिंदगी जीने और बच्चे के लिए नसबंदी हटाना चाहते हैं तब पुलिस उनकी पूरी मदद करेगी और अपने खर्च पर उनका आपरेशन करवाएगी।
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पैकेज युद्ध में सरकार पर भारी नक्सली!

नक्सलियों को हिंसा से दूर रहकर मुख्य धारा में जोड़ने की सरकारी कवायद पर नक्सली नेताओं की दिमागी कसरत भारी पड़ सकती है। सरकार ने सरेंडर करने वाले नक्सलियों के लिए जो पैकेज तैयार किए हैं, उससे भारी पैकेज नक्सली नेताओं ने उन युवाओं के लिए बनाए हैं जो उनके साथ आएंगे। निश्चित रूप से इस पैकेज वार में कम से कम बेईमान बाबुओं में ईमानदार कामरेड भारी पड़ सकते हैं।

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रायपुर। छत्तीसगढ़ में नक्सलियों को हिंसा से दूर रहकर मुख्य धारा में जोड़ने की सरकारी कवायद पर नक्सली नेताओं की दिमागी कसरत भारी पड़ सकती है। सरकार ने सरेंडर करने वाले नक्सलियों के लिए जो पैकेज तैयार किए हैं, उससे भारी पैकेज नक्सली नेताओं ने उन युवाओं के लिए बनाए हैं जो उनके साथ आएंगे। इस पैकेज युद्ध में नक्सली भारी भी हैं। सरकार ने पुनर्वास नीति के तहत सरेंडर करने वाले नक्सलियों के लिए अच्छा-खासा पैकेज तैयार किया है। इसके परिणाम भी सामने आ रहे हैं, लेकिनआशातीत सफलता अभी नहीं मिली है। इस बीच बिखराव जैसे हालात में पहुंच चुके नक्सलियों ने संगठन को मजबूत करने के लिए अपना पैकेज तैयार कर लिया है। सूत्रों का कहना है कि सीधे-सादे युवक-युवतियों को नक्सली पैकेज के जाल में फंसाकर हिंसा की राह पर डालने की तैयारी कर चुके हैं। पैकेज भी आकर्षक बनाया गया है। इसमें सरकार की तरह जमीन देने का वादा नहीं किया गया है, लेकिन मोटी राशि देने का भरोसा जरूर दिया गया है। खबर है, इसका खुलासा बस्तर इलाके में पकड़े गए कुछ संदिग्ध लोगों ने पूछताछ में की है। यह भी पता चला है कि माओवादी नेता नए जिलों में कमांडर की नियुक्ति की कवायद भी कर रहे हैं। साथियों के लगातार पकड़े जाने और मारे जाने से सतर्क हुए नक्सली संगठन को मजबूत करने साम-दाम, दंड भेद की नीति पर अमल कर रहे हैं।
सक्रियता का सुराग मिला
नक्सल अभियान से जुड़े रहे छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक रामनिवास कहते हैं कि खुफिया दस्ते और सर्चिंग के दौरान टीम को नक्सलियों की बैठक और नए लोगों को जोड़ने संबंधी प्रमाण मिले हैं। बस्तर क्षेत्र से अधिकांश युवक-युवतियों के गायब होने जानकारी उन्हें भी है। बहुत से गांवों के खाली हो जाने से यह लगता है कि नक्सली बलपूर्वक अथवा बहला-फुसला कर स्थानीय लोगों को साथ ले गए। स्थानीय युवकों के गायब होने और परिजनों का सुराग नहीं मिलने से संदेह गहराता है।
सरकार का आॅफर
-बिना हथियार सरेंडर करने पर 1.60 लाख रुपए
-हथियार समेत सरेंडर करने पर 4.60 लाख रुपए
- हर माह दो हजार रुपए नगद राशि
-खेती के लिए जमीन भी दी जाएगी
नक्सलियों का लुभावना पैकेज
-साथ आए तो परिवार को पूरा सरंक्षण
-जीवन-यापन की पूरी जिम्मेदारी लेंगे
-7 से 10 लाख रुपए की आर्थिक मदद का वादा
- पकड़े गए तो परिवार की देखरेख
- कानूनी खर्च से लेकर इलाज तक का खर्च
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