Thursday, 27 December 2012
Thursday, 6 December 2012
इंसाफ के लिए कोर्ट पहुंचे करगिल हीरो के पिता
चंडीगढ़। करगिल युद्ध के दौरान कैप्टन सौरभ कालिया व उनके 5 साथियों के साथ पाकिस्तानी सेना के कू्ररतापूर्ण, अमानवीय व्यवहार का केस अब सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया है। शहीद कैप्टन सौरभ को इंसाफ दिलाने के लिए 13 साल से लड़ रहे उनके रिटायर्ड वैज्ञानिक पिता एन. के. कालिया ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करते हुए गुहार लगाई है कि वह सरकार को इस मामले को अंतरराष्टÑीय न्यायायिक फोरम में उठाने का निर्देश दे। कोर्ट ने याचिका को स्वीकार कर लिया है। याचिका में के डॉ. एन.के कालिया ने मांग की है कि विदेश मंत्रालय और गृह मंत्रालय अंतरराष्टÑीय न्यायायिक फोरम से मांग करे कि वह कैप्टन कालिया पर पाकिस्तान में किए गए अत्याचार का खुलासा करे। डॉ. कालिया बेटे को इंसाफ दिलाने के लिए रक्षा मंत्रालय, सेना मुख्यालय और पीएम आॅफिस के 13 सालों से चक्कर काट रहे हैं। उनका कहना है कि पाकिस्तान ने जिनीवा कन्वेंशन का उल्लंघन किया है। भारत सरकार इन शहीदों के साथ हुए अमानवीय व्यवहार को पाकिस्तान व अंतरराष्टÑीय स्तर पर उठाने
बूस्ट हो या कांप्लान... न बढेÞगा कद न बनेगी सेहत!
कांप्लान, बुस्ट, हार्लिक्स, ब्रिटानिया, न्यूट्रिलाइट आदि के प्रोडक्ट लोगों में पैदा कर रहें है भ्रम
देवांशु नारायण/पटना
इन दिनों टीवी और समाचार पत्रों में ऐसे विज्ञापनों की भरमार है जो लंबाई बढ़ाने के साथ ही कमजोर सेहत को मजबूत करने का दावा करते हैं। ऐसे दावे के साथ अपने उत्पादों को बेचने वालों की सूची में कई ब्रांडेड कंपनियां भी है। लेकिन इनके तमाम दावे झूठें हैं। फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड आॅथारिटी आॅफ इंडिया ने भारत में बेंचे जा रहे उन सभी उत्पादों को महज भ्रामक और गलतफहमी बताया है, जिसमें बच्चों, महिलाओं, पुरुषों तथा वृद्धों के लिए लंबाई, ताकत, शरीर और स्वस्थता का दावा किया जाता है।
खाद्य सुरक्षा के लिए भारत सरकार की बनाई कई संस्थ फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड आॅथारिटी आॅफ इंडिया ने संविधान के धारा 24 के तहत फूड सेफ्टी और स्टैंडर्ड एक्ट 2006 तथा फूड सेफ्टी और स्टैंडर्ड रेगुलेशन 2011 के तहत जांच में पाया कि विभिन्न नेशनल तथा इंटर्नेशनल कंपनियों ने अपने-अपने विज्ञापन में जो कुछ भी दावा किया है वे झूठें है। आज परिवार की महिला अपने बच्चों को एनर्जी डिंक्स देना आवश्यक समक्षती हैं, लेकिन वो इस बात से बिलकुल अंजान हैं कि वो जो भी चीज बाजार से बच्चों के लिए खरीदकर ला रही हैं वो महज पैसा बर्बादी के अलावा कुछ भी नहीं। आॅथारिटी ने हर इस दावे का खंडन किया है जिसमें कंपनियां कहीं बच्चों को दुगने रफ्तार से बढ़ाने का दावा करती हैं, कहीं उनके ड्रिंक्स को पीने से बच्चों में तीन गुना ताकत आ जाती है। कुछ कंपनियां बच्चों को सबसे जल्दी लंबा, मजबूत तथा तेज दिमाग करने का दावा करती हैं, आॅथरिटी की रिपोर्ट उनके दावों को झूठला रही है।
जांच में पता चला है कि खाने के तेल से बेसन तक में फर्जीवाड़ा है।
आॅथरिटी के अनुसार अनुसार इमामी हेल्दी एंड टेस्टी सोयाबीन तेल, सफोला, इंजन सरसो तेल तथा राजधानी बेसन ने कहीं आपके परिवार के दिल को सुरक्षित करते हुए लो फैट का दावा किया है, कहीं कोलेस्ट्रॉल की मात्रा शून्य बताई गई है इन सभी वादों को खारिज कर दिया गया है। बॉर्नबिटा लिटिल चैंप अपने विज्ञापन में प्रोडक्ट में डीएचए की मात्रा को बताया है, जो कि कंपनी द्वारा साबित नहीं की सकी।
इन कंपनियों के दावे गलत
इसके तहत कांप्लान मुंबई, बुस्ट गुड़गांव, हार्लिक्स गुड़गांव, सफोला मुंबई, ब्रिटानिया कोलकाता, बार्नबिटा मुंबई, टुडे प्रीमियम टी दिल्ली, इमामी हेल्दी एंड टेस्टी सोयाबीन तेल कोलकाता, केशर क्रिम बटर मुंबई और राजधानी बेसन दिल्ली आदि कंपनियों ने जो कुछ भी विज्ञापन में दिखाया है, प्रोडक्ट की जांच में ऐसा कुछ भी नहीं पाया गया है।
शुद्ध दूध दही ज्यादा उपयोगी : सामाजिक कार्यकर्ता और अशोका ट्रॉमा सेंटर हॉस्पिटल कंकड़बाग पटना के सीनियर मैनेजर अवधेश कुमार सिंह ने इस संबंध में जानकारी देते हुए बताया कि बच्चों को हमेशा शुद्ध दूध, दही और धी ही दें, इसमें बच्चों के लिए सभी जरूरी प्रोटीन, बिटामिन, वसा एवं कार्बोहाइड्रेट मौजूद होता है। उन्होंने बताया कि हमने इस संबंध में अनेक डॉक्टरों से बात की है, उनमें से किसी ने ऐसा नहीं बताया कि एनर्जी ड्रिंक्स पीने से बच्चों का विकास होता है। बस टेस्ट के लिए इन चीजों का प्रयोग किया जाता है। श्री अवधेश का कहना है कि किसी भी विज्ञापने के झांसे में नहीं आयें, बल्कि बच्चों को खुद के बनाए गए व्यंजनों का ही आदत डालें। जिसका न तो कोई साइड इफेक्ट होता है न हीं यह किसी बीमारी को जन्म देता है। छत्तीसगढ़ रायपुर की आहार विशेषज्ञ डा. स्मृति वाजपेयी का कहना है कि हमें एनर्जी के लिए प्रोटीन और कार्बोहाइड्रेट की जरुरत होती है, लेकिन जो कुछ भी जानकारी हम टीवी पर या अन्य माध्यम से प्राप्त करते हैं वैसा कुछ नहीं होता, हां थोड़ी एनर्जी जरुर होती है। वहीं आहार विशेषज्ञ डा. अनुभा झा का कहना है कि मीडिया में आने वाले विज्ञापन को सही नहीं कह सकते, क्योंकि ऐसे प्रोडक्ट्स सिर्फ संपूरक होते हैं जिसे मिलाकर दूध या अन्य किसी पदार्थ के साथ पीने से थोड़ी कैलौरी जरूर मिलती है। इस तरह के जांच भारत में होना चाहिए।
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संघर्ष
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लंदन। भूतिया कहानियों में जिस नर कंकाल का जिक्र आते ही दहशत की सीमा पार हो जाती है, क्या हकीकत में कोई उसके साथ रहना चाहेगा? सपने में भी यह सोचकर कोई सकपका सकता है। लेकिन स्वीडन में एक महिला ने न सिर्फ नर कंकाल को अपने पास रखा बल्कि उसके साथ सेक्स भी किया।
चौंका देने वाली इस घटना की तस्वीरें पुलिस ने जारी की है। इन तस्वीरों में महिला को गोथेनबर्ग स्थित अपने फ्लैट पर इस नर कंकाल के साथ शारीरिक संबंध बनाते हुए दिखाया गया है। महिला कंकाल को गले लगा रही है कई बार उसे जीभ से चाटते हुए भी दिखाया गया है।
ब्रिटिश टैब्लॉइड 'द सन' पर छपी खबर के मुताबिक, महिला को मरे हुए शख्स की शांति भंग करने का आरोपी बनाया गया है और दोषी पाए जाने पर दो साल की सजा हो सकती है। वकील ने बताया कि 37 साल की इस महिला ने छह खोपड़ी, एक रीढ़, कुछ हड्डियों को एक ड्रिल, बॉडी बैग और मुर्दाघर की तस्वीरों के साथ सीक्रेट कम्पार्टमेंट में रखा था। सितंबर में महिला की गिरफ्तारी के बाद उसके अपार्टमेंट से नर कंकाल के साथ अंतरंग तस्वीरें और साथ ही दो सीडी जिनमें से एक पर माय नेक्रोफीलिया (मृत शरीर के साथ लगातार होने वाले सेक्स का आकर्षण) और माय फर्स्ट एक्सपीरिएंस लिखा था।
बताया जाता है कि इंटरनेट फोरम पर महिला ने एक बार लिखा-मेरी नैतिकता मेरी सीमाओं को तय करती है और इसके लिए मैं सजा के लिए तैयार हूं। मैं अपने पुरुष को इस तरह देखना चाहती हैं, चाहे वह मृत हो या जीवित। यह (मानव कंकाल) मुझे सेक्शुअल खुशी पाने की स्वतंत्रता देता है। सरकारी वकील ने बताया कि महिला ने कंकाल के ढांचे को बेहद ही शर्मनाक और अनैतिक ढंग से रखा था, जबकि बचाव पक्ष ने नर कंकाल रखने की बात तो स्वीकार की है लेकिन उनके साथ किसी तरह कि बुरे बर्ताव की बात नहीं मानी है।
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लंदन। भूतिया कहानियों में जिस नर कंकाल का जिक्र आते ही दहशत की सीमा पार हो जाती है, क्या हकीकत में कोई उसके साथ रहना चाहेगा? सपने में भी यह सोचकर कोई सकपका सकता है। लेकिन स्वीडन में एक महिला ने न सिर्फ नर कंकाल को अपने पास रखा बल्कि उसके साथ सेक्स भी किया।
चौंका देने वाली इस घटना की तस्वीरें पुलिस ने जारी की है। इन तस्वीरों में महिला को गोथेनबर्ग स्थित अपने फ्लैट पर इस नर कंकाल के साथ शारीरिक संबंध बनाते हुए दिखाया गया है। महिला कंकाल को गले लगा रही है कई बार उसे जीभ से चाटते हुए भी दिखाया गया है।
ब्रिटिश टैब्लॉइड 'द सन' पर छपी खबर के मुताबिक, महिला को मरे हुए शख्स की शांति भंग करने का आरोपी बनाया गया है और दोषी पाए जाने पर दो साल की सजा हो सकती है। वकील ने बताया कि 37 साल की इस महिला ने छह खोपड़ी, एक रीढ़, कुछ हड्डियों को एक ड्रिल, बॉडी बैग और मुर्दाघर की तस्वीरों के साथ सीक्रेट कम्पार्टमेंट में रखा था। सितंबर में महिला की गिरफ्तारी के बाद उसके अपार्टमेंट से नर कंकाल के साथ अंतरंग तस्वीरें और साथ ही दो सीडी जिनमें से एक पर माय नेक्रोफीलिया (मृत शरीर के साथ लगातार होने वाले सेक्स का आकर्षण) और माय फर्स्ट एक्सपीरिएंस लिखा था।
बताया जाता है कि इंटरनेट फोरम पर महिला ने एक बार लिखा-मेरी नैतिकता मेरी सीमाओं को तय करती है और इसके लिए मैं सजा के लिए तैयार हूं। मैं अपने पुरुष को इस तरह देखना चाहती हैं, चाहे वह मृत हो या जीवित। यह (मानव कंकाल) मुझे सेक्शुअल खुशी पाने की स्वतंत्रता देता है। सरकारी वकील ने बताया कि महिला ने कंकाल के ढांचे को बेहद ही शर्मनाक और अनैतिक ढंग से रखा था, जबकि बचाव पक्ष ने नर कंकाल रखने की बात तो स्वीकार की है लेकिन उनके साथ किसी तरह कि बुरे बर्ताव की बात नहीं मानी है।
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कंकाल के साथ सेक्स करते गिरफ्तार
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लंदन। भूतिया कहानियों में जिस नर कंकाल का जिक्र आते ही दहशत की सीमा पार हो जाती है, क्या हकीकत में कोई उसके साथ रहना चाहेगा? सपने में भी यह सोचकर कोई सकपका सकता है। लेकिन स्वीडन में एक महिला ने न सिर्फ नर कंकाल को अपने पास रखा बल्कि उसके साथ सेक्स भी किया।
चौंका देने वाली इस घटना की तस्वीरें पुलिस ने जारी की है। इन तस्वीरों में महिला को गोथेनबर्ग स्थित अपने फ्लैट पर इस नर कंकाल के साथ शारीरिक संबंध बनाते हुए दिखाया गया है। महिला कंकाल को गले लगा रही है कई बार उसे जीभ से चाटते हुए भी दिखाया गया है।
ब्रिटिश टैब्लॉइड 'द सन' पर छपी खबर के मुताबिक, महिला को मरे हुए शख्स की शांति भंग करने का आरोपी बनाया गया है और दोषी पाए जाने पर दो साल की सजा हो सकती है। वकील ने बताया कि 37 साल की इस महिला ने छह खोपड़ी, एक रीढ़, कुछ हड्डियों को एक ड्रिल, बॉडी बैग और मुर्दाघर की तस्वीरों के साथ सीक्रेट कम्पार्टमेंट में रखा था। सितंबर में महिला की गिरफ्तारी के बाद उसके अपार्टमेंट से नर कंकाल के साथ अंतरंग तस्वीरें और साथ ही दो सीडी जिनमें से एक पर माय नेक्रोफीलिया (मृत शरीर के साथ लगातार होने वाले सेक्स का आकर्षण) और माय फर्स्ट एक्सपीरिएंस लिखा था।
बताया जाता है कि इंटरनेट फोरम पर महिला ने एक बार लिखा-मेरी नैतिकता मेरी सीमाओं को तय करती है और इसके लिए मैं सजा के लिए तैयार हूं। मैं अपने पुरुष को इस तरह देखना चाहती हैं, चाहे वह मृत हो या जीवित। यह (मानव कंकाल) मुझे सेक्शुअल खुशी पाने की स्वतंत्रता देता है। सरकारी वकील ने बताया कि महिला ने कंकाल के ढांचे को बेहद ही शर्मनाक और अनैतिक ढंग से रखा था, जबकि बचाव पक्ष ने नर कंकाल रखने की बात तो स्वीकार की है लेकिन उनके साथ किसी तरह कि बुरे बर्ताव की बात नहीं मानी है।
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लंदन। भूतिया कहानियों में जिस नर कंकाल का जिक्र आते ही दहशत की सीमा पार हो जाती है, क्या हकीकत में कोई उसके साथ रहना चाहेगा? सपने में भी यह सोचकर कोई सकपका सकता है। लेकिन स्वीडन में एक महिला ने न सिर्फ नर कंकाल को अपने पास रखा बल्कि उसके साथ सेक्स भी किया।
चौंका देने वाली इस घटना की तस्वीरें पुलिस ने जारी की है। इन तस्वीरों में महिला को गोथेनबर्ग स्थित अपने फ्लैट पर इस नर कंकाल के साथ शारीरिक संबंध बनाते हुए दिखाया गया है। महिला कंकाल को गले लगा रही है कई बार उसे जीभ से चाटते हुए भी दिखाया गया है।
ब्रिटिश टैब्लॉइड 'द सन' पर छपी खबर के मुताबिक, महिला को मरे हुए शख्स की शांति भंग करने का आरोपी बनाया गया है और दोषी पाए जाने पर दो साल की सजा हो सकती है। वकील ने बताया कि 37 साल की इस महिला ने छह खोपड़ी, एक रीढ़, कुछ हड्डियों को एक ड्रिल, बॉडी बैग और मुर्दाघर की तस्वीरों के साथ सीक्रेट कम्पार्टमेंट में रखा था। सितंबर में महिला की गिरफ्तारी के बाद उसके अपार्टमेंट से नर कंकाल के साथ अंतरंग तस्वीरें और साथ ही दो सीडी जिनमें से एक पर माय नेक्रोफीलिया (मृत शरीर के साथ लगातार होने वाले सेक्स का आकर्षण) और माय फर्स्ट एक्सपीरिएंस लिखा था।
बताया जाता है कि इंटरनेट फोरम पर महिला ने एक बार लिखा-मेरी नैतिकता मेरी सीमाओं को तय करती है और इसके लिए मैं सजा के लिए तैयार हूं। मैं अपने पुरुष को इस तरह देखना चाहती हैं, चाहे वह मृत हो या जीवित। यह (मानव कंकाल) मुझे सेक्शुअल खुशी पाने की स्वतंत्रता देता है। सरकारी वकील ने बताया कि महिला ने कंकाल के ढांचे को बेहद ही शर्मनाक और अनैतिक ढंग से रखा था, जबकि बचाव पक्ष ने नर कंकाल रखने की बात तो स्वीकार की है लेकिन उनके साथ किसी तरह कि बुरे बर्ताव की बात नहीं मानी है।
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Sunday, 11 November 2012
Saturday, 20 October 2012
samachar visfot octobar 2012
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मुक्ति का मार्ग मार्केट है, मंदिर नहीं
बाजार के दबाव में वर्ण व्यवस्था की यह बुनियाद टूट रही है कि हर वर्ण का एक खास कर्म होता है। मार्केट में जाति के झंडाबरदार यह नहीं कह सकते कि सेवा का काम शूद्र करेगा और पढ़ाई-लिखाई ब्राह्माण ही करेगा, या फिर अकाउंटिंग का काम वैश्य करेगा और गार्ड तथा बाउंसर सिर्फ क्षत्रिय जाति के होंगे। अब अकाउंटेंट वह बनेगा जिसने अकाउंटेंसी की पढ़ाई की है और गार्ड वह बनेगा जिसकी कद-काठी ठीक है।
दिलीप मंडल
उड़ीसा के केन्द्रपाड़ा जिले के एक जगन्नाथ मंदिर में दलितों को दीवार के पार खड़े होकर नौ छेदों के पार देवता के दर्शन करने पड़ते थे। कुछ दिन पहले यह खबर आई कि अब एक ही रास्ते से दलित भी प्रवेश करेंगे और एक खास जगह से देवता के दर्शन करेंगे। दलितों के आत्मसम्मान हासिल करने की दिशा में इसे कितना बड़ा कदम माना जाए? केन्द्रपाड़ा के दलितों को जिस अधिकार के लिए लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी वह अधिकार शहरों में रहने वाले दलितों को अपने आप हासिल है। ऐसे में दलित आबादी, यानी देश के हर छह में से एक आदमी के सामने सवाल यह है कि गांव में रहकर अपने सम्मान के लिए लड़ें या शहरों में आकर जन्म तथा कर्म के रिश्ते को खत्म कर दें और कई बंधनों से आजाद हो जाएं।
गांवों को लेकर हो सकता है कि कुछ लोगों के दिमाग में कोई रूमानी कल्पना हो। कोई गांधीवादी यह कह सकता है कि गांव आत्मनिर्भर इकाई के तौर पर एक आदर्श है। लेकिन समाज के एक बड़े हिस्से के लिए गांव कोई शानदार जगह नहीं है। खासकर दलितों के लिए तो कतई नहीं। नेशनल सैंपल सर्वे की रिपोर्ट के मुताबिक देश के 16 फीसदी दलितों के पास सिर्फ नौ फीसदी जमीन है। नौ फीसदी का आंकड़ा फिर भी ठीकठाक लगता है। गांवों की हकीकत को जो भी जानता है उसे इस बात का एहसास होगा कि यह जमीन गांव की सबसे उपजाऊ जमीन कतई नहीं होगी। भूमि संबंधों में दलितों की बुरी स्थिति के ऐतिहासिक कारण हैं। शास्त्रों के मुताबिक, हिन्दू वर्ण व्यवस्था के बाहर की इन जातियों को जमीन या पशुधन रखने की इजाजत नहीं थी। पंजाब जैसे राज्यों में आजादी से पहले कुछ खास जातियों को ही खेती की जमीन खरीदने का हक था और उन जातियों में दलित शामिल नहीं थे। दलितों के घर अब भी बाकी जातियों की आबादी से दूर होते हैं और देश के ज्यादातर हिस्सों में उनके तालाब और कुएं आजादी के 60 साल बाद भी अलग हैं। अब यह सब सिर्फ इसलिए नहीं बदल जाएगा कि भारत सरकार ने अस्पृश्यता निवारण कानून लागू कर दिया है और देश में दलित उत्पीड़न के खिलाफ कानून बना हुआ है।
दलित भारतीय समाज व्यवस्था की विशिष्ट पहचान है। दुनिया के तमाम देशों में भेदभाव अलग-अलग रूपों में मौजूद है, लेकिन वर्ण व्यवस्था हिन्दू समाज की खासियत है। अमेरिका में चमड़े के रंग या नस्ल के आधार पर भेदभाव है, लेकिन भारत में जेनेटिक तौर पर किसी अंतर के बिना ही जाति का उससे भी सख्त बंटवारा है। जाति के बगैर कोई व्यक्ति हिन्दू नहीं हो सकता। वर्ण व्यवस्था के बगैर सनातन धर्म का कोई वजूद नहीं है। यानी हर हिन्दू किसी न किसी जाति में जन्म लेता है और हर हाल में उसी जाति में मरता है। खानपान में समय के साथ कहीं-कहीं खुलापन आया भी है, पर अपनी जाति के बाहर विवाह की इजाजत वर्ण व्यवस्था नहीं देती। और फिर दलित तो हिंदू वर्ण व्यवस्था का हिस्सा भी नहीं है। चार वर्णों से बाहर के इस समुदाय की तुलना आप मध्ययुगीन यूरोप के कृषि दास से ही कर सकते हैं। यूरोप में इंडस्ट्रियल रिवोल्यूशन के बाद नए प्रॉडक्शन सिस्टम के आने और शहरीकरण के असर से कृषि दास समाज में एकाकार हो गए। आज उनकी पहचान नामुमकिन है।
भारत के दलितों की मुक्ति का भी इससे अलग कोई रास्ता नहीं है। दलितों की दुनिया का बदलना दरअसल उत्पादन संबंधों के आधुनिक रूप के साथ उनके एकरूप होने से सीधा जुड़ा हुआ है। अच्छी इंगलिश बोलने वाले हर शख्स को आज कॉल सेंटर में 15,000 रुपये से ज्यादा की नौकरी मिल सकती है। कॉल सेंटर में काम करने का स्किल रखने वालों की इतनी कमी है कि वहां के एचआर डिपाटर्मेंट को इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि नौकरी के लिए आने वाला दलित है या ब्राह्माण। रिटेल से लेकर हॉस्पिटैलिटी सेक्टर तक में काबिल लोगों की जरूरत अचानक बढ़ी है। बाजार के दबाव में वर्ण व्यवस्था की यह बुनियाद टूट रही है कि हर वर्ण का एक खास कर्म होता है। मार्केट में जाति के झंडाबरदार यह नहीं कह सकते कि सेवा का काम शूद्र करेगा और पढ़ाई-लिखाई ब्राह्माण ही करेगा, या फिर अकाउंटिंग का काम वैश्य करेगा और गार्ड तथा बाउंसर सिर्फ क्षत्रिय जाति के होंगे। अब अकाउंटेंट वह बनेगा जिसने अकाउंटेंसी की पढ़ाई की है और गार्ड वह बनेगा जिसकी कद-काठी ठीक है। प्लानिंग का काम मैनेजमेंट पढ़ने वाले करेंगे। जो इन कामों के काबिल नहीं हैं, वे सेवा का काम करेंगे, और वे ब्राह्माण भी हो सकते हैं। मार्केट का असर ऐसा है कि दलित मैनेजर भी आपको मिल जाएंगे और ब्राह्माण सेवक भी। सरकारी सेक्टर में फिर भी टारगेट न होने की वजह से नियुक्तियों में पक्षपात की गुंजाइश है, ऊंचे पदों पर पहले से बैठे अफसर अपने लोगों की भतिर्यां करा सकते हैं, लेकिन प्राइवेट सेक्टर में परफॉर्म करने के दबाव की वजह से कोई मैनेजर शायद ही कभी योग्यता के अलावा किसी और पैमाने पर नियुक्तियां करता है।
कई दलित चिंतक अब कहने लगे हैं कि इंगलिश बोलने वाला कोई दलित मैला नहीं ढोता। उनका यह कहना निराधार नहीं है। इंगलिश एजुकेशन, शहरीकरण और सूटबूट वाले दलित के लिए कई दरवाजे अपने आप खुल जाते हैं। मंदिरों के दरवाजे भी उनमें शामिल हैं। शहरों के मंदिरों के दरवाजे पर कोई यह नहीं पूछता कि आप किस जाति के हैं। और वैसे भी ऐसे पढ़े-लिखे समर्थ दलित को सम्मान के लिए मंदिर का मोहताज क्यों होना चाहिए? हिन्दू वर्ण व्यवस्था उन्हें अपना हिस्सा तो मानती नहीं है। कई दलित आईएएस अफसरों और प्रफेशनल्स ने सवर्ण लड़कियों से शादी की है और ऐसी शादियों की मान्यता के लिए ये समाज की ओर लाचारी से नहीं देख रहे हैं। जबकि जिन गांवों की महिमा गांधीवादी और कई कवि गाते हैं, वहां ऐसी शादी करने वालों को अक्सर जलाकर या गला घोंटकर मार डाला जाता है। इस बात में शक की कोई गुंजाइश नहीं है कि भारत का नया समाज शहरों में ही बन रहा है। दलित को उसी रास्ते पर आगे बढ़ना है।
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मौत पर जश्न, जन्म पर शोक
राजस्थान की गुमनाम जनजाति, सड़क किनारे रहते हंै सातिया समुदाय के गिने-चुने परिवार, मरने पर खरीदते हैं मेवे, शराब। बाहरी लोगों से रहते हंै दूर। नवजातों को देते हैं बद्दुआएं...
विस्फोट न्यूज नेटवर्क
कोटा। जिंदगी में शायद ही ऐसा देखने को मिलता है, जब मौत पर मातम की बजाय जश्न मनाया जाता है। मगर राजस्थान की एक जनजाति ने जिंदगी के आखिरी सफर को एक उत्सव का रूप दे दिया है। यहां किसी की मौत पर शोक नहीं मनाया जाता बल्कि खुशियां मनाई जाती हैं। ठीक इसके उलट किसी के जन्म पर जरूर इस समुदाय में शोक मनाया जाता है।
पूरे राज्य में सड़क के किनारे अस्थायी आश्रय बनाकर रहने वाले सातिया समुदाय में करीब 24 परिवार हैं। यह जनजाति मूल रूप से सड़क किनारे पर मर जाने वाले मवेशियों को ठिकाने लगाने के काम पर ही निर्भर है। इस जाति के लोग पढ़े लिखे भी नहीं हैं और आपराधिक कामों में लिप्त इन लोगों को शराब की लत भी है। इस जाति की महिलाएं भी वेश्यावृति के लिए जानी जाती हैं।
तमाम बुराइयों के बावजूद कुछ ऐसी खास बातें हैं, जिससे यह जनजाति अपनी खास पहचान बनाने में सफल रही है। समुदाय के किसी व्यक्ति की मौत के बाद का अंतिम संस्कार यहां के लोगों के लिए जश्न का समारोह बन जाता है। समुदाय के एक व्यक्ति जंका सातिया ने बताया, इस मौके पर हम नए कपड़े पहनते हैं, मिठाई, मेवे और शराब आदि खरीदते हैं।
शव यात्रा के दौरान लोग ढोल-नगाड़ों की थाप पर नाचते-गाते हैं। अंतिम संस्कार के दौरान दावत का आयोजन होता है, जिसमें शराब पीने के साथ लोग वेश्याओं के साथ नाचते हैं। शव के पूरी तरह से जल जाने तक यह सब चलता रहता है। समुदाय के एक अन्य व्यक्ति की नजरों में जन्म और जीवन भगवान की ओर से दिया गया अभिशाप है। उसका कहना है, मौत हमारे लिए एक उत्सव है, जिससे आत्मा शारीरिक बंधन से आजाद हो जाती है। इस समुदाय पर रिसर्च करने वाले एके सक्सेना का कहना है कि सातिया समुदाय के लोग जीवन को अभिशाप मानते हैं। उन्होंने कहा, हालांकि इस समुदाय में अगर लड़की पैदा होती है, तो उसे ज्यादा तवज्जो दी जाती है क्योंकि वह वेश्यावृति के जरिए परिवार के लिए पैसा कमा सकती है। इस जनजाति में जब किसी का जन्म होता है तो गहरा शोक मनाया जाता है और नवजात शिशु को बद्दुआएं दी जाती हैं। परिवार में कई दिनों तक खाना भी नहीं बनाया जाता है। शहर से दूर सड़कों पर जीवन बिताने वाले यह लोग अक्सर बाहरी लोगों से दूरियां बनाए रखते हैं। सामाजिक कार्यकर्ता अनवर अहमद ने बताया कि इंदिरा आवासीय योजना के तहत इस समुदाय के लोगों को पक्के घर भी मुहैया कराए गए, लेकिन इन्होंने उसे बेच दिया। इस जाति के लोग अपने परिवार के बच्चों को स्कूल भी नहीं भेजते हैं। विरासत एवं प्रकृति फोटोग्राफर एएच जैदी का कहना है कि इनके उत्थान के लिए अब तक कोई भी एनजीओ या सामाजिक संगठन आगे नहीं आया है।
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बिना जुताई भी खेती संभव
मध्यप्रदेश के होशंगाबाद शहर से भोपाल की ओर मात्र 3 किलोमीटर दूर है- टाईटस फार्म। यहां गत 25 साल से कुदरती खेती का अनोखा प्रयोग किया जा रहा है। राजू टाईटस जो स्वयं पहले रासायनिक खेती करते थे, अब कुदरती खेती के लिए विख्यात हो गए हैं। उनके फार्म को देखने देश-विदेश से लोग आते हैं। बाबा मायाराम
मध्यप्रदेश के होशंगाबाद शहर से भोपाल की ओर मात्र 3 किलोमीटर दूर है- टाईटस फार्म। यहां पिछले 25 साल से कुदरती खेती का अनोखा प्रयोग करने वाले राजू टाईटस पहले स्वयं रासायनिक खेती करते थे। उनका कहना है कि अब रासायनिक खेती के दिन लद गए हैं। बेजा रासायनिक खाद, कीटनाशक, नींदानाशक और जुताई से मिट्टी की उर्वरक शक्ति कम हो गई है। तवा बांध की सिंचाई से शुरुआत में समृद्धि जरूर दिखाई दी, लेकिन अब वह दिवास्वप्न में बदल गई है। ऐसे में वैकल्पिक खेती के बारे में विचार करना जरूरी है। इसी परिप्रेक्ष्य में कुदरती खेती का प्रयोग ध्यान खींचता है।
पिछले दिनों जब मैं उनके फार्म पर पहुंचा, तब वे मुख्य द्वार पर मेरा इंतजार कर रहे थे। सबसे पहले उन्होंने चाय के बदले प्राकृतिक पेय पिलाया, जिसे गुड़, नींबू और पानी से तैयार किया गया था। खेत के अमरूद खिलाए और फिर खेत दिखाने ले गए। थोड़ी देर में हम खेतों पर पहुंच गए। इस अनूठे प्रयोग में बराबर की हिस्सेदार उनकी पत्नी शालिनी भी साथ थीं। हरे-भरे अमरूद के वृक्ष हवा में लहलहा रहे थे। एक युवा मजदूर हाथ में यंत्र लिए खरपतवार को सुला रहा था। क्रिम्पर रोलर से खरपतवार को सुला दिया जाता है। इस खेत में गेहूं की बोवनी हो चुकी थी। खेत में ग्रीन ग्राउंड कवर कर रखा था। यानी खरपतवार से ढंककर खेत को रखना। यहां खेत को धान के पुआल से ढंक रखा था। इसमें गाजरघास जैसी खरपतवार का इस्तेमाल किया गया था। पूछने पर बताया कि सामान्य सिंचाई के बाद पुआल या खरपतवार ढंक दी जाती है। सूर्य की किरणों से ऊर्जा पाकर सूखे पुआल के बीच से हरे गेहूं के पौधे ऊपर आ जाते हैं। यह देखना सुखद था। राजू बता रहे थे कि खेत में पुआल ढंकने से सूक्ष्म जीवाणु, केंचुआ, कीड़े-मकोड़े पैदा हो जाते हैं और जमीन को छिद्रित, पोला और पानीदार बनाते हैं। ये सब मिलकर जमीन को उपजाऊ और ताकतवर बनाते हैं, जिससे फसल अच्छी होती है। उनका कहना है कि रासायनिक खेती में धान के खेत में पानी भरकर उसे मचाया जाता है, जिससे पानी नीचे नहीं जा पाता। धरती में नहीं समाता। खेत का ढकाव एक ओर जहां जमीन में जल संरक्षण करता है, यहां के उथले कुओं का जल स्तर बढ़ता है, वहीं दूसरी ओर फसल को कीट प्रकोप से बचाता है, क्योंकि वहां अनेक फसल के कीटों के दुश्मन निवास करते हैं। जिससे रोग लगते ही नहीं हैं।
उनके मुताबिक जब भी खेत में जुताई और बखरनी की जाती है, बारीक मिट्टी को बारिश बहा ले जाती है। साल दर साल खाद-मिट्टी की उपजाऊ परत बारिश में बह जाती है। जिससे खेत भूखे-प्यासे रह जाते हैं और इसलिए इसमें बाहरी निवेश की जरूरत पड़ती है। यानी बाहर से रासायनिक खाद वगैरह डालने की जरूरत पड़ती है। जमीन के अंदर की जैविक खाद, जिसे वैज्ञानिक कार्बन कहते हैं, जुताई से गैस बनकर उड़ जाती है, जो धरती के गरम होने और मौसम परिवर्तन में सहायक होती है। ग्लोबल वार्मिंग और मौसम परिवर्तन इस समय दुनिया में सबसे ज्यादा चिंता का सबब बने हुए हैं। लेकिन अगर बिना जुताई (नो टिलिंग) की पद्धति से खेती की जाए तो यह समस्या नहीं होगी और अब तो जिले में जो ट्रेक्टर-हारवैस्टर की खेती हो रही है, वह ग्लोबल वार्मिंग के हिसाब से उचित नहीं मानी जा सकती।
राजू टाईटस के पास 13.5 एकड़ जमीन है, जिसमें 12 एकड़ में खेती करते हैं। इस साल पड़ोसी की कुछ जमीन पर यह प्रयोग कर रहे हैं। इस 12 एकड़ जमीन में से 11 एकड़ में सुबबूल (आस्ट्रेलियन अगेसिया) का घना जंगल है। यह चारे की एक प्रजाति है। इससे पशुओं के लिए चारा और ईंधन के लिए लकड़ियां मिलती हैं। जिन्हें वे सस्ते दामों पर गरीब मजदूरों को बेच देते हैं। उनके अनुसार सिर्फ लकड़ी बेचने से सालाना आय ढाई लाख की हो जाती है। सिर्फ एक एकड़ जमीन पर ही खेती की जा रही है। राजू बताते हैं कि वह खेती भोजन की जरूरत के अनुसार करते हैं, बाजार के अनुसार नहीं। हमारी जरूरत एक एकड़ से ही पूरी हो जाती है। यहां से हमें अनाज, फल, दूध और सब्जियां मिल जाते हैं, जो परिवार की जरूरत पूरी कर देते हैं। जाड़े में गेहूं, गर्मी में मक्का व मूंग और बारिश में धान की फसल भोजन की आवश्यकता की पूर्ति करते हैं।
कुदरती खेती को ऋषि खेती भी कहते हैं। राजू टाईटस इसे कुदरती-जैविक खेती कहते हैं। जिसमें बाहरी निवेश कुछ भी नहीं डाला जाता। न ही खेत की हल से जुताई की जाती है और न बाहर से किसी प्रकार की मानव निर्मित खाद डाली जाती है। नो टिलिंग यानी बिना जुताई के खेती। पिछले 25 साल से उन्होंने अपने खेत में हल नहीं चलाया और न ही कीटों को मारने के लिए कीटनाशक व दवा का इस्तेमाल किया। यह पूरी तरह अहिंसक कुदरती खेती है। इसकी शुरूआत जापान के मशहूर कृषि वैज्ञानिक मासानोबू फुकुओवा ने की थी, जो स्वयं यहां आए थे। फुकुओवा ने बरसों तक अपने खेत में प्रयोग किया और एक किताब लिखी- ह्यवन स्ट्रा रेवोल्यूशनह्ण यानी एक तिनके से आई क्रांति। यह पद्धति इतनी सफल हुई है कि अमेरिका में भी अब इसका प्रयोग किया जा रहा है, जहां बिना जुताई की खेती का तेजी से चलन बढ़ा है।
आमतौर से खेती में फसल के अलावा किसी भी तरह के खरपतवार, पेड़-पौधों को दुश्मन माना जाता है, लेकिन कुदरती खेती इन्हीं के सहअस्तित्व से होती है। इन सबसे मित्रवत व्यवहार किया जाता है। पेड़-पौधों को काटा नहीं जाता। जिससे खेत में हरियाली बनी रहती है। राजू बताते हैं कि पेड़ों के कारण खेतों में गहराई तक जड़ों का जाल बुना रहता है, जिससे जमीन ताकतवर बनती जाती है। अनाज और फसलों के पौधे पेड़ों की छाया तले अच्छे होते हैं। छाया का असर जमीन के उपजाऊ होने पर निर्भर करता है। चूंकि हमारी जमीन की उर्वरता और ताकत अधिक है, इसलिए पेड़ों की छाया का फसल पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता। बिना जुताई (नो टिलिंग) के खेती मुश्किल है, ऐसा लगना स्वाभाविक है। जब पहली बार मैंने सुना था, तब मुझे भी विश्वास नहीं हुआ था। लेकिन अब सब देखने के बाद सभी शंकाएं निर्मूल हो गईं। दरअसल, इस पर्यावरणीय पद्धति में मिट्टी की उर्वरता उत्तरोतर बढ़ती जाती है। जबकि रासायनिक खेती में यह क्रमश: घटती जाती है और एक स्थिति के बाद उसमें कुछ भी नहीं उपजता। वह बंजर हो जाती है। वास्तव में कुदरती खेती एक जीवन पद्धति है। इसमें मानव की भूख मिटाने के साथ समस्त जीव-जगत के पालन का विचार है। इससे शुद्ध हवा और पानी मिलता है। धरती को गर्म होने से बचाने और मौसम को नियंत्रण करने में भी मददगार है। इसे ऋषि खेती इसलिए कहा जाता है कि क्योंकि ऋषि-मुनि कंद-मूल, फल और दूध को भोजन के रूप में ग्रहण करते थे। बहुत कम जमीन पर मोटे अनाजों को उपजाते थे। वे धरती को अपनी मां के समान मानते थे। उसे धरती माता कहते थे। उससे उतना ही लेते थे, जितनी जरूरत होती थी। सब कुछ निचोड़ने की नीयत नहीं होती थी। इस सबके मद्देनजर कुदरती खेती भी एक रास्ता हो सकता है। भले ही आज यह व्यावहारिक न लगे लेकिन इसमें वैकल्पिक खेती के सूत्र दिखाई देते हैं।
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हर महीने 70 किसान कर रहे आत्महत्या
विस्फोट न्यूज नेटवर्क/नई दिल्ली
सरकार की तमाम कोशिशों और दावों के बावजूद कर्ज के बोझ तले किसानों की आत्महत्या का सिलसिला नहीं रूक रहा है. देश में हर महीने 70 से अधिक किसान आत्महत्या कर रहे हैं. जबकि एक लाख 25 हजार परिवार सूदखोरों के चंगुल में फंसे हुए हैं...
सूचना के अधिकार कानून के तहत मिली जानकारी के अनुसार, देश में 2008 से 2011 के बीच देशभर में 3,340 किसानों ने आत्महत्या की. इस तरह से हर महीने देश में 70 से अधिक किसान आत्महत्या कर रहे हैं।
आरटीआई के तहत कृषि मंत्रालय के कृषि एवं सहकारिता विभाग से मिली जानकारी के अनुसार, 2008 से 2011 के दौरान सबसे अधिक महाराष्ट्र में 1,862 किसानों ने आत्महत्या की। आंध्रप्रदेश में 1,065 किसानों ने आत्महत्या की. कर्नाटक में इस अवधि में 371 किसानों ने आत्महत्या की। इस अवधि में पंजाब में 31 किसानों ने आत्महत्या की जबकि केरल में 11 किसानों ने कर्ज से तंग आ कर मौत को गले लगाया।
सबसे अधिक कर्ज सूदखोरों से
आरटीआई के तहत मिली जानकारी के अनुसार, देश भर में सबसे अधिक किसानों ने सूदखोरों से कर्ज लिया है। देश में किसानों के 1,25,000 परिवारों के सूदखोरों एवं महाजनों से कर्ज लिया है जबकि 53,902 किसान परिवारों ने व्यापारियों से कर्ज लिया। बैंकों से 1,17,100 किसान परिवारों ने कर्ज लिया जबकि कोओपरेटिव सोसाइटी से किसानों के 1,14,785 परिवारों ने कर्ज लिया. सरकार से 14,769 किसान परिवारों ने और अपने रिश्तेदारों एवं मित्रों से 77,602 किसान परिवारों ने कर्ज लिया। आरटीआई कार्यकर्ता गोपाल प्रसाद ने सूचना के अधिकार के तहत 2007-12 के दौरान भारत में किसानों की मौतों का संख्यावार, क्षेत्रवार ब्यौरा मांगा था। उन किसानों की संख्या के बारे में जानकारी मांगी गई थी जिन्होंने सूदखोरो से कर्ज लिया था।
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अत्याचार के नरक से निकलती हैं चूड़ियां
विस्फोट न्यूज नेटवर्क/नई दिल्ली
महिलाओं की कलाई में चार चांद लगाने वाली चूड़ियों की खनन भले ही सुनने वालों के मन को गुदगुदा देते हों, लेकिन इन चूड़ियों के के उत्पादन के पीछे जो सच्चाई है, उसे जानकर हर मन कड़वा हो जाता है। उत्तर प्रदेश के फिरोजाबाद में कार्यरत लाखों चूड़ी मजदूरों को जिस नरकीय माहौल में रह कर खूबसूरत चूड़ियों के उत्पादन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, उसकी कल्पना चूडी पहनने और खरीदने वाली महिलाएं शायद ही कर पाती होंगी। अधिकतर मजदूर महिलाएं हैं। उन्हें न केवल निर्धारित से कम मजदूरी पर काम करना पड़ रहा है बल्कि ऐसी विषय और नरकीय परिस्तियों में जीने का मजबूतर हैं, जिसे सुन कर मानवता शर्मशार हो जाए। चूड़ी फैक्ट्रियों के मालिकों का मजदूरों पर अत्याचारों का आलम यह है कि उन्हें दोपहर का भोजन करने तक का समय नहीं दिया जाता और वे खाना खाने के लिए हाथ तक धोने नहीं जा सकते क्योंकि मालिकों को लगता है कि वे हाथ धोने जाएंगे तो कांच गलाने वाली भट्टी के जलते रहने के कारण र्इंधन के साथ समय की भी बर्बादी होगी। वरिष्ठ सदस्य हेमानंद बिस्वाल की अध्यक्षता वाली श्रम और रोजगार मंत्रालय संबंधी स्थायी समिति ने मानसून सत्र में पेश अपनी 32वीं रिपोर्ट में चूड़ी कामगारों की बदहाली के आंकड़ें और हालात की कहानी बयां की है। चूड़ी मजदूरों के शोषण का एक आश्चर्यजनक पहलू यह भी है कि जो चूड़ियां बाजार में एक दर्जन में 12 मिलती हैं, उसी एक दर्जन में चूड़ी फैक्ट्रियों के मालिक मजदूरों से 24 चूड़ियां बनवाते हैं। यह न केवल कामगारों बल्कि बाजार में उन चूड़ियोंं को खरीदने वाले उपभोक्ताओं का भी शोषण है।
फिरोजाबाद का प्राचीन इतिहास : फिरोजाबाद के चूड़ी कारोबार के इतिहास के बारे में कहा गया है कि प्राचीन काल में विदेशी आक्रमणकारी कांच से बनी सुंदर कलात्मक वस्तुओं को लेकर भारत आए थे। जब इन वस्तुओं को बेकार करार दे दिया जाता तो उन्हें एकत्र कर फिरोजाबाद स्थित ‘भंैसा भट्ठी’ में डालकर गला लिया जाता था। इस प्रकार फिरोजाबाद में कांच उद्योग का उद्भव हुआ। इस समय अकेले फिरोजाबाद में चूड़ी का कारोबार प्रति वर्ष कई करोड़ रुपये का है। ऐसा अनुमान है कि तीन लाख से अधिक असंगठित कामगार फिरोजाबाद में चूड़ी एवं कांच उद्योग में योगदान देते हैं।
दस राज्यों में एक जैसा हाल : यूं तो आंध्र प्रदेश, बिहार, हरियाणा, झारखंड, राजस्थान और उड़ीसा समेत देश के दस राज्यों में चूड़ी बनाने का काम होता है लेकिन केवल आंध्र प्रदेश में इन कामगारों को सर्वाधिक 197 रुपये प्रतिदिन मजदूरी मिलती है। बिहार में इन्हें 144, झारखंड में 145 रुपये, उत्तराखंड में 144 तथा उड़ीसा में 92 रुपये प्रतिदिन मिलते हैं। उधर चूडी उद्योग के सबसे बडेÞ केंद्र उत्तर प्रदेश में कामगारों को मजदूरी सबसे कम मिलती है और एक औसत आकार वाले परिवार को अधिकतम 80 रुपये तक दिये जाते हैं।
दो रुपये में 315 चूड़ियां : एक गुच्छे में 315 चूडियां होती हैं और एक गुच्छा पूरा करने के लिए परिवार को दो रुपये का भुगतान किया जाता है। एक औसत आकार वाला परिवार एक दिन में 40 गुच्छे पूरे करता है, जिसका अर्थ है 80 रुपये की आय।
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लव,सेक्स और धोखा की दर्दनाक दास्तां
शादी के दबाव पर सह जीवन में रहने वाली श्वेता को 8वीं मंजिल से फेंका
विशाल आनंद/नई दिल्ली।
खूबसूरत श्वेता औरों की खूबसूरती संवारती रही। जब भी उसे खुद की जिंदगी संवारने का ख्याल आता, वक्त उसे खींच कर उस मोड़ पर ले आता जहां सिर्फ अंधेरा, फरेब और रिश्तों के ताने बाने में उलझी सी जिंदगी नजर आती। पति की बेवफाई, फिर प्रेमी का फरेब और आखिर में जिस बचपन की मुहब्बत के भरोसे पर नए सिरे से जिंदगी शुरू करने का फैसला लिया, सह जीवन संबंध में कुछ वक्त गुजार कर उसने भी वफा की आड़ में ऐसा सिला दिया कि वह जिंदगी से हमेशा के लिए विदा हो गई। जी हां.. बुधवार 22 अगस्त को श्वेता की आठवीं मंजिल से गिरकर मौत हो गई। उसकी मौत को पहले खुदकुशी माना गया मगर इस हादसे को आंखों से देखने वाली उसकी मासूम बेटी ने मौत का राज अपनी जुबान से जैसे ही खोला, बचपन की मुहब्बत का कातिल चेहरा बेनकाब हो गया। नापाक मुहब्बत के ददर्नाक अंत की कहानी का गवाह बना है तेजी से उभरता शहर नोएडा। तरक्की पसंद शहरों में बदलते रिश्तों का सवाल छोड़ गई श्वेता की मौत।
ब्यूटीशियन श्वेता की शादी तकरीबन 14 साल पहले बागपत में हुई थी। शादी के शुरुआती दिनों में सब कुछ ठीक ठाक था, मगर ससुराल की बंदिशों और घर से निकलने की पाबंदियों ने आजाद ख्याल श्वेता की जिंदगी को रिवाजों की जंजीरों में इस कदर जकड़ दिया कि हर पल घुट-घुट के जीने को मजबूर रही। जिसके साथ सात फेरे लिए, उसका बर्ताव किसी शैतान से कम न था। श्वेता ने बेटी को जन्म क्या दिया कि ससुराल में मानो कोहराम मच गया। बस यही से उसकी मुश्किलें बढ़ती चली गईं और हालात ने इस कदर मजबूर कर दिया कि शादी के छह साल बाद ही पति से अलग होना पड़ा। बाद में यह रिश्ता तलाक तक पहुंच गया। पति का साथ छूटा तो जमाने की तिरछी निगाहें श्वेता पर टिकने लगीं। श्वेता ने वापस नोएडा आकर फिर से ब्यूटीशियन का काम शुरू कर दिया। फिर जिंदगी को नए सिरे से जीने का जज्बा लेकर वह कुछ वक्त के लिए संभल ही पाई थी कि एक अजनबी रिश्ते ने अपनी ओर खींच लिया। यह शख्स था ईशा खान।
आस और उम्मीदों के बीच तन्हा श्वेता का जब उस अजनबी ईशा खान ने हाथ थामा तो उमंगें फिर से जवां होने लगीं। मयूर विहार फेज थ्री में श्वेता अपनी बेटी को साथ लेकर ईशा खान के संग सहजीवन (लिव इन रिलेशन) में रहने लगीं। कुछ वक्त में खुशियों के पल अपने लिए बटोर ही पाई थी कि उस अजनबी ने भी जिंदगी के सफर में कुछ कदम साथ चलकर हाथ छोड़ दिया।
पति की बेवफाई और प्रेमी का फरेब, श्वेता जिंदगी से इस कदर टूट गई फिर उसने ख्वाब देखना ही बंद कर दिया। मगर वक्त की आंख मिचौली से श्वेता अनजान थी, उसकी स्याह जिंदगी में तकरीबन डेढ़ साल पहले फिर एक और किरदार फरिश्ता बन कर आया। बचपन की बेपनाह मुहब्बत सालों बाद फिर से जवां हुई। यह वही शख्स था जिसने स्कूल टाइम में श्वेता को पहली बार प्रपोज किया, नाम है मुकेश सैनी। बचपन में दोनों के बीच इश्क उस वक्त पनपा जब सदरपुर में पड़ोसी थे। उस दौरान श्वेता और मुकेश सैनी एक ही स्कूल और एक ही क्लास में पढ़ रहे थे। तब दोनों के इश्क की चर्चाएं आम हुईं तो श्वेता के पैरंट्स ने बदनामी के डर से उसकी शादी फौरन बागपत कर दी। दोनों का प्यार किसी मंजिल तक पहुंचने से पहले ही जुदा हो गया। वक्त ने दोनों को फिर एक बार उस मोड़ पर मिलाया, जहां श्वेता की जिंदगी सूनी हो चुकी थी। दोनों की जब मुलाकात हुई तो श्वेता के हाल और हालात देखकर मुकेश ने भरोसे का हवाला देकर हाथ थाम लिया।
एक और सहजीवन : ओखला इलाके की एक फार्मेसी में जॉब करने वाला मुकेश अब श्वेता के साथ नोएडा के सेक्टर 50 स्थित कैलाश अपाटर्मेंट में लिव इन रिलेशन में रहने लगा। शादी के लिए जब भी श्वेता कहती, वह बात को अनसुना कर देता। डेढ़ साल में ही मुकेश का श्वेता से मन भर चुका था। श्वेता की तरफ से शादी के प्रेशर से बचने के लिए मुकेश ने खौफनाक साजिश रच डाली। 22 अगस्त को भी श्वेता और मुकेश के बीच इसी बात को लेकर कहासुनी हुई। थोड़ी देर बाद श्वेता आठवीं मंजिल से गिरकर जमीन पर पड़ी थी। खून से लथपथ श्वेता की सांसें उस वक्त चल रही थीं। अपाटर्मेंट के गेट पर तैनात गार्ड और अन्य लोग जब तक श्वेता को अस्पताल ले कर पहुंचते तब तक बहुत देर हो चुकी थी। श्वेता की मौत हो गई।
बेटी ने कहा -मां को अंकल ने फेंक दिया
पुलिस ने मौका-ए-वारदात पर छानबीन की तो शुरुआती पड़ताल में खुदकुशी का केस दर्ज कर लाश को पोस्टमॉर्टम के लिए भेज दिया। यानी बचपन का यह इश्क उसकी जिंदगी की मौत का सबब बन गया। श्वेता की आठवीं मंजिल से गिरकर मौत हो गई। यह मौत कानून की आंखों में सिर्फ खुदकुशी बनकर फाइलों में बंद हो जाती। यदि वक्त रहते श्वेता की 10 वर्षीय मासूम बेटी राज इस मौत के पीछे की वजहों का खुलासा न करती। पूछताछ के दौरान पुलिस के सामने उस मासूम ने जो कुछ बोला, सुनकर सब हक्के-बक्के रह गये। बेटी ने बताया कि मां को अंकल ने नीचे फेंक दिया। पुलिस ने मुकेश को हिरासत में ले लिया। रिश्तों के फंदों में फंसी श्वेता की मौत के सवालों का जवाब फिलहाल पुलिस ढूंढ रही है।
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पत्नी को नग्न कर करवाता था नृत्य
बैतूल। मध्यप्रदेश के बैतूल में एक शराबी पति द्वारा अमानवीयता की सारी हदें पार करते हुए पति-पत्नी के पवित्र रिश्ते और विश्वास को कलंकित कर दिये जाने का सनसनीखेज मामला सामने आया है।
पति द्वारा शराब के नशे में न सिर्फ पत्नी से नग्न नृत्य करवाया जाता था बल्कि पत्नी के भोजन में मूत्र मिलाकर उसे खाने को मजबूर करता था। पति की अमानवीय हरकतों से तंग आकर पत्नी ने पति से अलग रहने का फैसला किया है। पीड़ित महिला ने मुलताई में परिवार परामर्श केंद्र में अपने साथ हो रहे अमानवीय व्यवहार के बारे में लोगों को बताया तो सभी के रोंगटे खड़े हो गए। घटनाक्रम का सबसे शर्मनाक और सनसनीखेज पहलू यह है कि पीड़ित महिला के पति ने सार्वजनिक रूप से अपना कृत्य कबूल कर भविष्य में ऐसा नहीं करने का आश्वासन दिया है। बाजूद इसके पत्नी ने पति के साथ जाने से इंकार कर दिया। लेकिन आश्चर्यजनक यह है कि थाना परिसर में आयोजित इस बैठक में पति द्वारा अमानवीय कृत्य की सार्वजनिक स्वीकारोक्ति के बावजूद उस पर कोई आपराधिक प्रकरण दर्ज नहीं किया गया है।
बैतूल जिले के मुलताई नगर में कल थाना परिसर में परिवार परामर्श केन््रद की बैठक हुई। समिति में ग्राम कोंढर के एक पति-पत्नी का वाकया सामने आया और जब पत्नी ने अपने साथ हो रहे वाक्ये से अवगत कराया तो परिवार परामर्श समिति के सभी सदस्य हक्के-बक्के रह गए। पत्नी ने बताया कि उसका पति शराब के नशे में चूर होकर प्रतिदिन उसे निर्वस्त्र करके नृत्य करने को मजबूर करता था। पति की इच्छा अनुसार वह भी अनिच्छा से ही पति की बात मानती रही लेकिन हद तब हो गई जब शराबी पति ने अमानवीयता की सारी हदें पार करते हुए उसके भोजन में मूत्र मिला दिया तथा उसे मूत्र मिला खाना खाने को मजबूर करने लगा। महिला की आपबीती सुनकर सभी सदस्य हतप्रभ रह गए। केंद्र में ही उपस्थित महिला का पति परामर्श केंद्र में सदस्यों के सामने कान पकड़कर माफी मांगता रहा और दोबारा इस प्रकार के कृत्य नहीं करने की दुहाई देता रहा लेकिन पति के कृत्यों से तंग आ चुकी पत्नी ने पति के साथ जाने से साफ इंकार कर दिया और सदस्यों से कहा कि अब वह कभी भी अत्याचारी पति के साथ नहीं रहेगी।
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मां को शराब के लिए मार डाला
बिजनौर। शराब के लिए रुपये न देने पर बेटे ने मां की पीट-पीट कर हत्या कर दी। पुलिस ने हत्या के आरोपी पुत्र को गिरफ्तार कर लिया है।
पुलिस सूत्रों के अनुसार थाना हीम
मुक्ति का मार्ग मार्केट है, मंदिर नहीं
बाजार के दबाव में वर्ण व्यवस्था की यह बुनियाद टूट रही है कि हर वर्ण का एक खास कर्म होता है। मार्केट में जाति के झंडाबरदार यह नहीं कह सकते कि सेवा का काम शूद्र करेगा और पढ़ाई-लिखाई ब्राह्माण ही करेगा, या फिर अकाउंटिंग का काम वैश्य करेगा और गार्ड तथा बाउंसर सिर्फ क्षत्रिय जाति के होंगे। अब अकाउंटेंट वह बनेगा जिसने अकाउंटेंसी की पढ़ाई की है और गार्ड वह बनेगा जिसकी कद-काठी ठीक है।
दिलीप मंडल
उड़ीसा के केन्द्रपाड़ा जिले के एक जगन्नाथ मंदिर में दलितों को दीवार के पार खड़े होकर नौ छेदों के पार देवता के दर्शन करने पड़ते थे। कुछ दिन पहले यह खबर आई कि अब एक ही रास्ते से दलित भी प्रवेश करेंगे और एक खास जगह से देवता के दर्शन करेंगे। दलितों के आत्मसम्मान हासिल करने की दिशा में इसे कितना बड़ा कदम माना जाए? केन्द्रपाड़ा के दलितों को जिस अधिकार के लिए लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी वह अधिकार शहरों में रहने वाले दलितों को अपने आप हासिल है। ऐसे में दलित आबादी, यानी देश के हर छह में से एक आदमी के सामने सवाल यह है कि गांव में रहकर अपने सम्मान के लिए लड़ें या शहरों में आकर जन्म तथा कर्म के रिश्ते को खत्म कर दें और कई बंधनों से आजाद हो जाएं।
गांवों को लेकर हो सकता है कि कुछ लोगों के दिमाग में कोई रूमानी कल्पना हो। कोई गांधीवादी यह कह सकता है कि गांव आत्मनिर्भर इकाई के तौर पर एक आदर्श है। लेकिन समाज के एक बड़े हिस्से के लिए गांव कोई शानदार जगह नहीं है। खासकर दलितों के लिए तो कतई नहीं। नेशनल सैंपल सर्वे की रिपोर्ट के मुताबिक देश के 16 फीसदी दलितों के पास सिर्फ नौ फीसदी जमीन है। नौ फीसदी का आंकड़ा फिर भी ठीकठाक लगता है। गांवों की हकीकत को जो भी जानता है उसे इस बात का एहसास होगा कि यह जमीन गांव की सबसे उपजाऊ जमीन कतई नहीं होगी। भूमि संबंधों में दलितों की बुरी स्थिति के ऐतिहासिक कारण हैं। शास्त्रों के मुताबिक, हिन्दू वर्ण व्यवस्था के बाहर की इन जातियों को जमीन या पशुधन रखने की इजाजत नहीं थी। पंजाब जैसे राज्यों में आजादी से पहले कुछ खास जातियों को ही खेती की जमीन खरीदने का हक था और उन जातियों में दलित शामिल नहीं थे। दलितों के घर अब भी बाकी जातियों की आबादी से दूर होते हैं और देश के ज्यादातर हिस्सों में उनके तालाब और कुएं आजादी के 60 साल बाद भी अलग हैं। अब यह सब सिर्फ इसलिए नहीं बदल जाएगा कि भारत सरकार ने अस्पृश्यता निवारण कानून लागू कर दिया है और देश में दलित उत्पीड़न के खिलाफ कानून बना हुआ है।
दलित भारतीय समाज व्यवस्था की विशिष्ट पहचान है। दुनिया के तमाम देशों में भेदभाव अलग-अलग रूपों में मौजूद है, लेकिन वर्ण व्यवस्था हिन्दू समाज की खासियत है। अमेरिका में चमड़े के रंग या नस्ल के आधार पर भेदभाव है, लेकिन भारत में जेनेटिक तौर पर किसी अंतर के बिना ही जाति का उससे भी सख्त बंटवारा है। जाति के बगैर कोई व्यक्ति हिन्दू नहीं हो सकता। वर्ण व्यवस्था के बगैर सनातन धर्म का कोई वजूद नहीं है। यानी हर हिन्दू किसी न किसी जाति में जन्म लेता है और हर हाल में उसी जाति में मरता है। खानपान में समय के साथ कहीं-कहीं खुलापन आया भी है, पर अपनी जाति के बाहर विवाह की इजाजत वर्ण व्यवस्था नहीं देती। और फिर दलित तो हिंदू वर्ण व्यवस्था का हिस्सा भी नहीं है। चार वर्णों से बाहर के इस समुदाय की तुलना आप मध्ययुगीन यूरोप के कृषि दास से ही कर सकते हैं। यूरोप में इंडस्ट्रियल रिवोल्यूशन के बाद नए प्रॉडक्शन सिस्टम के आने और शहरीकरण के असर से कृषि दास समाज में एकाकार हो गए। आज उनकी पहचान नामुमकिन है।
भारत के दलितों की मुक्ति का भी इससे अलग कोई रास्ता नहीं है। दलितों की दुनिया का बदलना दरअसल उत्पादन संबंधों के आधुनिक रूप के साथ उनके एकरूप होने से सीधा जुड़ा हुआ है। अच्छी इंगलिश बोलने वाले हर शख्स को आज कॉल सेंटर में 15,000 रुपये से ज्यादा की नौकरी मिल सकती है। कॉल सेंटर में काम करने का स्किल रखने वालों की इतनी कमी है कि वहां के एचआर डिपाटर्मेंट को इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि नौकरी के लिए आने वाला दलित है या ब्राह्माण। रिटेल से लेकर हॉस्पिटैलिटी सेक्टर तक में काबिल लोगों की जरूरत अचानक बढ़ी है। बाजार के दबाव में वर्ण व्यवस्था की यह बुनियाद टूट रही है कि हर वर्ण का एक खास कर्म होता है। मार्केट में जाति के झंडाबरदार यह नहीं कह सकते कि सेवा का काम शूद्र करेगा और पढ़ाई-लिखाई ब्राह्माण ही करेगा, या फिर अकाउंटिंग का काम वैश्य करेगा और गार्ड तथा बाउंसर सिर्फ क्षत्रिय जाति के होंगे। अब अकाउंटेंट वह बनेगा जिसने अकाउंटेंसी की पढ़ाई की है और गार्ड वह बनेगा जिसकी कद-काठी ठीक है। प्लानिंग का काम मैनेजमेंट पढ़ने वाले करेंगे। जो इन कामों के काबिल नहीं हैं, वे सेवा का काम करेंगे, और वे ब्राह्माण भी हो सकते हैं। मार्केट का असर ऐसा है कि दलित मैनेजर भी आपको मिल जाएंगे और ब्राह्माण सेवक भी। सरकारी सेक्टर में फिर भी टारगेट न होने की वजह से नियुक्तियों में पक्षपात की गुंजाइश है, ऊंचे पदों पर पहले से बैठे अफसर अपने लोगों की भतिर्यां करा सकते हैं, लेकिन प्राइवेट सेक्टर में परफॉर्म करने के दबाव की वजह से कोई मैनेजर शायद ही कभी योग्यता के अलावा किसी और पैमाने पर नियुक्तियां करता है।
कई दलित चिंतक अब कहने लगे हैं कि इंगलिश बोलने वाला कोई दलित मैला नहीं ढोता। उनका यह कहना निराधार नहीं है। इंगलिश एजुकेशन, शहरीकरण और सूटबूट वाले दलित के लिए कई दरवाजे अपने आप खुल जाते हैं। मंदिरों के दरवाजे भी उनमें शामिल हैं। शहरों के मंदिरों के दरवाजे पर कोई यह नहीं पूछता कि आप किस जाति के हैं। और वैसे भी ऐसे पढ़े-लिखे समर्थ दलित को सम्मान के लिए मंदिर का मोहताज क्यों होना चाहिए? हिन्दू वर्ण व्यवस्था उन्हें अपना हिस्सा तो मानती नहीं है। कई दलित आईएएस अफसरों और प्रफेशनल्स ने सवर्ण लड़कियों से शादी की है और ऐसी शादियों की मान्यता के लिए ये समाज की ओर लाचारी से नहीं देख रहे हैं। जबकि जिन गांवों की महिमा गांधीवादी और कई कवि गाते हैं, वहां ऐसी शादी करने वालों को अक्सर जलाकर या गला घोंटकर मार डाला जाता है। इस बात में शक की कोई गुंजाइश नहीं है कि भारत का नया समाज शहरों में ही बन रहा है। दलित को उसी रास्ते पर आगे बढ़ना है।
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मौत पर जश्न, जन्म पर शोक
राजस्थान की गुमनाम जनजाति, सड़क किनारे रहते हंै सातिया समुदाय के गिने-चुने परिवार, मरने पर खरीदते हैं मेवे, शराब। बाहरी लोगों से रहते हंै दूर। नवजातों को देते हैं बद्दुआएं...
विस्फोट न्यूज नेटवर्क
कोटा। जिंदगी में शायद ही ऐसा देखने को मिलता है, जब मौत पर मातम की बजाय जश्न मनाया जाता है। मगर राजस्थान की एक जनजाति ने जिंदगी के आखिरी सफर को एक उत्सव का रूप दे दिया है। यहां किसी की मौत पर शोक नहीं मनाया जाता बल्कि खुशियां मनाई जाती हैं। ठीक इसके उलट किसी के जन्म पर जरूर इस समुदाय में शोक मनाया जाता है।
पूरे राज्य में सड़क के किनारे अस्थायी आश्रय बनाकर रहने वाले सातिया समुदाय में करीब 24 परिवार हैं। यह जनजाति मूल रूप से सड़क किनारे पर मर जाने वाले मवेशियों को ठिकाने लगाने के काम पर ही निर्भर है। इस जाति के लोग पढ़े लिखे भी नहीं हैं और आपराधिक कामों में लिप्त इन लोगों को शराब की लत भी है। इस जाति की महिलाएं भी वेश्यावृति के लिए जानी जाती हैं।
तमाम बुराइयों के बावजूद कुछ ऐसी खास बातें हैं, जिससे यह जनजाति अपनी खास पहचान बनाने में सफल रही है। समुदाय के किसी व्यक्ति की मौत के बाद का अंतिम संस्कार यहां के लोगों के लिए जश्न का समारोह बन जाता है। समुदाय के एक व्यक्ति जंका सातिया ने बताया, इस मौके पर हम नए कपड़े पहनते हैं, मिठाई, मेवे और शराब आदि खरीदते हैं।
शव यात्रा के दौरान लोग ढोल-नगाड़ों की थाप पर नाचते-गाते हैं। अंतिम संस्कार के दौरान दावत का आयोजन होता है, जिसमें शराब पीने के साथ लोग वेश्याओं के साथ नाचते हैं। शव के पूरी तरह से जल जाने तक यह सब चलता रहता है। समुदाय के एक अन्य व्यक्ति की नजरों में जन्म और जीवन भगवान की ओर से दिया गया अभिशाप है। उसका कहना है, मौत हमारे लिए एक उत्सव है, जिससे आत्मा शारीरिक बंधन से आजाद हो जाती है। इस समुदाय पर रिसर्च करने वाले एके सक्सेना का कहना है कि सातिया समुदाय के लोग जीवन को अभिशाप मानते हैं। उन्होंने कहा, हालांकि इस समुदाय में अगर लड़की पैदा होती है, तो उसे ज्यादा तवज्जो दी जाती है क्योंकि वह वेश्यावृति के जरिए परिवार के लिए पैसा कमा सकती है। इस जनजाति में जब किसी का जन्म होता है तो गहरा शोक मनाया जाता है और नवजात शिशु को बद्दुआएं दी जाती हैं। परिवार में कई दिनों तक खाना भी नहीं बनाया जाता है। शहर से दूर सड़कों पर जीवन बिताने वाले यह लोग अक्सर बाहरी लोगों से दूरियां बनाए रखते हैं। सामाजिक कार्यकर्ता अनवर अहमद ने बताया कि इंदिरा आवासीय योजना के तहत इस समुदाय के लोगों को पक्के घर भी मुहैया कराए गए, लेकिन इन्होंने उसे बेच दिया। इस जाति के लोग अपने परिवार के बच्चों को स्कूल भी नहीं भेजते हैं। विरासत एवं प्रकृति फोटोग्राफर एएच जैदी का कहना है कि इनके उत्थान के लिए अब तक कोई भी एनजीओ या सामाजिक संगठन आगे नहीं आया है।
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बिना जुताई भी खेती संभव
मध्यप्रदेश के होशंगाबाद शहर से भोपाल की ओर मात्र 3 किलोमीटर दूर है- टाईटस फार्म। यहां गत 25 साल से कुदरती खेती का अनोखा प्रयोग किया जा रहा है। राजू टाईटस जो स्वयं पहले रासायनिक खेती करते थे, अब कुदरती खेती के लिए विख्यात हो गए हैं। उनके फार्म को देखने देश-विदेश से लोग आते हैं। बाबा मायाराम
मध्यप्रदेश के होशंगाबाद शहर से भोपाल की ओर मात्र 3 किलोमीटर दूर है- टाईटस फार्म। यहां पिछले 25 साल से कुदरती खेती का अनोखा प्रयोग करने वाले राजू टाईटस पहले स्वयं रासायनिक खेती करते थे। उनका कहना है कि अब रासायनिक खेती के दिन लद गए हैं। बेजा रासायनिक खाद, कीटनाशक, नींदानाशक और जुताई से मिट्टी की उर्वरक शक्ति कम हो गई है। तवा बांध की सिंचाई से शुरुआत में समृद्धि जरूर दिखाई दी, लेकिन अब वह दिवास्वप्न में बदल गई है। ऐसे में वैकल्पिक खेती के बारे में विचार करना जरूरी है। इसी परिप्रेक्ष्य में कुदरती खेती का प्रयोग ध्यान खींचता है।
पिछले दिनों जब मैं उनके फार्म पर पहुंचा, तब वे मुख्य द्वार पर मेरा इंतजार कर रहे थे। सबसे पहले उन्होंने चाय के बदले प्राकृतिक पेय पिलाया, जिसे गुड़, नींबू और पानी से तैयार किया गया था। खेत के अमरूद खिलाए और फिर खेत दिखाने ले गए। थोड़ी देर में हम खेतों पर पहुंच गए। इस अनूठे प्रयोग में बराबर की हिस्सेदार उनकी पत्नी शालिनी भी साथ थीं। हरे-भरे अमरूद के वृक्ष हवा में लहलहा रहे थे। एक युवा मजदूर हाथ में यंत्र लिए खरपतवार को सुला रहा था। क्रिम्पर रोलर से खरपतवार को सुला दिया जाता है। इस खेत में गेहूं की बोवनी हो चुकी थी। खेत में ग्रीन ग्राउंड कवर कर रखा था। यानी खरपतवार से ढंककर खेत को रखना। यहां खेत को धान के पुआल से ढंक रखा था। इसमें गाजरघास जैसी खरपतवार का इस्तेमाल किया गया था। पूछने पर बताया कि सामान्य सिंचाई के बाद पुआल या खरपतवार ढंक दी जाती है। सूर्य की किरणों से ऊर्जा पाकर सूखे पुआल के बीच से हरे गेहूं के पौधे ऊपर आ जाते हैं। यह देखना सुखद था। राजू बता रहे थे कि खेत में पुआल ढंकने से सूक्ष्म जीवाणु, केंचुआ, कीड़े-मकोड़े पैदा हो जाते हैं और जमीन को छिद्रित, पोला और पानीदार बनाते हैं। ये सब मिलकर जमीन को उपजाऊ और ताकतवर बनाते हैं, जिससे फसल अच्छी होती है। उनका कहना है कि रासायनिक खेती में धान के खेत में पानी भरकर उसे मचाया जाता है, जिससे पानी नीचे नहीं जा पाता। धरती में नहीं समाता। खेत का ढकाव एक ओर जहां जमीन में जल संरक्षण करता है, यहां के उथले कुओं का जल स्तर बढ़ता है, वहीं दूसरी ओर फसल को कीट प्रकोप से बचाता है, क्योंकि वहां अनेक फसल के कीटों के दुश्मन निवास करते हैं। जिससे रोग लगते ही नहीं हैं।
उनके मुताबिक जब भी खेत में जुताई और बखरनी की जाती है, बारीक मिट्टी को बारिश बहा ले जाती है। साल दर साल खाद-मिट्टी की उपजाऊ परत बारिश में बह जाती है। जिससे खेत भूखे-प्यासे रह जाते हैं और इसलिए इसमें बाहरी निवेश की जरूरत पड़ती है। यानी बाहर से रासायनिक खाद वगैरह डालने की जरूरत पड़ती है। जमीन के अंदर की जैविक खाद, जिसे वैज्ञानिक कार्बन कहते हैं, जुताई से गैस बनकर उड़ जाती है, जो धरती के गरम होने और मौसम परिवर्तन में सहायक होती है। ग्लोबल वार्मिंग और मौसम परिवर्तन इस समय दुनिया में सबसे ज्यादा चिंता का सबब बने हुए हैं। लेकिन अगर बिना जुताई (नो टिलिंग) की पद्धति से खेती की जाए तो यह समस्या नहीं होगी और अब तो जिले में जो ट्रेक्टर-हारवैस्टर की खेती हो रही है, वह ग्लोबल वार्मिंग के हिसाब से उचित नहीं मानी जा सकती।
राजू टाईटस के पास 13.5 एकड़ जमीन है, जिसमें 12 एकड़ में खेती करते हैं। इस साल पड़ोसी की कुछ जमीन पर यह प्रयोग कर रहे हैं। इस 12 एकड़ जमीन में से 11 एकड़ में सुबबूल (आस्ट्रेलियन अगेसिया) का घना जंगल है। यह चारे की एक प्रजाति है। इससे पशुओं के लिए चारा और ईंधन के लिए लकड़ियां मिलती हैं। जिन्हें वे सस्ते दामों पर गरीब मजदूरों को बेच देते हैं। उनके अनुसार सिर्फ लकड़ी बेचने से सालाना आय ढाई लाख की हो जाती है। सिर्फ एक एकड़ जमीन पर ही खेती की जा रही है। राजू बताते हैं कि वह खेती भोजन की जरूरत के अनुसार करते हैं, बाजार के अनुसार नहीं। हमारी जरूरत एक एकड़ से ही पूरी हो जाती है। यहां से हमें अनाज, फल, दूध और सब्जियां मिल जाते हैं, जो परिवार की जरूरत पूरी कर देते हैं। जाड़े में गेहूं, गर्मी में मक्का व मूंग और बारिश में धान की फसल भोजन की आवश्यकता की पूर्ति करते हैं।
कुदरती खेती को ऋषि खेती भी कहते हैं। राजू टाईटस इसे कुदरती-जैविक खेती कहते हैं। जिसमें बाहरी निवेश कुछ भी नहीं डाला जाता। न ही खेत की हल से जुताई की जाती है और न बाहर से किसी प्रकार की मानव निर्मित खाद डाली जाती है। नो टिलिंग यानी बिना जुताई के खेती। पिछले 25 साल से उन्होंने अपने खेत में हल नहीं चलाया और न ही कीटों को मारने के लिए कीटनाशक व दवा का इस्तेमाल किया। यह पूरी तरह अहिंसक कुदरती खेती है। इसकी शुरूआत जापान के मशहूर कृषि वैज्ञानिक मासानोबू फुकुओवा ने की थी, जो स्वयं यहां आए थे। फुकुओवा ने बरसों तक अपने खेत में प्रयोग किया और एक किताब लिखी- ह्यवन स्ट्रा रेवोल्यूशनह्ण यानी एक तिनके से आई क्रांति। यह पद्धति इतनी सफल हुई है कि अमेरिका में भी अब इसका प्रयोग किया जा रहा है, जहां बिना जुताई की खेती का तेजी से चलन बढ़ा है।
आमतौर से खेती में फसल के अलावा किसी भी तरह के खरपतवार, पेड़-पौधों को दुश्मन माना जाता है, लेकिन कुदरती खेती इन्हीं के सहअस्तित्व से होती है। इन सबसे मित्रवत व्यवहार किया जाता है। पेड़-पौधों को काटा नहीं जाता। जिससे खेत में हरियाली बनी रहती है। राजू बताते हैं कि पेड़ों के कारण खेतों में गहराई तक जड़ों का जाल बुना रहता है, जिससे जमीन ताकतवर बनती जाती है। अनाज और फसलों के पौधे पेड़ों की छाया तले अच्छे होते हैं। छाया का असर जमीन के उपजाऊ होने पर निर्भर करता है। चूंकि हमारी जमीन की उर्वरता और ताकत अधिक है, इसलिए पेड़ों की छाया का फसल पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता। बिना जुताई (नो टिलिंग) के खेती मुश्किल है, ऐसा लगना स्वाभाविक है। जब पहली बार मैंने सुना था, तब मुझे भी विश्वास नहीं हुआ था। लेकिन अब सब देखने के बाद सभी शंकाएं निर्मूल हो गईं। दरअसल, इस पर्यावरणीय पद्धति में मिट्टी की उर्वरता उत्तरोतर बढ़ती जाती है। जबकि रासायनिक खेती में यह क्रमश: घटती जाती है और एक स्थिति के बाद उसमें कुछ भी नहीं उपजता। वह बंजर हो जाती है। वास्तव में कुदरती खेती एक जीवन पद्धति है। इसमें मानव की भूख मिटाने के साथ समस्त जीव-जगत के पालन का विचार है। इससे शुद्ध हवा और पानी मिलता है। धरती को गर्म होने से बचाने और मौसम को नियंत्रण करने में भी मददगार है। इसे ऋषि खेती इसलिए कहा जाता है कि क्योंकि ऋषि-मुनि कंद-मूल, फल और दूध को भोजन के रूप में ग्रहण करते थे। बहुत कम जमीन पर मोटे अनाजों को उपजाते थे। वे धरती को अपनी मां के समान मानते थे। उसे धरती माता कहते थे। उससे उतना ही लेते थे, जितनी जरूरत होती थी। सब कुछ निचोड़ने की नीयत नहीं होती थी। इस सबके मद्देनजर कुदरती खेती भी एक रास्ता हो सकता है। भले ही आज यह व्यावहारिक न लगे लेकिन इसमें वैकल्पिक खेती के सूत्र दिखाई देते हैं।
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हर महीने 70 किसान कर रहे आत्महत्या
विस्फोट न्यूज नेटवर्क/नई दिल्ली
सरकार की तमाम कोशिशों और दावों के बावजूद कर्ज के बोझ तले किसानों की आत्महत्या का सिलसिला नहीं रूक रहा है. देश में हर महीने 70 से अधिक किसान आत्महत्या कर रहे हैं. जबकि एक लाख 25 हजार परिवार सूदखोरों के चंगुल में फंसे हुए हैं...
सूचना के अधिकार कानून के तहत मिली जानकारी के अनुसार, देश में 2008 से 2011 के बीच देशभर में 3,340 किसानों ने आत्महत्या की. इस तरह से हर महीने देश में 70 से अधिक किसान आत्महत्या कर रहे हैं।
आरटीआई के तहत कृषि मंत्रालय के कृषि एवं सहकारिता विभाग से मिली जानकारी के अनुसार, 2008 से 2011 के दौरान सबसे अधिक महाराष्ट्र में 1,862 किसानों ने आत्महत्या की। आंध्रप्रदेश में 1,065 किसानों ने आत्महत्या की. कर्नाटक में इस अवधि में 371 किसानों ने आत्महत्या की। इस अवधि में पंजाब में 31 किसानों ने आत्महत्या की जबकि केरल में 11 किसानों ने कर्ज से तंग आ कर मौत को गले लगाया।
सबसे अधिक कर्ज सूदखोरों से
आरटीआई के तहत मिली जानकारी के अनुसार, देश भर में सबसे अधिक किसानों ने सूदखोरों से कर्ज लिया है। देश में किसानों के 1,25,000 परिवारों के सूदखोरों एवं महाजनों से कर्ज लिया है जबकि 53,902 किसान परिवारों ने व्यापारियों से कर्ज लिया। बैंकों से 1,17,100 किसान परिवारों ने कर्ज लिया जबकि कोओपरेटिव सोसाइटी से किसानों के 1,14,785 परिवारों ने कर्ज लिया. सरकार से 14,769 किसान परिवारों ने और अपने रिश्तेदारों एवं मित्रों से 77,602 किसान परिवारों ने कर्ज लिया। आरटीआई कार्यकर्ता गोपाल प्रसाद ने सूचना के अधिकार के तहत 2007-12 के दौरान भारत में किसानों की मौतों का संख्यावार, क्षेत्रवार ब्यौरा मांगा था। उन किसानों की संख्या के बारे में जानकारी मांगी गई थी जिन्होंने सूदखोरो से कर्ज लिया था।
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अत्याचार के नरक से निकलती हैं चूड़ियां
विस्फोट न्यूज नेटवर्क/नई दिल्ली
महिलाओं की कलाई में चार चांद लगाने वाली चूड़ियों की खनन भले ही सुनने वालों के मन को गुदगुदा देते हों, लेकिन इन चूड़ियों के के उत्पादन के पीछे जो सच्चाई है, उसे जानकर हर मन कड़वा हो जाता है। उत्तर प्रदेश के फिरोजाबाद में कार्यरत लाखों चूड़ी मजदूरों को जिस नरकीय माहौल में रह कर खूबसूरत चूड़ियों के उत्पादन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, उसकी कल्पना चूडी पहनने और खरीदने वाली महिलाएं शायद ही कर पाती होंगी। अधिकतर मजदूर महिलाएं हैं। उन्हें न केवल निर्धारित से कम मजदूरी पर काम करना पड़ रहा है बल्कि ऐसी विषय और नरकीय परिस्तियों में जीने का मजबूतर हैं, जिसे सुन कर मानवता शर्मशार हो जाए। चूड़ी फैक्ट्रियों के मालिकों का मजदूरों पर अत्याचारों का आलम यह है कि उन्हें दोपहर का भोजन करने तक का समय नहीं दिया जाता और वे खाना खाने के लिए हाथ तक धोने नहीं जा सकते क्योंकि मालिकों को लगता है कि वे हाथ धोने जाएंगे तो कांच गलाने वाली भट्टी के जलते रहने के कारण र्इंधन के साथ समय की भी बर्बादी होगी। वरिष्ठ सदस्य हेमानंद बिस्वाल की अध्यक्षता वाली श्रम और रोजगार मंत्रालय संबंधी स्थायी समिति ने मानसून सत्र में पेश अपनी 32वीं रिपोर्ट में चूड़ी कामगारों की बदहाली के आंकड़ें और हालात की कहानी बयां की है। चूड़ी मजदूरों के शोषण का एक आश्चर्यजनक पहलू यह भी है कि जो चूड़ियां बाजार में एक दर्जन में 12 मिलती हैं, उसी एक दर्जन में चूड़ी फैक्ट्रियों के मालिक मजदूरों से 24 चूड़ियां बनवाते हैं। यह न केवल कामगारों बल्कि बाजार में उन चूड़ियोंं को खरीदने वाले उपभोक्ताओं का भी शोषण है।
फिरोजाबाद का प्राचीन इतिहास : फिरोजाबाद के चूड़ी कारोबार के इतिहास के बारे में कहा गया है कि प्राचीन काल में विदेशी आक्रमणकारी कांच से बनी सुंदर कलात्मक वस्तुओं को लेकर भारत आए थे। जब इन वस्तुओं को बेकार करार दे दिया जाता तो उन्हें एकत्र कर फिरोजाबाद स्थित ‘भंैसा भट्ठी’ में डालकर गला लिया जाता था। इस प्रकार फिरोजाबाद में कांच उद्योग का उद्भव हुआ। इस समय अकेले फिरोजाबाद में चूड़ी का कारोबार प्रति वर्ष कई करोड़ रुपये का है। ऐसा अनुमान है कि तीन लाख से अधिक असंगठित कामगार फिरोजाबाद में चूड़ी एवं कांच उद्योग में योगदान देते हैं।
दस राज्यों में एक जैसा हाल : यूं तो आंध्र प्रदेश, बिहार, हरियाणा, झारखंड, राजस्थान और उड़ीसा समेत देश के दस राज्यों में चूड़ी बनाने का काम होता है लेकिन केवल आंध्र प्रदेश में इन कामगारों को सर्वाधिक 197 रुपये प्रतिदिन मजदूरी मिलती है। बिहार में इन्हें 144, झारखंड में 145 रुपये, उत्तराखंड में 144 तथा उड़ीसा में 92 रुपये प्रतिदिन मिलते हैं। उधर चूडी उद्योग के सबसे बडेÞ केंद्र उत्तर प्रदेश में कामगारों को मजदूरी सबसे कम मिलती है और एक औसत आकार वाले परिवार को अधिकतम 80 रुपये तक दिये जाते हैं।
दो रुपये में 315 चूड़ियां : एक गुच्छे में 315 चूडियां होती हैं और एक गुच्छा पूरा करने के लिए परिवार को दो रुपये का भुगतान किया जाता है। एक औसत आकार वाला परिवार एक दिन में 40 गुच्छे पूरे करता है, जिसका अर्थ है 80 रुपये की आय।
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लव,सेक्स और धोखा की दर्दनाक दास्तां
शादी के दबाव पर सह जीवन में रहने वाली श्वेता को 8वीं मंजिल से फेंका
विशाल आनंद/नई दिल्ली।
खूबसूरत श्वेता औरों की खूबसूरती संवारती रही। जब भी उसे खुद की जिंदगी संवारने का ख्याल आता, वक्त उसे खींच कर उस मोड़ पर ले आता जहां सिर्फ अंधेरा, फरेब और रिश्तों के ताने बाने में उलझी सी जिंदगी नजर आती। पति की बेवफाई, फिर प्रेमी का फरेब और आखिर में जिस बचपन की मुहब्बत के भरोसे पर नए सिरे से जिंदगी शुरू करने का फैसला लिया, सह जीवन संबंध में कुछ वक्त गुजार कर उसने भी वफा की आड़ में ऐसा सिला दिया कि वह जिंदगी से हमेशा के लिए विदा हो गई। जी हां.. बुधवार 22 अगस्त को श्वेता की आठवीं मंजिल से गिरकर मौत हो गई। उसकी मौत को पहले खुदकुशी माना गया मगर इस हादसे को आंखों से देखने वाली उसकी मासूम बेटी ने मौत का राज अपनी जुबान से जैसे ही खोला, बचपन की मुहब्बत का कातिल चेहरा बेनकाब हो गया। नापाक मुहब्बत के ददर्नाक अंत की कहानी का गवाह बना है तेजी से उभरता शहर नोएडा। तरक्की पसंद शहरों में बदलते रिश्तों का सवाल छोड़ गई श्वेता की मौत।
ब्यूटीशियन श्वेता की शादी तकरीबन 14 साल पहले बागपत में हुई थी। शादी के शुरुआती दिनों में सब कुछ ठीक ठाक था, मगर ससुराल की बंदिशों और घर से निकलने की पाबंदियों ने आजाद ख्याल श्वेता की जिंदगी को रिवाजों की जंजीरों में इस कदर जकड़ दिया कि हर पल घुट-घुट के जीने को मजबूर रही। जिसके साथ सात फेरे लिए, उसका बर्ताव किसी शैतान से कम न था। श्वेता ने बेटी को जन्म क्या दिया कि ससुराल में मानो कोहराम मच गया। बस यही से उसकी मुश्किलें बढ़ती चली गईं और हालात ने इस कदर मजबूर कर दिया कि शादी के छह साल बाद ही पति से अलग होना पड़ा। बाद में यह रिश्ता तलाक तक पहुंच गया। पति का साथ छूटा तो जमाने की तिरछी निगाहें श्वेता पर टिकने लगीं। श्वेता ने वापस नोएडा आकर फिर से ब्यूटीशियन का काम शुरू कर दिया। फिर जिंदगी को नए सिरे से जीने का जज्बा लेकर वह कुछ वक्त के लिए संभल ही पाई थी कि एक अजनबी रिश्ते ने अपनी ओर खींच लिया। यह शख्स था ईशा खान।
आस और उम्मीदों के बीच तन्हा श्वेता का जब उस अजनबी ईशा खान ने हाथ थामा तो उमंगें फिर से जवां होने लगीं। मयूर विहार फेज थ्री में श्वेता अपनी बेटी को साथ लेकर ईशा खान के संग सहजीवन (लिव इन रिलेशन) में रहने लगीं। कुछ वक्त में खुशियों के पल अपने लिए बटोर ही पाई थी कि उस अजनबी ने भी जिंदगी के सफर में कुछ कदम साथ चलकर हाथ छोड़ दिया।
पति की बेवफाई और प्रेमी का फरेब, श्वेता जिंदगी से इस कदर टूट गई फिर उसने ख्वाब देखना ही बंद कर दिया। मगर वक्त की आंख मिचौली से श्वेता अनजान थी, उसकी स्याह जिंदगी में तकरीबन डेढ़ साल पहले फिर एक और किरदार फरिश्ता बन कर आया। बचपन की बेपनाह मुहब्बत सालों बाद फिर से जवां हुई। यह वही शख्स था जिसने स्कूल टाइम में श्वेता को पहली बार प्रपोज किया, नाम है मुकेश सैनी। बचपन में दोनों के बीच इश्क उस वक्त पनपा जब सदरपुर में पड़ोसी थे। उस दौरान श्वेता और मुकेश सैनी एक ही स्कूल और एक ही क्लास में पढ़ रहे थे। तब दोनों के इश्क की चर्चाएं आम हुईं तो श्वेता के पैरंट्स ने बदनामी के डर से उसकी शादी फौरन बागपत कर दी। दोनों का प्यार किसी मंजिल तक पहुंचने से पहले ही जुदा हो गया। वक्त ने दोनों को फिर एक बार उस मोड़ पर मिलाया, जहां श्वेता की जिंदगी सूनी हो चुकी थी। दोनों की जब मुलाकात हुई तो श्वेता के हाल और हालात देखकर मुकेश ने भरोसे का हवाला देकर हाथ थाम लिया।
एक और सहजीवन : ओखला इलाके की एक फार्मेसी में जॉब करने वाला मुकेश अब श्वेता के साथ नोएडा के सेक्टर 50 स्थित कैलाश अपाटर्मेंट में लिव इन रिलेशन में रहने लगा। शादी के लिए जब भी श्वेता कहती, वह बात को अनसुना कर देता। डेढ़ साल में ही मुकेश का श्वेता से मन भर चुका था। श्वेता की तरफ से शादी के प्रेशर से बचने के लिए मुकेश ने खौफनाक साजिश रच डाली। 22 अगस्त को भी श्वेता और मुकेश के बीच इसी बात को लेकर कहासुनी हुई। थोड़ी देर बाद श्वेता आठवीं मंजिल से गिरकर जमीन पर पड़ी थी। खून से लथपथ श्वेता की सांसें उस वक्त चल रही थीं। अपाटर्मेंट के गेट पर तैनात गार्ड और अन्य लोग जब तक श्वेता को अस्पताल ले कर पहुंचते तब तक बहुत देर हो चुकी थी। श्वेता की मौत हो गई।
बेटी ने कहा -मां को अंकल ने फेंक दिया
पुलिस ने मौका-ए-वारदात पर छानबीन की तो शुरुआती पड़ताल में खुदकुशी का केस दर्ज कर लाश को पोस्टमॉर्टम के लिए भेज दिया। यानी बचपन का यह इश्क उसकी जिंदगी की मौत का सबब बन गया। श्वेता की आठवीं मंजिल से गिरकर मौत हो गई। यह मौत कानून की आंखों में सिर्फ खुदकुशी बनकर फाइलों में बंद हो जाती। यदि वक्त रहते श्वेता की 10 वर्षीय मासूम बेटी राज इस मौत के पीछे की वजहों का खुलासा न करती। पूछताछ के दौरान पुलिस के सामने उस मासूम ने जो कुछ बोला, सुनकर सब हक्के-बक्के रह गये। बेटी ने बताया कि मां को अंकल ने नीचे फेंक दिया। पुलिस ने मुकेश को हिरासत में ले लिया। रिश्तों के फंदों में फंसी श्वेता की मौत के सवालों का जवाब फिलहाल पुलिस ढूंढ रही है।
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पत्नी को नग्न कर करवाता था नृत्य
बैतूल। मध्यप्रदेश के बैतूल में एक शराबी पति द्वारा अमानवीयता की सारी हदें पार करते हुए पति-पत्नी के पवित्र रिश्ते और विश्वास को कलंकित कर दिये जाने का सनसनीखेज मामला सामने आया है।
पति द्वारा शराब के नशे में न सिर्फ पत्नी से नग्न नृत्य करवाया जाता था बल्कि पत्नी के भोजन में मूत्र मिलाकर उसे खाने को मजबूर करता था। पति की अमानवीय हरकतों से तंग आकर पत्नी ने पति से अलग रहने का फैसला किया है। पीड़ित महिला ने मुलताई में परिवार परामर्श केंद्र में अपने साथ हो रहे अमानवीय व्यवहार के बारे में लोगों को बताया तो सभी के रोंगटे खड़े हो गए। घटनाक्रम का सबसे शर्मनाक और सनसनीखेज पहलू यह है कि पीड़ित महिला के पति ने सार्वजनिक रूप से अपना कृत्य कबूल कर भविष्य में ऐसा नहीं करने का आश्वासन दिया है। बाजूद इसके पत्नी ने पति के साथ जाने से इंकार कर दिया। लेकिन आश्चर्यजनक यह है कि थाना परिसर में आयोजित इस बैठक में पति द्वारा अमानवीय कृत्य की सार्वजनिक स्वीकारोक्ति के बावजूद उस पर कोई आपराधिक प्रकरण दर्ज नहीं किया गया है।
बैतूल जिले के मुलताई नगर में कल थाना परिसर में परिवार परामर्श केन््रद की बैठक हुई। समिति में ग्राम कोंढर के एक पति-पत्नी का वाकया सामने आया और जब पत्नी ने अपने साथ हो रहे वाक्ये से अवगत कराया तो परिवार परामर्श समिति के सभी सदस्य हक्के-बक्के रह गए। पत्नी ने बताया कि उसका पति शराब के नशे में चूर होकर प्रतिदिन उसे निर्वस्त्र करके नृत्य करने को मजबूर करता था। पति की इच्छा अनुसार वह भी अनिच्छा से ही पति की बात मानती रही लेकिन हद तब हो गई जब शराबी पति ने अमानवीयता की सारी हदें पार करते हुए उसके भोजन में मूत्र मिला दिया तथा उसे मूत्र मिला खाना खाने को मजबूर करने लगा। महिला की आपबीती सुनकर सभी सदस्य हतप्रभ रह गए। केंद्र में ही उपस्थित महिला का पति परामर्श केंद्र में सदस्यों के सामने कान पकड़कर माफी मांगता रहा और दोबारा इस प्रकार के कृत्य नहीं करने की दुहाई देता रहा लेकिन पति के कृत्यों से तंग आ चुकी पत्नी ने पति के साथ जाने से साफ इंकार कर दिया और सदस्यों से कहा कि अब वह कभी भी अत्याचारी पति के साथ नहीं रहेगी।
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मां को शराब के लिए मार डाला
बिजनौर। शराब के लिए रुपये न देने पर बेटे ने मां की पीट-पीट कर हत्या कर दी। पुलिस ने हत्या के आरोपी पुत्र को गिरफ्तार कर लिया है।
पुलिस सूत्रों के अनुसार थाना हीम
Tuesday, 9 October 2012
octobar 2012
कालचक्र
मोहनी हवा में हलाल देहात के हाट
शहर में अपने उत्पादों को बेचते-बेचते ऊब चुकी कॉरपोरेट कंपनियों ने गांवों में बाजार विकसित कर लिया। कॉरपोरेट व्यवस्था की नीति ही है कि वह किसी व जिस भी बाजार में जाए वहां पहले से जमे उसके जैसे उत्पादों के बाजार को किसी न किसी तरह से प्रभावित करें। इसमें सफलता का सबसे बेहतर तरीका है कि प्रतिस्पर्धी की मौलिक योग्यता नष्ट कर दी जाए। संजय स्वदेश
करीब बरस पहले जब देश की अर्थव्यवस्था बदहाल थी, तब उसे मजबूत करने के नाम पर तब के वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने देश के द्वार विदेशी बाजारों के लिए खोल दिए। तरह-तरह के सपनें दिखाकर जनता को विदेशी कंपनियों के लिए तैयार कर लिया गया। हालांकि उससे देश के विकास पर फर्क भी पड़ा। बाजार में पैसे का प्रवाह तेज हुआ, लोग समृद्ध भी हुए। पर इस प्रवाह में देश का पारंपरिक व मौलिक बाजार का वह ढांचा चरमरा गया, जिस कीमत में न केवल संतोष था, बल्कि सुख-चैन भी था। मनमोहन सिंह की मनमोहनी नीतियों के लागू होने से मिले कथित सुख समृद्धि के पीछे से चले आ रहे घातक परिदृश्य अब सामने आने लगे हैं।
बाजार के जानकार कहते हैं कि केवल कृषि उत्पादों और स्वास्थ्य सेवाओं पर करीब 54 लाख करोड़ रुपएा हर साल बहकर देश से बाहर चला जाता है। यदि परंपरागत बाजार के ढांचे में इतने धन का प्रवाह देश में ही होता तो शायद उदारीकरण की समृद्धि के पीछे चली नाकरात्मक चीजें देश की मौलिक व पारंपरिक ढांचे को नहीं तोड़ती।
उदारीकरण की मनमोहनी हवा चलन से पहले गांव के बाजार पारंपरिक हाट की शक्ल में ही गुलजार होते थे। यही समय गांव के बाजार के गुलजार होने का उत्तराद्ध काल था। करीब दो दशक में ही आधुनिक बाजार के थपेड़ों में पारंपरिक गांव के बाजार में सजने वाले वे सभी उत्पाद गायब हो चुके हैं, जो कुटीर उद्योगों के माध्यम से ग्रामीण अर्थव्यवस्था की संरचना को मजबूत किए हुए थे। यहां एक उदाहरण गिनाने से बात नहीं बनेगी। 20 साल पहले जिन्होंने हाट का झरोखा देखा होगा, उनके मन मस्तिष्क में उन उत्पादों के रेखाचित्र सहज की उभर आएंगे। फिलहाल तब से अब तक देश करीब डेढ़ पीढ़ी आगे आ चुका है।
जरा गौर से देंखे। मन में मंथन करें। जिस गांव में शहर की हर सुविधा के कमोवेश पहुंचने के दंभ पर सफल विकास के दावे किए जा रहे हैं, उसका असली लाभ कौन ले रहा है। कहने और उदाहरण देने की जरूरत नहीं है कि उन फटेहाल ग्रामीण या किसानों की संख्या में कमी नहीं आई है जो आज भी जी तोड़ मेहनत मजदूरी और महंगी लागत के बाद आराम की रोटी खाने लायक मुनाफे से दूर हैं। पर शहर में अपने उत्पादों को बेचते-बेचते ऊब चुकी कॉरपोरेट कंपनियों ने गांवों में बाजार विकसित कर लिया। कॉरपोरेट व्यवस्था की नीति ही है कि वह किसी व जिस भी बाजार में जाए वहां पहले से जमे उसके जैसे उत्पादों के बाजार को किसी न किसी तरह से प्रभावित करें। इसमें सफलता का सबसे बेहतर तरीका है कि प्रतिस्पर्धी की मौलिक योग्यता नष्ट कर दी जाए। मतलब दूसरे की मौलिक उत्पादन की क्षमता की संरचना को ही खंडित करके बाजार में अपनी पैठ बना कर जेब में मोटा मुनाफा ठूसा जा सकता है।
विदेशी पूंजी के बयार से जब बाजार गुलजार हुआ तब लघु और मध्यम श्रेणी की औद्योगिक गतिविधियों में काफी हलचल हुई, उसके आंकड़ों को गिना कर सरकार ने समय-समय पर अपनी पीठ भी थपथपाई। आज उसी नीति की सरकार के आंकड़े जो हकीकत बयां कर रहे हैं, वे भविष्य के लिए सुखद नहीं कहे जा सकते। सरकार ने संसद में जो ताजा जानकारी दी है उसके मुताबिक 31 मार्च 2007 की स्थिति के मुताबिक देश में पांच लाख पंजीकृत उद्यमों को बंद किया गया। सबसे ज्यादा 82966 इकाइयां तमिलनाडु में बंद हुर्इं। इसके बाद 80616 इकाइयां उत्तर प्रदेश में, 47581 इकाइयां कर्नाटक में, 41856 इकाइयां महाराष्ट्र में, 36502 इकाइयां मध्य प्रदेश में और 34945 इकाइयां गुजरात में बंद करनी पड़ीं।
जो उद्यमी आर्थिक रूप से थोड़े मजबूत होते हैं और अपने उद्यम के दम पर भविष्य में बेहतर कमाई की संभावना देखते हैं, अमूमन वे ही पंजीयन कराते हैं। बंद होने के सरकारी आंकड़ों के आधार पर यह अनुमान लगाना कठिन नहीं होगा कि जब पंजीकृत उद्यमों को अकाल मौत आ गई, तब देश के परंपरागत कुटीर उद्योगों का क्या हश्र हुआ हो, वे कैसे दम तोड़े होंगे। उनसे जुड़े लाखों लोगों इससे टूटने के बाद कैसे जीवन जी रहे होंगे। इनकी संख्या का कितना अनुमान लगाएंगे, ए तो गैर पंजीकृत थे।
कॉरपोरेट के रूप में आई विदेशी पूंजी का तेज प्रवाह ने ही कुटीर उद्योगों की मौलिक कार्यकुशलता की योग्यता को नष्ट कर दिया। गांवों में ही तैयार होने वाले पारंपरिक उत्पाद के ढांचे को तोड़ दिया। हसियां, हथौड़ा, कुदाल, फावड़े तक बनाने के धंधे कॉरपोरेट कंपनियों ने गांवों के कारीगरों से छीन लिए। इस पेशे से जुड़े कारीगर अब कहां है? कभी कभार बड़े शहर की शक्ल में बदलते अर्द्धविकसित शहर के किसी चौक-चौराहे पर ऐसे कारीगर परिवार के साथ फटेहाली में तंबू लगाए दिख सकते हैं। पर उन्हें हमेशा काम मिलता हो, ऐसी बात नहीं है। सब कुछ तो बाजार में है। यह तो एक उदहारण है। लकड़ी के कारिगरों के हाल देख लें। बड़े-बड़े धन्ना सेठों ने इसके कारोबार पर कब्जा कर लिया। इस परंपरागत पेशे जुड़े कारीगर अब उनके लिए मामूली रकम में रौदा घंसते हुए उनकी जेबें मोटी कर रहे हैं। हालांकि कंपनियों ने लकड़ी की उपयोगिता के ढेरों विकल्प दे दिए हैं। यह सब कुछ गांव तक पहुंच चुका है। शहर से लगे गांव के अस्तित्व तो कब के मिल चुके हैं। दूरवर्ती गांवों में तेजी से रियल इस्टेट का कारोबार सधे हुए कदमों से पांव पसार रहा है। शायद इसी दंभ पर स्टील कंपनियां निकट भविष्य में केवल ग्रामीण इलाके में अपने लिए 17 हजार करोड़ डॉलर का बाजार देख अपनी तिजोरी बढ़Þाने के सपनें संजो रही हैं।
फिलहाल वर्तमान भारतीय ग्रामीण बाजार पर एक ताजे शोध रिपोर्ट में यह दावा किया गया है कि इसका दायरा करीब 500 अरब डॉलर तक का पहुंच गया है। इस दायरे की रफ्तार शहरी बाजार से भी तेज है। मतलब शहरों में जो खपत चाहिए, उस बाजार का दायरा अब नहीं बढ़Þेगा, बस कंपनियों को उत्पादन की आपूर्ति में बनाए रखने भर की मशक्कत करनी है। हालांकि इसमें प्रतियोगिता भी है। लेकिन इस गलाकाट प्रतियोगिता में कोई स्वतंत्र रूप से मौलिक उत्पादन लेकर अपनी जगह बना सके, इसकी गुंजाइश कम बची है। देश के ग्रामीण इलाकों के व्यापक दायरे में तीस प्रतिशत की गति से दौड़ कर आते बाजार को आम लोग भले ही विकास के नाम पर स्वागत कर रहे हों, लेकिन इस गति से और दूर होती मौलिक उत्पाद की टूटती संरचना के पुर्नजीवन की बात हास्यास्पद हो जाएगी। इसके पक्ष में उम्मीद की कोई प्रखर किरण भी आएगी, इसकी अपेक्षा करना बेकार है, क्योंकि दो दशक के उदारीकरण के दौर ने एक ऐसी पीढ़ी बना दी है जो केवल इसी बाजार से उत्पन्न समाज में जी सकता है,उसके आगे की पीढ़ी भी इसी पीढ़ी का अनुसरण करेगी।
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21 सितंबर 2012 को राष्ट्र के नाम प्रधान मंत्री का संदेश
दुनिया उन पर रहम नहीं करती जो अपनी
मुश्किलों का खुद हल नहीं करते
इसके नतीजे में पेट्रोलियम पदार्थों पर दी जाने वाली सब्सिडी में बड़े पैमाने पर इजाफा हुआ है। पिछले साल यह सब्सिडी 1 लाख चालीस हजार करोड़ रुपए थी। अगर हमने कोई कार्रवाई न की होती तो इस साल यह सब्सिडी बढ़Þकर 2 लाख करोड़ रुपए से भी ज्यादा हो जाती। इसके लिए पैसा कहां से आता? पैसा पेड़ों पर तो लगता नहीं है। अगर हमने कोई कार्रवाई नहीं की होती तो वित्तीय घाटा कहीं ज्यादा बढ़Þ जाता।
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भाइयो और बहनो,
आज शाम मैं आपको यह बताना चाहता हूं कि सरकार ने किन वजहों से हाल ही में आर्थिक नीतियों से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण फैसले लिए हैं। कुछ राजनीतिक दलों ने इन फैसलों का विरोध किया है। आपको यह सच्चाई जानने का हक है कि हमने ए निर्णय क्यों लिए हैं।
कोई भी सरकार आम आदमी पर बोझ नहीं डालना चाहती। हमारी सरकार को दो बार आम आदमी की जरूरतों का ख्याल रखने के लिए ही चुना गया है।
सरकार की यह जिम्मेदारी है कि वह राष्ट्रहित में काम करे और जनता के भविष्य को सुरक्षित रखे। इसके लिए हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हमारी अर्थव्यवस्था का तेजी से विकास हो जिससे देश के नौजवानों के लिए पर्याप्त संख्या में अच्छे रोजगार के नए मौके पैदा हों। तेज आर्थिक विकास इसलिए भी जरूरी है कि हम शिक्षा, स्वास्थ्य, आवासीय सुविधाओं और ग्रामीण इलाकों में रोजगार उपलब्ध कराने के लिए जरूरी रकम जुटा सकें।
आज चुनौती यह है कि हमें यह काम ऐसे समय पर करना है जब विश्व अर्थव्यवस्था बड़ी मुश्किलों के दौर से गुजर रही है। अमरीका और यूरोप आर्थिक मंदी और वित्तीय कठिनाइयों से निपटने की कोशिश कर रहे हैं। यहां तक कि चीन को भी आर्थिक मंदी का एहसास हो रहा है।
इस सबका असर हम पर भी हुआ है, हालांकि मेरा यह मानना है कि हम दुनिया भर में छाई आर्थिक मंदी के असर को काबू में रखने में काफी हद तक कामयाब हुए हैं।
आज हम ऐसे मुकाम पर हैं, जहां पर हम अपने विकास में आई मंदी को खत्म कर सकते हैं। हमें देश के अंदर और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निवेशकों के विश्वास को फिर से कायम करना होगा। जो फैसले हमने हाल ही में लिए हैं, वे इस मकसद को हासिल करने के लिए जरूरी थे।
मैं सबसे पहले डीजल के दामों में बढ़Þोत्तरी और एलपीजी सिलिंडरों पर लगाई गई सीमा के बारे में बात करना चाहूंगा।
हम अपनी जरूरत के तेल का करीब 80 प्रतिशत आयात करते हैं और पिछले चार सालों के दौरान विश्व बाजार में तेल की कीमतों में तेजी से बढ़Þोत्तरी हुई है। हमने इन बढ़Þी हुई कीमतों का सारा बोझ आप पर नहीं पड़ने दिया। हमारी कोशिश यह रही है कि जहां तक हो सके आपको इस परेशानी से बचाए रखें। इसके नतीजे में पेट्रोलियम पदार्थों पर दी जाने वाली सब्सिडी में बड़े पैमाने पर इजाफा हुआ है। पिछले साल यह सब्सिडी 1 लाख चालीस हजार करोड़ रुपए थी। अगर हमने कोई कार्रवाई न की होती तो इस साल यह सब्सिडी बढ़Þकर 2 लाख करोड़ रुपए से भी ज्यादा हो जाती। इसके लिए पैसा कहां से आता? पैसा पेड़ों पर तो लगता नहीं है। अगर हमने कोई कार्रवाई नहीं की होती तो वित्तीय घाटा कहीं ज्यादा बढ़Þ जाता। यानि कि सरकारी आमदनी के मुकाबले खर्च बर्दाश्त की हद से ज्यादा बढ़Þ जाता। अगर इसको रोका नहीं जाता तो रोजमर्रा के इस्तेमाल की चीजों की कीमतें और तेजी से बढ़Þने लगतीं। निवेशकों का विश्वास भारत में कम हो जाता। निवेशक, चाहे वह घरेलू हों या विदेशी, हमारी अर्थव्यवस्था में पूंजी लगाने से कतराने लगते। ब्याज की दरें बढ़Þ जातीं और हमारी कंपनियां देश के बाहर कर्ज नहीं ले पातीं। बेरोजगारी भी बढ़Þ जाती।
पिछली मर्तबा 1991 में हमने ऐसी मुश्किल का सामना किया था। उस समय कोई भी हमें छोटे से छोटा कर्ज देने के लिए तैयार नहीं था। उस संकट का हम कड़े कदम उठाकर ही सामना कर पाए थे। उन कदमों के अच्छे नतीजे आज हम देख रहे हैं। आज हम उस स्थिति में तो नहीं हैं लेकिन इससे पहले कि लोगों का भरोसा हमारी अर्थव्यवस्था में खत्म हो जाए, हमें जरूरी कदम उठाने होंगे। मुझे यह अच्छी तरह मालूम है कि 1991 में क्या हुआ था। प्रधानमंत्री होने के नाते मेरा यह फर्ज है कि मैं हालात पर काबू पाने के लिए कड़े कदम उठाऊं। दुनिया उन पर रहम नहीं करती जो अपनी मुश्किलों को खुद हल नहीं करते हैं। आज बहुत से यूरोपीय देश ऐसी स्थिति का सामना कर रहे हैं। वे अपनी जिÞम्मेदारियों का खर्च नहीं उठा पा रहे हैं और दूसरों से मदद की उम्मीद कर रहे हैं। वे अपने कर्मचारियों के वेतन या पेंशन में कटौती करने पर मजबूर हैं ताकि कर्ज देने वालों का भरोसा हासिल कर सकें।
मेरा पक्का इरादा है कि मैं भारत को इस स्थिति में नहीं पहुंचने दूंगा। लेकिन मैं अपनी कोशिश में तभी कामयाब हो सकूंगा जब आपको ए समझा सकूं कि हमने हाल के कदम क्यों उठाए हैं।
डीजल पर होने वाले घाटे को पूरी तरह खत्म करने के लिए डीजल का मूल्य 17 रुपए प्रति लीटर बढ़Þाने की जरूरत थी। लेकिन हमने सिर्फ 5 रुपए प्रति लीटर मूल्य वृद्धि की है। डीजल की अधिकतर खपत खुशहाल तबकों, कारोबार और कारखानों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली बड़ी कारों और एस.यू.वी. के लिए होती है। इन सबको सब्सिडी देने के लिए क्या सरकार को बड़े वित्तीय घाटों को बर्दाश्त करना चाहिए?
पेट्रोल के दामों को न बढ़Þने देने के लिए हमने पेट्रोल पर टैक्स 5 रुपए प्रति लीटर कम किया है। यह हमने इसलिए किया कि स्कूटरों और मोटरसाइकिलों पर चलने वाले मध्य वर्ग के करोड़ों लोगों पर बोझ और न बढ़Þे।
जहां तक एलपीजी की बात है, हमने एक साल में रियायती दरों पर 6 सिलिंडरों की सीमा तय की है। हमारी आबादी के करीब आधे लोग, जिन्हें सहायता की सबसे ज्यादा जरूरत है, साल भर में 6 या उससे कम सिलिंडर ही इस्तेमाल करते हैं। हमने इस बात को सुनिश्चित किया है कि उनकी जरूरतें पूरी होती रहें। बाकी लोगों को भी रियायती दरों पर 6 सिलिंडर मिलेंगे। पर इससे अधिक सिलिंडरों के लिए उन्हें ज्यादा कीमत देनी होगी।
हमने मिट्टी के तेल की कीमतों को नहीं बढ़Þने दिया है क्योंकि इसका इस्तेमाल गरीब लोग करते हैं।
मेरे प्यारे भाइयो और बहनो,
मैं आपको बताना चाहता हूं कि कीमतों में इस वृद्धि के बाद भी भारत में डीजल और एलपीजी के दाम बांगलादेश, नेपाल, श्रीलंका और पाकिस्तान से कम हैं। फिर भी पेट्रोलियम पदार्थों पर कुल सब्सिडी 160 हजार करोड़ रुपए रहेगी। स्वास्थ्य और शिक्षा पर हम कुल मिलाकर इससे कम खर्च करते हैं। हम कीमतें और ज्यादा बढ़Þाने से रुक गए क्योंकि मुझे उम्मीद है कि तेल के दामों में गिरावट आएगी।
अब मैं खुदरा व्यापार यानि रिटेल ट्रेड में विदेशी निवेश की अनुमति देने के फैसले का जिÞक्र करना चाहूंगा। कुछ लोगों का मानना है कि इससे छोटे व्यापारियों को नुकसान पहुंचेगा। यह सच नहीं है। संगठित और आधुनिक खुदरा व्यापार पहले से ही हमारे देश में मौजूद है और बढ़Þ रहा है। हमारे सभी खास शहरों में बड़े खुदरा व्यापारी मौजूद हैं। हमारी राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में अनेक नए शॉपिग सेंटर हैं। पर हाल के सालों में यहां छोटी दुकानों की तादाद में भी तीन-गुना बढ़Þोत्तरी हुई है। एक बढ़Þती हुई अर्थव्यवस्था में बड़े एवं छोटे कारोबार, दोनों के बढ़Þने के लिए जगह रहती है। यह डर बेबुनियाद है कि छोटे खुदरा कारोबारी मिट जाएंगे।
हमें यह भी याद रखना चाहिए कि संगठित खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश की अनुमति देने से किसानों को लाभ होगा। हमने जो नियम बनाए हैं उनमें यह शर्त है कि जो विदेशी कंपनियां सीधा निवेश करेंगी उन्हें अपने धन का 50 प्रतिशत हिस्सा नए गोदामों, कोल्?ड स्?टोरेज और आधुनिक ट्रांसपोर्टर व्यवस्थाओं को बनाने के लिए लगाना होगा। इससे यह फायदा होगा कि हमारे फलों और सब्जियों का 30 प्रतिशत हिस्सा, जो अभी स्?टोरेज और ट्रांसपोर्टर में कमियों की वजह से खराब हो जाता है, वह उपभोक्ताओं तक पहुंच सकेगा। बरबादी कम होने के साथ-साथ किसानों को मिलने वाले दाम बढ़Þेंगे और उपभोक्ताओं को चीजें कम दामों पर मिलेंगी। संगठित खुदरा व्यापार का विकास होने से अच्छी किस्म के रोजगार के लाखों नए मौके पैदा होंगे।
हम यह जानते हैं कि कुछ राजनीतिक दल हमारे इस कदम से सहमत नहीं हैं। इसीलिए राज्य सरकारों को यह छूट दी गई है कि वह इस बात का फैसला खुद करें कि उनके राज्य में खुदरा व्यापार के लिए विदेशी निवेश आ सकता है या नहीं। लेकिन किसी भी राज्य को यह हक नहीं है कि वह अन्य राज्यों को अपने किसानों, नौजवानों और उपभोक्ताओं के लिए बेहतर जिÞंदगी ढूंढने से रोके।
1991 में, जब हमने भारत में उत्पादन के क्षेत्र में विदेशी निवेश का रास्ता खोला था, तो बहुत से लोगों को फिक्र हुई थी। आज भारतीय कंपनियां देश और विदेश दोनों में विदेशी कंपनियों से मुकाबला कर रही हैं और अन्य देशों में भी निवेश कर रही हैं। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि विदेशी कंपनियां इन्?फॉरमेशन टेक्?नोलॉजी, स्टील एवं आॅटो उद्योग जैसे क्षेत्रों में हमारे नौजवानों के लिए रोजगार के नए मौके पैदा करा रही हैं। मुझे यकीन है कि खुदरा कारोबार के क्षेत्र में भी ऐसा ही होगा।
मेरे प्यारे भाइयो और बहनो,
यूपीए सरकार आम आदमी की सरकार है। पिछले 8 वर्षों में हमारी अर्थव्यवस्था 8.2 प्रतिशत प्रति वर्ष की रिकार्ड से बढ़Þी है। हमने यह सुनिश्चित किया है कि गरीबी ज्यादा तेजी से घटे, कृषि का विकास तेज हो और गांवों में भी लोग उपभोग की वस्तुओं को ज्यादा इस्तेमाल कर सकें। हमें और ज्यादा कोशिश करने की जरूरत है और हम ऐसा ही करेंगे। आम आदमी को फायदा पहुंचाने के लिए हमें आर्थिक विकास की गति को बढ़Þाना है। हमें भारी वित्तीय घाटों से भी बचना होगा ताकि भारत की अर्थव्यवस्था के प्रति विश्वास मजबूत हो। मैं आपसे यह वादा करता हूं कि देश को तेज और इन्क्सूसिव विकास के रास्ते पर वापस लाने के लिए मैं हर मुमकिन कोशिश करूंगा। परंतु मुझे आपके विश्वास और समर्थन की जरूरत है। आप उन लोगों के बहकावे में न आएं जो आपको डराकर और गलत जानकारी देकर गुमराह करना चाहते हैं। 1991 में इन लोगों ने इसी तरह के हथकंडे अपनाए थे। उस वक्त भी वह कामयाब नहीं हुए थे। और इस बार भी वह नाकाम रहेंगे। मुझे भारत की जनता की सूझ-बूझ में पूरा विश्वास है।
हमें राष्ट्र के हितों के लिए बहुत काम करना है और इसमें हम देर नहीं करेंगे। कई मौकों पर हमें आसान रास्तों को छोड़कर मुश्किल राह अपनाने की जरूरत होती है। यह एक ऐसा ही मौका है। कड़े कदम उठाने का वक्त आ गया है। इस वक्त मुझे आपके विश्वास, सहयोग और समर्थन की जरूरत है।
इस महान देश का प्रधान मंत्री होने के नाते मैं आप सभी से कहता हूं कि आप मेरे हाथ मजबूत करें ताकि हम देश को आगे ले जा सकें और अपने और आने वाली पीढ़ियों के लिए खुशहाल भविष्य का निर्माण कर सकें।
जय हिन्द !
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पाक में नापाक हिंदू hoti लड़कियां
पाकिस्तान में हिंदुओं के हालात बेहद खराब है। पिछले दो दिनों सैकड़ों हिंदुओं के जत्थे भारत में तीर्थयात्रा के बहाने से आए। सीमा पर उन्हें रोका गया। उनसे गीता पर शपथ दिलाई गई कि वे भारत जाकर पाकिस्तान को बदनाम नहीं करेंगे। लेकिन भारत आते ही पाक हिंदुओं ने अपने ऊपर पाकिस्तान में होने वाले जुल्मों की दस्ता सुनानी शुरू कर दी है। अब वे कह रहे हैं कि भले ही उन्हें गोली मार दी जाए, लेकिन वे भारत से वापस नहीं जाएंगे। उनका कहना है कि जिस धरती पर उनकी बहन, बेटियों को जानबूझ कर नापाक किया जा रहा है, वह रहे तो कैसे रहें?
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शादाब समी/ संजय स्वदेश
भारत के बहुसंख्यक हिंदु समुदाय पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में अल्पसंख्यक है। वहां उन्हें हिंदू होने की भारी कीमत चुकानी पड़ रही है। उनके साथ लूट की घटनाएं आम हैं। हिंदू व्यापारियों का उपहरण कोई आश्चर्य का विषय नहीं हैं। हर क्षेत्र में भेदभाव से पाक में रहने वाले हिंदू उब कर देश छोड़ने के लिए मजबूर हैं। कुछ तो अपनी पूरा जमीन जायदाद बेच कर किसी न किसी बहाने भारत आ कर भीड़ में गुम हो जाना चाहते हैं। भारत आने वाले हिंदुओं की दास्तां निश्चय ही दुखांत है। पिछले दिनों मीडिया में आई रिपोर्ट से स्पष्ट हो गया कि पाकिस्तान में हिंदू महिलाओं की आबरू सुरक्षित नहीं है। इसकी पुष्टि तो पाकिस्तान की सरकारी रिपोर्ट भी करती है। वर्ष 2010 में पाकिस्तान के मानवाधिकार आयोग ने एक रिपोर्ट में कहा था कि पाक में हर महीने 25 हिंदू लड़कियों का अपहरण हो रहा है। बाली उमर में ही हिंदू लड़कियों का अपहरण कर उनके साथ दुष्कर्म किया जाता है। उन्हें धर्म परिवर्तन करा कर निकाह किया जाता है और घर में नौकरों की तरह काम कराया लिया जाता है। पहले सिंध प्रांत के गोटकी जिले से आये एक परिवार ने कहा कि सबसे अधिक समस्या सिंध में है। दिन दहाडे हिंदू लड़कियों को उठा लेना और उसके साथ निकाह कर लेना आम है। पुलिस हमारी मदद नहीं करती है। रिपोर्ट करने पर ‘ईश निंदा कानून’ लगा कर ‘बंद’ करने की धमकी देते हैं।
ुइसी वर्ष मार्च में पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट में एक मामला गया। 19 वर्षीय रिंकल कमारी नाम की लड़की ने कोर्ट से एक दर्दनाक गुहार लगाई। रिंकल ने कोर्ट से कहा कि उसे हिंदू होने के कारण पाकिस्तान में न्याय नहीं मिल सकता है, लिहाजा उसे कोर्ट के कमरे में ही मौत दे दी जाए। सिंध प्रांत की रहने वाली रिंकल और उसके परिवार पर गांव छोड़ने दबाव था। गावं में रहने के लिए धार्मांतरण की शर्त रखी गई थी। बार-बार पुलिस से सुरक्षा की गुहार लगाने के बाद भी उनकी किसी ने सुध नहीं ली। यह दर्द भरी दास्ता अकेले रिंकल की नहीं है। पाकिस्तान की अनेक हिंदू युवतियों की कमोबेश कुछ ऐसी ही कहानी हैं। पाकिस्तान में केवल हिंदू लड़कियां ही प्रताड़ना की शिकार नहीं है। इसाई, सिख समुदाय की भी जवान लड़कियों का अपहरण होता है। उनकी इज्जत से खिलवाड़ की जाती है और उन पर जबरन धर्मांतरण थोपा जाता है। रिपोर्ट कहती है कि पाकिस्तान में अल्पसंख्यक लड़कियों को इस तरह से
प्रताड़ित करने वाले स्थानीय स्तर पर प्रभाव रखने वाले असामाजिक तत्व वाले लोग होते हैं। गत दिनों पकिस्तान मीडिया में आई एक रिपोर्ट के मुताबिक हर वर्ष करीब 300 हिंदू लड़कियों का जबरन धर्मांतरण करार कर विवाह किया जाता है। मर्जी नहीं होने पर जबरन उनकी अस्मत को तार-तार किया जाता है। पाक से भारत आने वाले हर हिंदू के मुंह से यह सुना जा सकता है कि वहां जवान बेटियों के संग रहना खतर से खाली नहीं है।
पिछले दिनों पाकिस्तान में हुए एक ताजा सर्वे में चौंकानेवाली सच्चाई सामने आई कि पाकिस्तान में 74 फीसदी हिन्दू और ईसाई लड़कियां जानबूझकर नापाक कर दी जाती हैं। पाकिस्तान की बहुसंख्यक मुस्लिम कम्युनिटी जानबूझकर उनके साथ सेक्सुअल ह्रासमेन्ट करता है। जबकि 43 फीसदी हिन्दुओं और इसाइयों का कहना है कि उनके साथ काम करने की जगह से लेकर स्कूलों तक अल्पसंख्यक होने के कारण भेदभाव किया जाता है।
पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों पर यह सर्वे एक मानवाधिकार संगठन नेशनल कमीशन फार जस्टिस एंड पीस ने किया है। इस सर्वे में पंजाब और सिन्ध के 26 जिलों को शामिल किया गया है जहां पाकिस्तान के कुल अल्पसंख्यकों का 95 फीसदी आबादी निवास करती है। पाकिस्तान के एक हजार अल्पसंख्यकों पर किए गए इस सर्वे में बताया गया है कि शैक्षणिक स्थानों पर महिलाओं के साथ जानबूझकर उत्पीड़न किया जाता है। यहां स्कूलों की जो हालत है उसमें महिलाओं के लिए इस्लामिक विषयों की पढ़ाई अनिवार्य है। महिलाओं का कहना है कि कोई और सब्जेक्ट न होने पर इस्लामिक विषयों की पढ़ाई उनकी मजबूरी है। मानवाधिकार संगठन के कार्यकारी सचिव पीटर जैकब कहते हैं कि यह सर्वे हिन्दू और ईसाई अल्पसंख्यक महिलाओं के बीच किया गया क्योंकि पाकिस्तान में यही दो बड़े अल्पसंख्यक समुदाय है. पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों में हिन्दू और इसाई 92 प्रतिशत हैं।
सर्वे में यह नतीजा सामने आया है कि पाकिस्तान में अल्पसंख्यक महिलाओं के लिए कोई नीति नहीं है। उन्हें हर जगह गैरबराबरी का सामना करना पड़ता है और उनका जमकर उत्पीड़न किया जाता है। पाकिस्तान में अल्पसंख्यक महिलाओं में साक्षरता दर 47 प्रतिशत है जो कि राष्ट्रीय औसत से भी दस प्रतिशत कम है. पाकिस्तान में शिक्षा के अलावा जबरन धर्मांतरण और यौन शोषण अल्पसंख्यक महिलाओं के लिए सबसे बड़ा संकट है। पाकिस्तान में पच्चीस लाख से पचास लाख के करीब हिन्दू बचे हैं जबकि यहां ईसाइयों की आबादी तीस लाख के करीब है। पाकिस्तान के अधिकांश अल्पसंख्यक सिंध और पंजाब क्षेत्र में रहते हैं। पाकिस्तान में औसतन हर साल 25 से 45 मामले हिंदू लड़कियों के अपहरण के दर्ज किए जाते हैं।
17 अगस्त 1974 को पाकिस्तान के पहले गवर्नर जनरल मोहम्मद अली जिन्ना ने अपने एक भाषण के दौरान नव निर्मित पाकिस्तान के लोगों से कहा था, आप इस देश में स्वतंत्र हैं। पाकिस्तान के लिए यह बात मायने नहीं रखती है कि आप किस धर्म या जाति के हैं। आप इबादत करने के लिए मस्जिद जाएं या फिर मंदिर, आप पूरी तरह आजाद हैं। लेकिन कुछ ही सालों में खुद पाकिस्तान के लोगों ने अपने कायदे-आजम की इस बात को ताक पर रख दिया। आज 65 साल के बाद स्थिति इस मोड़ पर पहुंच चुकी है कि अल्पसंख्यक खासकर हिंदू समुदाय के लोग अपना सब-कुछ पाकिस्तान में बेचकर या छोड़कर भारत में शरण मांगने आ रहे हैं। हिंदू बाहुल्य क्षेत्र सिंध, बलूचिस्तान और पंजाब जैसे स्थानों पर स्थिति बेहद बदतर हो चुकी है। पिछले दिनों पाकिस्तान के एक निजी टीवी चैनल पर एक हिंदू लड़के द्वारा इस्लाम कबूल करने की घटना लाइव दिखाई गई। इसका पाकिस्तान के ही कई संगठनों ने विरोध किया। उनका तर्क था कि आस्था के निजी मामले को इस तरह उछालने से पाकिस्तान में रह रहे अल्पसंख्यकों के प्रति गलत संदेश जाएगा, और अंतत: हुआ भी यही। पाकिस्तान से कई हिंदू तीर्थयात्रा के बहाने भारत आ गए हैं और अब वापस लौटना नहीं चाहते। आने वाले दिनों में इस संख्या में और भी इजाफा होने की संभावना है।
धर्म-परिवर्तन और अपहरण
पाकिस्तान में हिंदू समुदाय के लोगों के अपहरण, धर्म परिवर्तन और लूटपाट आदि की घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं। वर्ष 2010 में पाक के मानवाधिकार आयोग ने एक रिपोर्ट में कहा था कि पाक में हर महीने 25 हिंदू लड़कियों का अपहरण हो रहा है।
ईशनिंदा कानून
यहां ईशनिंदा विरोधी कानून से अल्पसंख्यकों की परेशानी काफी बढ़ी है। इससे न केवल हिंदुओं, बल्कि सिखों और ईसाइयों को भी काफी दिक्कतें झेलनी पड़ी हैं। राष्टÑपति आसिफ अली जरदारी ने भी माना है कि देश में इस कानून का दुरुपयोग किया गया है। पाक के कट्टरपंथी लोगों का भारत विरोधी रवैया भी अल्पसंख्यकों के प्रति घटनाओं के लिए जिम्मेदार है। भारत में होने वाली सांप्रदयिक घटना से लेकर कश्मीर मुद्दे तक का असर पाकिस्तान में रहने वाले हिंदुओं पर होता है।
थोड़ी सी राहत
कराची में हिंदू अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति में हैं। यहां के धर्मनिरपेक्ष माहौल पर कट्टरता कम हावी है। ब्रिटिश काल में स्थापित धर्मनिरपेक्ष संस्थानों में यहां के हिंदू अच्छी शिक्षा पाते हैं। खेल और सरकारी नौकरी जैसे अवसर भी यहां मौजूद हैं।
राजनीति में भूमिका कम
पाकिस्तान हिंदू पंचायत और पाकिस्तानी हिंदू वेलफेयर एसोसिएशन पाकिस्तान की मुख्य सिविल आॅर्गेनाइजेशन हैं, जो हिंदुओं से संबंधित सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक मुद्दों का प्रतिनिधित्व करती हैं। अल्पसंख्यक मामलों का मंत्रालय भी धार्मिक मामलों में हिंदुओं के लिए काम करता है। सरकार ने पाकिस्तान के हिंदू बाहुल्य क्षेत्रों के लिए अलग से निर्वाचन क्षेत्र बनाया है, जहां पर उनके प्रतिनिधि खड़े होते हैं। हालांकि सक्रिय राजनीति में इनकी भूमिका बहुत कम है।
ढेरो मंदिर टूटे
1940 के दशक में हुए सांप्रदायिक दंगों में पाकिस्तानी इलाके में स्थित कई मंदिर तोड़े गए, लेकिन सरकार व समुदाय के लोगों के प्रयासों से कई अहम धार्मिक स्थल सुरक्षित बचा लिए गए। इनमें कराची का श्री स्वामीनारायण मंदिर एक प्रमुख स्थल है।
कितने अल्पसंख्यक
बांग्लादेश विभाजन से पूर्व पाकिस्तान में हिंदुओं की कुल आबादी करीब 22 फीसदी थी। बांग्लादेश विभाजन के बाद 1.7 फीसदी ही हिंदू ही पाकिस्तान में रह गए। अधिकांश अमीर घरानों के हिंदुओं ने देश छोड़ दिया है। पाकिस्तान हिंदू परिषद के अनुसार यह आंकड़ा 5.5 फीसदी है।
कभी हिंदू बहुल था सिंध
आंकड़े बताते हैं कि एक वक्त सिंध प्रांत हिंदू बहुल था, लेकिन इस समय वहां की आबादी में हिंदू केवल 17 फीसदी बचे हैं। पाकिस्तान हिंदू काउंसिल के आंकड़ों के मुताबिक इस वक्त पाकिस्तान में हिंदुओं की कुल संख्या के करीब 94 फीसदी हिंदू सिंध प्रांत में रहते हैं। पंजाब में 4.78 फीसदी, बलूचिस्तान में 1.61 फीसदी और करीब एक फीसदी हिंदू अन्य इलाकों में रहते हैं।
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मोहनी हवा में हलाल देहात के हाट
शहर में अपने उत्पादों को बेचते-बेचते ऊब चुकी कॉरपोरेट कंपनियों ने गांवों में बाजार विकसित कर लिया। कॉरपोरेट व्यवस्था की नीति ही है कि वह किसी व जिस भी बाजार में जाए वहां पहले से जमे उसके जैसे उत्पादों के बाजार को किसी न किसी तरह से प्रभावित करें। इसमें सफलता का सबसे बेहतर तरीका है कि प्रतिस्पर्धी की मौलिक योग्यता नष्ट कर दी जाए। संजय स्वदेश
करीब बरस पहले जब देश की अर्थव्यवस्था बदहाल थी, तब उसे मजबूत करने के नाम पर तब के वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने देश के द्वार विदेशी बाजारों के लिए खोल दिए। तरह-तरह के सपनें दिखाकर जनता को विदेशी कंपनियों के लिए तैयार कर लिया गया। हालांकि उससे देश के विकास पर फर्क भी पड़ा। बाजार में पैसे का प्रवाह तेज हुआ, लोग समृद्ध भी हुए। पर इस प्रवाह में देश का पारंपरिक व मौलिक बाजार का वह ढांचा चरमरा गया, जिस कीमत में न केवल संतोष था, बल्कि सुख-चैन भी था। मनमोहन सिंह की मनमोहनी नीतियों के लागू होने से मिले कथित सुख समृद्धि के पीछे से चले आ रहे घातक परिदृश्य अब सामने आने लगे हैं।
बाजार के जानकार कहते हैं कि केवल कृषि उत्पादों और स्वास्थ्य सेवाओं पर करीब 54 लाख करोड़ रुपएा हर साल बहकर देश से बाहर चला जाता है। यदि परंपरागत बाजार के ढांचे में इतने धन का प्रवाह देश में ही होता तो शायद उदारीकरण की समृद्धि के पीछे चली नाकरात्मक चीजें देश की मौलिक व पारंपरिक ढांचे को नहीं तोड़ती।
उदारीकरण की मनमोहनी हवा चलन से पहले गांव के बाजार पारंपरिक हाट की शक्ल में ही गुलजार होते थे। यही समय गांव के बाजार के गुलजार होने का उत्तराद्ध काल था। करीब दो दशक में ही आधुनिक बाजार के थपेड़ों में पारंपरिक गांव के बाजार में सजने वाले वे सभी उत्पाद गायब हो चुके हैं, जो कुटीर उद्योगों के माध्यम से ग्रामीण अर्थव्यवस्था की संरचना को मजबूत किए हुए थे। यहां एक उदाहरण गिनाने से बात नहीं बनेगी। 20 साल पहले जिन्होंने हाट का झरोखा देखा होगा, उनके मन मस्तिष्क में उन उत्पादों के रेखाचित्र सहज की उभर आएंगे। फिलहाल तब से अब तक देश करीब डेढ़ पीढ़ी आगे आ चुका है।
जरा गौर से देंखे। मन में मंथन करें। जिस गांव में शहर की हर सुविधा के कमोवेश पहुंचने के दंभ पर सफल विकास के दावे किए जा रहे हैं, उसका असली लाभ कौन ले रहा है। कहने और उदाहरण देने की जरूरत नहीं है कि उन फटेहाल ग्रामीण या किसानों की संख्या में कमी नहीं आई है जो आज भी जी तोड़ मेहनत मजदूरी और महंगी लागत के बाद आराम की रोटी खाने लायक मुनाफे से दूर हैं। पर शहर में अपने उत्पादों को बेचते-बेचते ऊब चुकी कॉरपोरेट कंपनियों ने गांवों में बाजार विकसित कर लिया। कॉरपोरेट व्यवस्था की नीति ही है कि वह किसी व जिस भी बाजार में जाए वहां पहले से जमे उसके जैसे उत्पादों के बाजार को किसी न किसी तरह से प्रभावित करें। इसमें सफलता का सबसे बेहतर तरीका है कि प्रतिस्पर्धी की मौलिक योग्यता नष्ट कर दी जाए। मतलब दूसरे की मौलिक उत्पादन की क्षमता की संरचना को ही खंडित करके बाजार में अपनी पैठ बना कर जेब में मोटा मुनाफा ठूसा जा सकता है।
विदेशी पूंजी के बयार से जब बाजार गुलजार हुआ तब लघु और मध्यम श्रेणी की औद्योगिक गतिविधियों में काफी हलचल हुई, उसके आंकड़ों को गिना कर सरकार ने समय-समय पर अपनी पीठ भी थपथपाई। आज उसी नीति की सरकार के आंकड़े जो हकीकत बयां कर रहे हैं, वे भविष्य के लिए सुखद नहीं कहे जा सकते। सरकार ने संसद में जो ताजा जानकारी दी है उसके मुताबिक 31 मार्च 2007 की स्थिति के मुताबिक देश में पांच लाख पंजीकृत उद्यमों को बंद किया गया। सबसे ज्यादा 82966 इकाइयां तमिलनाडु में बंद हुर्इं। इसके बाद 80616 इकाइयां उत्तर प्रदेश में, 47581 इकाइयां कर्नाटक में, 41856 इकाइयां महाराष्ट्र में, 36502 इकाइयां मध्य प्रदेश में और 34945 इकाइयां गुजरात में बंद करनी पड़ीं।
जो उद्यमी आर्थिक रूप से थोड़े मजबूत होते हैं और अपने उद्यम के दम पर भविष्य में बेहतर कमाई की संभावना देखते हैं, अमूमन वे ही पंजीयन कराते हैं। बंद होने के सरकारी आंकड़ों के आधार पर यह अनुमान लगाना कठिन नहीं होगा कि जब पंजीकृत उद्यमों को अकाल मौत आ गई, तब देश के परंपरागत कुटीर उद्योगों का क्या हश्र हुआ हो, वे कैसे दम तोड़े होंगे। उनसे जुड़े लाखों लोगों इससे टूटने के बाद कैसे जीवन जी रहे होंगे। इनकी संख्या का कितना अनुमान लगाएंगे, ए तो गैर पंजीकृत थे।
कॉरपोरेट के रूप में आई विदेशी पूंजी का तेज प्रवाह ने ही कुटीर उद्योगों की मौलिक कार्यकुशलता की योग्यता को नष्ट कर दिया। गांवों में ही तैयार होने वाले पारंपरिक उत्पाद के ढांचे को तोड़ दिया। हसियां, हथौड़ा, कुदाल, फावड़े तक बनाने के धंधे कॉरपोरेट कंपनियों ने गांवों के कारीगरों से छीन लिए। इस पेशे से जुड़े कारीगर अब कहां है? कभी कभार बड़े शहर की शक्ल में बदलते अर्द्धविकसित शहर के किसी चौक-चौराहे पर ऐसे कारीगर परिवार के साथ फटेहाली में तंबू लगाए दिख सकते हैं। पर उन्हें हमेशा काम मिलता हो, ऐसी बात नहीं है। सब कुछ तो बाजार में है। यह तो एक उदहारण है। लकड़ी के कारिगरों के हाल देख लें। बड़े-बड़े धन्ना सेठों ने इसके कारोबार पर कब्जा कर लिया। इस परंपरागत पेशे जुड़े कारीगर अब उनके लिए मामूली रकम में रौदा घंसते हुए उनकी जेबें मोटी कर रहे हैं। हालांकि कंपनियों ने लकड़ी की उपयोगिता के ढेरों विकल्प दे दिए हैं। यह सब कुछ गांव तक पहुंच चुका है। शहर से लगे गांव के अस्तित्व तो कब के मिल चुके हैं। दूरवर्ती गांवों में तेजी से रियल इस्टेट का कारोबार सधे हुए कदमों से पांव पसार रहा है। शायद इसी दंभ पर स्टील कंपनियां निकट भविष्य में केवल ग्रामीण इलाके में अपने लिए 17 हजार करोड़ डॉलर का बाजार देख अपनी तिजोरी बढ़Þाने के सपनें संजो रही हैं।
फिलहाल वर्तमान भारतीय ग्रामीण बाजार पर एक ताजे शोध रिपोर्ट में यह दावा किया गया है कि इसका दायरा करीब 500 अरब डॉलर तक का पहुंच गया है। इस दायरे की रफ्तार शहरी बाजार से भी तेज है। मतलब शहरों में जो खपत चाहिए, उस बाजार का दायरा अब नहीं बढ़Þेगा, बस कंपनियों को उत्पादन की आपूर्ति में बनाए रखने भर की मशक्कत करनी है। हालांकि इसमें प्रतियोगिता भी है। लेकिन इस गलाकाट प्रतियोगिता में कोई स्वतंत्र रूप से मौलिक उत्पादन लेकर अपनी जगह बना सके, इसकी गुंजाइश कम बची है। देश के ग्रामीण इलाकों के व्यापक दायरे में तीस प्रतिशत की गति से दौड़ कर आते बाजार को आम लोग भले ही विकास के नाम पर स्वागत कर रहे हों, लेकिन इस गति से और दूर होती मौलिक उत्पाद की टूटती संरचना के पुर्नजीवन की बात हास्यास्पद हो जाएगी। इसके पक्ष में उम्मीद की कोई प्रखर किरण भी आएगी, इसकी अपेक्षा करना बेकार है, क्योंकि दो दशक के उदारीकरण के दौर ने एक ऐसी पीढ़ी बना दी है जो केवल इसी बाजार से उत्पन्न समाज में जी सकता है,उसके आगे की पीढ़ी भी इसी पीढ़ी का अनुसरण करेगी।
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21 सितंबर 2012 को राष्ट्र के नाम प्रधान मंत्री का संदेश
दुनिया उन पर रहम नहीं करती जो अपनी
मुश्किलों का खुद हल नहीं करते
इसके नतीजे में पेट्रोलियम पदार्थों पर दी जाने वाली सब्सिडी में बड़े पैमाने पर इजाफा हुआ है। पिछले साल यह सब्सिडी 1 लाख चालीस हजार करोड़ रुपए थी। अगर हमने कोई कार्रवाई न की होती तो इस साल यह सब्सिडी बढ़Þकर 2 लाख करोड़ रुपए से भी ज्यादा हो जाती। इसके लिए पैसा कहां से आता? पैसा पेड़ों पर तो लगता नहीं है। अगर हमने कोई कार्रवाई नहीं की होती तो वित्तीय घाटा कहीं ज्यादा बढ़Þ जाता।
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भाइयो और बहनो,
आज शाम मैं आपको यह बताना चाहता हूं कि सरकार ने किन वजहों से हाल ही में आर्थिक नीतियों से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण फैसले लिए हैं। कुछ राजनीतिक दलों ने इन फैसलों का विरोध किया है। आपको यह सच्चाई जानने का हक है कि हमने ए निर्णय क्यों लिए हैं।
कोई भी सरकार आम आदमी पर बोझ नहीं डालना चाहती। हमारी सरकार को दो बार आम आदमी की जरूरतों का ख्याल रखने के लिए ही चुना गया है।
सरकार की यह जिम्मेदारी है कि वह राष्ट्रहित में काम करे और जनता के भविष्य को सुरक्षित रखे। इसके लिए हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हमारी अर्थव्यवस्था का तेजी से विकास हो जिससे देश के नौजवानों के लिए पर्याप्त संख्या में अच्छे रोजगार के नए मौके पैदा हों। तेज आर्थिक विकास इसलिए भी जरूरी है कि हम शिक्षा, स्वास्थ्य, आवासीय सुविधाओं और ग्रामीण इलाकों में रोजगार उपलब्ध कराने के लिए जरूरी रकम जुटा सकें।
आज चुनौती यह है कि हमें यह काम ऐसे समय पर करना है जब विश्व अर्थव्यवस्था बड़ी मुश्किलों के दौर से गुजर रही है। अमरीका और यूरोप आर्थिक मंदी और वित्तीय कठिनाइयों से निपटने की कोशिश कर रहे हैं। यहां तक कि चीन को भी आर्थिक मंदी का एहसास हो रहा है।
इस सबका असर हम पर भी हुआ है, हालांकि मेरा यह मानना है कि हम दुनिया भर में छाई आर्थिक मंदी के असर को काबू में रखने में काफी हद तक कामयाब हुए हैं।
आज हम ऐसे मुकाम पर हैं, जहां पर हम अपने विकास में आई मंदी को खत्म कर सकते हैं। हमें देश के अंदर और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निवेशकों के विश्वास को फिर से कायम करना होगा। जो फैसले हमने हाल ही में लिए हैं, वे इस मकसद को हासिल करने के लिए जरूरी थे।
मैं सबसे पहले डीजल के दामों में बढ़Þोत्तरी और एलपीजी सिलिंडरों पर लगाई गई सीमा के बारे में बात करना चाहूंगा।
हम अपनी जरूरत के तेल का करीब 80 प्रतिशत आयात करते हैं और पिछले चार सालों के दौरान विश्व बाजार में तेल की कीमतों में तेजी से बढ़Þोत्तरी हुई है। हमने इन बढ़Þी हुई कीमतों का सारा बोझ आप पर नहीं पड़ने दिया। हमारी कोशिश यह रही है कि जहां तक हो सके आपको इस परेशानी से बचाए रखें। इसके नतीजे में पेट्रोलियम पदार्थों पर दी जाने वाली सब्सिडी में बड़े पैमाने पर इजाफा हुआ है। पिछले साल यह सब्सिडी 1 लाख चालीस हजार करोड़ रुपए थी। अगर हमने कोई कार्रवाई न की होती तो इस साल यह सब्सिडी बढ़Þकर 2 लाख करोड़ रुपए से भी ज्यादा हो जाती। इसके लिए पैसा कहां से आता? पैसा पेड़ों पर तो लगता नहीं है। अगर हमने कोई कार्रवाई नहीं की होती तो वित्तीय घाटा कहीं ज्यादा बढ़Þ जाता। यानि कि सरकारी आमदनी के मुकाबले खर्च बर्दाश्त की हद से ज्यादा बढ़Þ जाता। अगर इसको रोका नहीं जाता तो रोजमर्रा के इस्तेमाल की चीजों की कीमतें और तेजी से बढ़Þने लगतीं। निवेशकों का विश्वास भारत में कम हो जाता। निवेशक, चाहे वह घरेलू हों या विदेशी, हमारी अर्थव्यवस्था में पूंजी लगाने से कतराने लगते। ब्याज की दरें बढ़Þ जातीं और हमारी कंपनियां देश के बाहर कर्ज नहीं ले पातीं। बेरोजगारी भी बढ़Þ जाती।
पिछली मर्तबा 1991 में हमने ऐसी मुश्किल का सामना किया था। उस समय कोई भी हमें छोटे से छोटा कर्ज देने के लिए तैयार नहीं था। उस संकट का हम कड़े कदम उठाकर ही सामना कर पाए थे। उन कदमों के अच्छे नतीजे आज हम देख रहे हैं। आज हम उस स्थिति में तो नहीं हैं लेकिन इससे पहले कि लोगों का भरोसा हमारी अर्थव्यवस्था में खत्म हो जाए, हमें जरूरी कदम उठाने होंगे। मुझे यह अच्छी तरह मालूम है कि 1991 में क्या हुआ था। प्रधानमंत्री होने के नाते मेरा यह फर्ज है कि मैं हालात पर काबू पाने के लिए कड़े कदम उठाऊं। दुनिया उन पर रहम नहीं करती जो अपनी मुश्किलों को खुद हल नहीं करते हैं। आज बहुत से यूरोपीय देश ऐसी स्थिति का सामना कर रहे हैं। वे अपनी जिÞम्मेदारियों का खर्च नहीं उठा पा रहे हैं और दूसरों से मदद की उम्मीद कर रहे हैं। वे अपने कर्मचारियों के वेतन या पेंशन में कटौती करने पर मजबूर हैं ताकि कर्ज देने वालों का भरोसा हासिल कर सकें।
मेरा पक्का इरादा है कि मैं भारत को इस स्थिति में नहीं पहुंचने दूंगा। लेकिन मैं अपनी कोशिश में तभी कामयाब हो सकूंगा जब आपको ए समझा सकूं कि हमने हाल के कदम क्यों उठाए हैं।
डीजल पर होने वाले घाटे को पूरी तरह खत्म करने के लिए डीजल का मूल्य 17 रुपए प्रति लीटर बढ़Þाने की जरूरत थी। लेकिन हमने सिर्फ 5 रुपए प्रति लीटर मूल्य वृद्धि की है। डीजल की अधिकतर खपत खुशहाल तबकों, कारोबार और कारखानों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली बड़ी कारों और एस.यू.वी. के लिए होती है। इन सबको सब्सिडी देने के लिए क्या सरकार को बड़े वित्तीय घाटों को बर्दाश्त करना चाहिए?
पेट्रोल के दामों को न बढ़Þने देने के लिए हमने पेट्रोल पर टैक्स 5 रुपए प्रति लीटर कम किया है। यह हमने इसलिए किया कि स्कूटरों और मोटरसाइकिलों पर चलने वाले मध्य वर्ग के करोड़ों लोगों पर बोझ और न बढ़Þे।
जहां तक एलपीजी की बात है, हमने एक साल में रियायती दरों पर 6 सिलिंडरों की सीमा तय की है। हमारी आबादी के करीब आधे लोग, जिन्हें सहायता की सबसे ज्यादा जरूरत है, साल भर में 6 या उससे कम सिलिंडर ही इस्तेमाल करते हैं। हमने इस बात को सुनिश्चित किया है कि उनकी जरूरतें पूरी होती रहें। बाकी लोगों को भी रियायती दरों पर 6 सिलिंडर मिलेंगे। पर इससे अधिक सिलिंडरों के लिए उन्हें ज्यादा कीमत देनी होगी।
हमने मिट्टी के तेल की कीमतों को नहीं बढ़Þने दिया है क्योंकि इसका इस्तेमाल गरीब लोग करते हैं।
मेरे प्यारे भाइयो और बहनो,
मैं आपको बताना चाहता हूं कि कीमतों में इस वृद्धि के बाद भी भारत में डीजल और एलपीजी के दाम बांगलादेश, नेपाल, श्रीलंका और पाकिस्तान से कम हैं। फिर भी पेट्रोलियम पदार्थों पर कुल सब्सिडी 160 हजार करोड़ रुपए रहेगी। स्वास्थ्य और शिक्षा पर हम कुल मिलाकर इससे कम खर्च करते हैं। हम कीमतें और ज्यादा बढ़Þाने से रुक गए क्योंकि मुझे उम्मीद है कि तेल के दामों में गिरावट आएगी।
अब मैं खुदरा व्यापार यानि रिटेल ट्रेड में विदेशी निवेश की अनुमति देने के फैसले का जिÞक्र करना चाहूंगा। कुछ लोगों का मानना है कि इससे छोटे व्यापारियों को नुकसान पहुंचेगा। यह सच नहीं है। संगठित और आधुनिक खुदरा व्यापार पहले से ही हमारे देश में मौजूद है और बढ़Þ रहा है। हमारे सभी खास शहरों में बड़े खुदरा व्यापारी मौजूद हैं। हमारी राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में अनेक नए शॉपिग सेंटर हैं। पर हाल के सालों में यहां छोटी दुकानों की तादाद में भी तीन-गुना बढ़Þोत्तरी हुई है। एक बढ़Þती हुई अर्थव्यवस्था में बड़े एवं छोटे कारोबार, दोनों के बढ़Þने के लिए जगह रहती है। यह डर बेबुनियाद है कि छोटे खुदरा कारोबारी मिट जाएंगे।
हमें यह भी याद रखना चाहिए कि संगठित खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश की अनुमति देने से किसानों को लाभ होगा। हमने जो नियम बनाए हैं उनमें यह शर्त है कि जो विदेशी कंपनियां सीधा निवेश करेंगी उन्हें अपने धन का 50 प्रतिशत हिस्सा नए गोदामों, कोल्?ड स्?टोरेज और आधुनिक ट्रांसपोर्टर व्यवस्थाओं को बनाने के लिए लगाना होगा। इससे यह फायदा होगा कि हमारे फलों और सब्जियों का 30 प्रतिशत हिस्सा, जो अभी स्?टोरेज और ट्रांसपोर्टर में कमियों की वजह से खराब हो जाता है, वह उपभोक्ताओं तक पहुंच सकेगा। बरबादी कम होने के साथ-साथ किसानों को मिलने वाले दाम बढ़Þेंगे और उपभोक्ताओं को चीजें कम दामों पर मिलेंगी। संगठित खुदरा व्यापार का विकास होने से अच्छी किस्म के रोजगार के लाखों नए मौके पैदा होंगे।
हम यह जानते हैं कि कुछ राजनीतिक दल हमारे इस कदम से सहमत नहीं हैं। इसीलिए राज्य सरकारों को यह छूट दी गई है कि वह इस बात का फैसला खुद करें कि उनके राज्य में खुदरा व्यापार के लिए विदेशी निवेश आ सकता है या नहीं। लेकिन किसी भी राज्य को यह हक नहीं है कि वह अन्य राज्यों को अपने किसानों, नौजवानों और उपभोक्ताओं के लिए बेहतर जिÞंदगी ढूंढने से रोके।
1991 में, जब हमने भारत में उत्पादन के क्षेत्र में विदेशी निवेश का रास्ता खोला था, तो बहुत से लोगों को फिक्र हुई थी। आज भारतीय कंपनियां देश और विदेश दोनों में विदेशी कंपनियों से मुकाबला कर रही हैं और अन्य देशों में भी निवेश कर रही हैं। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि विदेशी कंपनियां इन्?फॉरमेशन टेक्?नोलॉजी, स्टील एवं आॅटो उद्योग जैसे क्षेत्रों में हमारे नौजवानों के लिए रोजगार के नए मौके पैदा करा रही हैं। मुझे यकीन है कि खुदरा कारोबार के क्षेत्र में भी ऐसा ही होगा।
मेरे प्यारे भाइयो और बहनो,
यूपीए सरकार आम आदमी की सरकार है। पिछले 8 वर्षों में हमारी अर्थव्यवस्था 8.2 प्रतिशत प्रति वर्ष की रिकार्ड से बढ़Þी है। हमने यह सुनिश्चित किया है कि गरीबी ज्यादा तेजी से घटे, कृषि का विकास तेज हो और गांवों में भी लोग उपभोग की वस्तुओं को ज्यादा इस्तेमाल कर सकें। हमें और ज्यादा कोशिश करने की जरूरत है और हम ऐसा ही करेंगे। आम आदमी को फायदा पहुंचाने के लिए हमें आर्थिक विकास की गति को बढ़Þाना है। हमें भारी वित्तीय घाटों से भी बचना होगा ताकि भारत की अर्थव्यवस्था के प्रति विश्वास मजबूत हो। मैं आपसे यह वादा करता हूं कि देश को तेज और इन्क्सूसिव विकास के रास्ते पर वापस लाने के लिए मैं हर मुमकिन कोशिश करूंगा। परंतु मुझे आपके विश्वास और समर्थन की जरूरत है। आप उन लोगों के बहकावे में न आएं जो आपको डराकर और गलत जानकारी देकर गुमराह करना चाहते हैं। 1991 में इन लोगों ने इसी तरह के हथकंडे अपनाए थे। उस वक्त भी वह कामयाब नहीं हुए थे। और इस बार भी वह नाकाम रहेंगे। मुझे भारत की जनता की सूझ-बूझ में पूरा विश्वास है।
हमें राष्ट्र के हितों के लिए बहुत काम करना है और इसमें हम देर नहीं करेंगे। कई मौकों पर हमें आसान रास्तों को छोड़कर मुश्किल राह अपनाने की जरूरत होती है। यह एक ऐसा ही मौका है। कड़े कदम उठाने का वक्त आ गया है। इस वक्त मुझे आपके विश्वास, सहयोग और समर्थन की जरूरत है।
इस महान देश का प्रधान मंत्री होने के नाते मैं आप सभी से कहता हूं कि आप मेरे हाथ मजबूत करें ताकि हम देश को आगे ले जा सकें और अपने और आने वाली पीढ़ियों के लिए खुशहाल भविष्य का निर्माण कर सकें।
जय हिन्द !
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पाक में नापाक हिंदू hoti लड़कियां
पाकिस्तान में हिंदुओं के हालात बेहद खराब है। पिछले दो दिनों सैकड़ों हिंदुओं के जत्थे भारत में तीर्थयात्रा के बहाने से आए। सीमा पर उन्हें रोका गया। उनसे गीता पर शपथ दिलाई गई कि वे भारत जाकर पाकिस्तान को बदनाम नहीं करेंगे। लेकिन भारत आते ही पाक हिंदुओं ने अपने ऊपर पाकिस्तान में होने वाले जुल्मों की दस्ता सुनानी शुरू कर दी है। अब वे कह रहे हैं कि भले ही उन्हें गोली मार दी जाए, लेकिन वे भारत से वापस नहीं जाएंगे। उनका कहना है कि जिस धरती पर उनकी बहन, बेटियों को जानबूझ कर नापाक किया जा रहा है, वह रहे तो कैसे रहें?
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शादाब समी/ संजय स्वदेश
भारत के बहुसंख्यक हिंदु समुदाय पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में अल्पसंख्यक है। वहां उन्हें हिंदू होने की भारी कीमत चुकानी पड़ रही है। उनके साथ लूट की घटनाएं आम हैं। हिंदू व्यापारियों का उपहरण कोई आश्चर्य का विषय नहीं हैं। हर क्षेत्र में भेदभाव से पाक में रहने वाले हिंदू उब कर देश छोड़ने के लिए मजबूर हैं। कुछ तो अपनी पूरा जमीन जायदाद बेच कर किसी न किसी बहाने भारत आ कर भीड़ में गुम हो जाना चाहते हैं। भारत आने वाले हिंदुओं की दास्तां निश्चय ही दुखांत है। पिछले दिनों मीडिया में आई रिपोर्ट से स्पष्ट हो गया कि पाकिस्तान में हिंदू महिलाओं की आबरू सुरक्षित नहीं है। इसकी पुष्टि तो पाकिस्तान की सरकारी रिपोर्ट भी करती है। वर्ष 2010 में पाकिस्तान के मानवाधिकार आयोग ने एक रिपोर्ट में कहा था कि पाक में हर महीने 25 हिंदू लड़कियों का अपहरण हो रहा है। बाली उमर में ही हिंदू लड़कियों का अपहरण कर उनके साथ दुष्कर्म किया जाता है। उन्हें धर्म परिवर्तन करा कर निकाह किया जाता है और घर में नौकरों की तरह काम कराया लिया जाता है। पहले सिंध प्रांत के गोटकी जिले से आये एक परिवार ने कहा कि सबसे अधिक समस्या सिंध में है। दिन दहाडे हिंदू लड़कियों को उठा लेना और उसके साथ निकाह कर लेना आम है। पुलिस हमारी मदद नहीं करती है। रिपोर्ट करने पर ‘ईश निंदा कानून’ लगा कर ‘बंद’ करने की धमकी देते हैं।
ुइसी वर्ष मार्च में पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट में एक मामला गया। 19 वर्षीय रिंकल कमारी नाम की लड़की ने कोर्ट से एक दर्दनाक गुहार लगाई। रिंकल ने कोर्ट से कहा कि उसे हिंदू होने के कारण पाकिस्तान में न्याय नहीं मिल सकता है, लिहाजा उसे कोर्ट के कमरे में ही मौत दे दी जाए। सिंध प्रांत की रहने वाली रिंकल और उसके परिवार पर गांव छोड़ने दबाव था। गावं में रहने के लिए धार्मांतरण की शर्त रखी गई थी। बार-बार पुलिस से सुरक्षा की गुहार लगाने के बाद भी उनकी किसी ने सुध नहीं ली। यह दर्द भरी दास्ता अकेले रिंकल की नहीं है। पाकिस्तान की अनेक हिंदू युवतियों की कमोबेश कुछ ऐसी ही कहानी हैं। पाकिस्तान में केवल हिंदू लड़कियां ही प्रताड़ना की शिकार नहीं है। इसाई, सिख समुदाय की भी जवान लड़कियों का अपहरण होता है। उनकी इज्जत से खिलवाड़ की जाती है और उन पर जबरन धर्मांतरण थोपा जाता है। रिपोर्ट कहती है कि पाकिस्तान में अल्पसंख्यक लड़कियों को इस तरह से
प्रताड़ित करने वाले स्थानीय स्तर पर प्रभाव रखने वाले असामाजिक तत्व वाले लोग होते हैं। गत दिनों पकिस्तान मीडिया में आई एक रिपोर्ट के मुताबिक हर वर्ष करीब 300 हिंदू लड़कियों का जबरन धर्मांतरण करार कर विवाह किया जाता है। मर्जी नहीं होने पर जबरन उनकी अस्मत को तार-तार किया जाता है। पाक से भारत आने वाले हर हिंदू के मुंह से यह सुना जा सकता है कि वहां जवान बेटियों के संग रहना खतर से खाली नहीं है।
पिछले दिनों पाकिस्तान में हुए एक ताजा सर्वे में चौंकानेवाली सच्चाई सामने आई कि पाकिस्तान में 74 फीसदी हिन्दू और ईसाई लड़कियां जानबूझकर नापाक कर दी जाती हैं। पाकिस्तान की बहुसंख्यक मुस्लिम कम्युनिटी जानबूझकर उनके साथ सेक्सुअल ह्रासमेन्ट करता है। जबकि 43 फीसदी हिन्दुओं और इसाइयों का कहना है कि उनके साथ काम करने की जगह से लेकर स्कूलों तक अल्पसंख्यक होने के कारण भेदभाव किया जाता है।
पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों पर यह सर्वे एक मानवाधिकार संगठन नेशनल कमीशन फार जस्टिस एंड पीस ने किया है। इस सर्वे में पंजाब और सिन्ध के 26 जिलों को शामिल किया गया है जहां पाकिस्तान के कुल अल्पसंख्यकों का 95 फीसदी आबादी निवास करती है। पाकिस्तान के एक हजार अल्पसंख्यकों पर किए गए इस सर्वे में बताया गया है कि शैक्षणिक स्थानों पर महिलाओं के साथ जानबूझकर उत्पीड़न किया जाता है। यहां स्कूलों की जो हालत है उसमें महिलाओं के लिए इस्लामिक विषयों की पढ़ाई अनिवार्य है। महिलाओं का कहना है कि कोई और सब्जेक्ट न होने पर इस्लामिक विषयों की पढ़ाई उनकी मजबूरी है। मानवाधिकार संगठन के कार्यकारी सचिव पीटर जैकब कहते हैं कि यह सर्वे हिन्दू और ईसाई अल्पसंख्यक महिलाओं के बीच किया गया क्योंकि पाकिस्तान में यही दो बड़े अल्पसंख्यक समुदाय है. पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों में हिन्दू और इसाई 92 प्रतिशत हैं।
सर्वे में यह नतीजा सामने आया है कि पाकिस्तान में अल्पसंख्यक महिलाओं के लिए कोई नीति नहीं है। उन्हें हर जगह गैरबराबरी का सामना करना पड़ता है और उनका जमकर उत्पीड़न किया जाता है। पाकिस्तान में अल्पसंख्यक महिलाओं में साक्षरता दर 47 प्रतिशत है जो कि राष्ट्रीय औसत से भी दस प्रतिशत कम है. पाकिस्तान में शिक्षा के अलावा जबरन धर्मांतरण और यौन शोषण अल्पसंख्यक महिलाओं के लिए सबसे बड़ा संकट है। पाकिस्तान में पच्चीस लाख से पचास लाख के करीब हिन्दू बचे हैं जबकि यहां ईसाइयों की आबादी तीस लाख के करीब है। पाकिस्तान के अधिकांश अल्पसंख्यक सिंध और पंजाब क्षेत्र में रहते हैं। पाकिस्तान में औसतन हर साल 25 से 45 मामले हिंदू लड़कियों के अपहरण के दर्ज किए जाते हैं।
17 अगस्त 1974 को पाकिस्तान के पहले गवर्नर जनरल मोहम्मद अली जिन्ना ने अपने एक भाषण के दौरान नव निर्मित पाकिस्तान के लोगों से कहा था, आप इस देश में स्वतंत्र हैं। पाकिस्तान के लिए यह बात मायने नहीं रखती है कि आप किस धर्म या जाति के हैं। आप इबादत करने के लिए मस्जिद जाएं या फिर मंदिर, आप पूरी तरह आजाद हैं। लेकिन कुछ ही सालों में खुद पाकिस्तान के लोगों ने अपने कायदे-आजम की इस बात को ताक पर रख दिया। आज 65 साल के बाद स्थिति इस मोड़ पर पहुंच चुकी है कि अल्पसंख्यक खासकर हिंदू समुदाय के लोग अपना सब-कुछ पाकिस्तान में बेचकर या छोड़कर भारत में शरण मांगने आ रहे हैं। हिंदू बाहुल्य क्षेत्र सिंध, बलूचिस्तान और पंजाब जैसे स्थानों पर स्थिति बेहद बदतर हो चुकी है। पिछले दिनों पाकिस्तान के एक निजी टीवी चैनल पर एक हिंदू लड़के द्वारा इस्लाम कबूल करने की घटना लाइव दिखाई गई। इसका पाकिस्तान के ही कई संगठनों ने विरोध किया। उनका तर्क था कि आस्था के निजी मामले को इस तरह उछालने से पाकिस्तान में रह रहे अल्पसंख्यकों के प्रति गलत संदेश जाएगा, और अंतत: हुआ भी यही। पाकिस्तान से कई हिंदू तीर्थयात्रा के बहाने भारत आ गए हैं और अब वापस लौटना नहीं चाहते। आने वाले दिनों में इस संख्या में और भी इजाफा होने की संभावना है।
धर्म-परिवर्तन और अपहरण
पाकिस्तान में हिंदू समुदाय के लोगों के अपहरण, धर्म परिवर्तन और लूटपाट आदि की घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं। वर्ष 2010 में पाक के मानवाधिकार आयोग ने एक रिपोर्ट में कहा था कि पाक में हर महीने 25 हिंदू लड़कियों का अपहरण हो रहा है।
ईशनिंदा कानून
यहां ईशनिंदा विरोधी कानून से अल्पसंख्यकों की परेशानी काफी बढ़ी है। इससे न केवल हिंदुओं, बल्कि सिखों और ईसाइयों को भी काफी दिक्कतें झेलनी पड़ी हैं। राष्टÑपति आसिफ अली जरदारी ने भी माना है कि देश में इस कानून का दुरुपयोग किया गया है। पाक के कट्टरपंथी लोगों का भारत विरोधी रवैया भी अल्पसंख्यकों के प्रति घटनाओं के लिए जिम्मेदार है। भारत में होने वाली सांप्रदयिक घटना से लेकर कश्मीर मुद्दे तक का असर पाकिस्तान में रहने वाले हिंदुओं पर होता है।
थोड़ी सी राहत
कराची में हिंदू अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति में हैं। यहां के धर्मनिरपेक्ष माहौल पर कट्टरता कम हावी है। ब्रिटिश काल में स्थापित धर्मनिरपेक्ष संस्थानों में यहां के हिंदू अच्छी शिक्षा पाते हैं। खेल और सरकारी नौकरी जैसे अवसर भी यहां मौजूद हैं।
राजनीति में भूमिका कम
पाकिस्तान हिंदू पंचायत और पाकिस्तानी हिंदू वेलफेयर एसोसिएशन पाकिस्तान की मुख्य सिविल आॅर्गेनाइजेशन हैं, जो हिंदुओं से संबंधित सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक मुद्दों का प्रतिनिधित्व करती हैं। अल्पसंख्यक मामलों का मंत्रालय भी धार्मिक मामलों में हिंदुओं के लिए काम करता है। सरकार ने पाकिस्तान के हिंदू बाहुल्य क्षेत्रों के लिए अलग से निर्वाचन क्षेत्र बनाया है, जहां पर उनके प्रतिनिधि खड़े होते हैं। हालांकि सक्रिय राजनीति में इनकी भूमिका बहुत कम है।
ढेरो मंदिर टूटे
1940 के दशक में हुए सांप्रदायिक दंगों में पाकिस्तानी इलाके में स्थित कई मंदिर तोड़े गए, लेकिन सरकार व समुदाय के लोगों के प्रयासों से कई अहम धार्मिक स्थल सुरक्षित बचा लिए गए। इनमें कराची का श्री स्वामीनारायण मंदिर एक प्रमुख स्थल है।
कितने अल्पसंख्यक
बांग्लादेश विभाजन से पूर्व पाकिस्तान में हिंदुओं की कुल आबादी करीब 22 फीसदी थी। बांग्लादेश विभाजन के बाद 1.7 फीसदी ही हिंदू ही पाकिस्तान में रह गए। अधिकांश अमीर घरानों के हिंदुओं ने देश छोड़ दिया है। पाकिस्तान हिंदू परिषद के अनुसार यह आंकड़ा 5.5 फीसदी है।
कभी हिंदू बहुल था सिंध
आंकड़े बताते हैं कि एक वक्त सिंध प्रांत हिंदू बहुल था, लेकिन इस समय वहां की आबादी में हिंदू केवल 17 फीसदी बचे हैं। पाकिस्तान हिंदू काउंसिल के आंकड़ों के मुताबिक इस वक्त पाकिस्तान में हिंदुओं की कुल संख्या के करीब 94 फीसदी हिंदू सिंध प्रांत में रहते हैं। पंजाब में 4.78 फीसदी, बलूचिस्तान में 1.61 फीसदी और करीब एक फीसदी हिंदू अन्य इलाकों में रहते हैं।
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Monday, 8 October 2012
Saturday, 26 May 2012
मेरी मां की हत्या के लिए मुशर्रफ जिम्मेदार
एक न्यूज चैनल पर बेनजीर भुट्टों के बेटे ने लगाया आरोप
कहा- मुशर्रफ ने दी थी धमकी, कम करा दी थी सुरक्षा
न्यूयार्क। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के अध्यक्ष और बेनजीर भुट्टो के बेटे बिलावल भुट्टो जरदारी ने कहा है कि उनकी मां और पूर्व प्रधानमंत्री की हत्या के लिए पाकिस्तान के तत्कालीन राष्टÑपति परवेज मुशर्रफ जिम्मेदार हैं। बिलावल ने सीएनएन को दिए एक साक्षात्कार में कहा उन्होंने (मुशर्रफ ने) मेरी मां (बेनजीर) की हत्या कराई। अपनी मां की हत्या के लिए मैं उन्हें जिम्मेदार मानता हूं।
यह पूछे जाने पर कि बिलावल ऐसा क्यों कह रहे हैं, उन्होंने कहा क्योंकि उन्हें (मुशर्रफ को) खतरे की जानकारी थी। खुद उन्होंने (मुशर्रफ ने) पूर्व में उन्हें (बेनजीर को) धमकी दी थी। उन्होंने कहा था कि आपकी सुरक्षा का सीधा संबंध हमारे रिश्तों और हमारे बीच सहयोग से है।
इन दिनों अमेरिका के दौरे पर आए बिलावल ने कहा जब उन्होंने आपातकाल लागू किया था और यह साफ हो गया था कि वह हमारी आंखों पर पर्दा डाल रहे हैं, तब वह पाकिस्तान में लोकतंत्र की वापसी बिल्कुल नहीं चाहते थे। मेरी मां ने उनके खिलाफ आवाज उठानी शुरू कर दी और उनकी सुरक्षा घटा दी गई। उन्होंने यह भी कहा कि उनकी योजना अगले चुनाव में बड़ी भूमिका निभाने और राजनीति में शामिल होने की है।
बिलावल ने कहा कि मैं पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी का अध्यक्ष हूं। पिछले चुनाव में मैंने प्रचार नहीं किया था। मैं विश्वविद्यालय चला गया था। मुझे नहीं लगता कि अभी मेरे पास सक्रिय भूमिका निभाने के लिए कोई जनादेश है। मैं अगले चुनाव में प्रचार करना और फिर बड़ी भूमिका निभाना चाहता हूं।
उनसे पूछा गया कि क्या वह कभी अपने देश के नेता बनना चाहेंगे। इस पर उनका जवाब था-मैं जिस तरह से भी अपनी जनता की मदद कर सकता हूं, करना चाहूंगा। पाकिस्तान में अभी बहुत कठिन समय है और हम सबको मदद करनी होगी।
पाकिस्तान में उनकी सुरक्षा के बारे में पूछे गए सवाल के जवाब में बिलावल ने कहा कि उन्हें इसकी चिंता नहीं है। उन्होंने कहा मुझे पूरा विश्वास है कि पाकिस्तानी सरकार मुझे पर्याप्त सुरक्षा मुहैया कराएगी, उस सरकार की तरह नहीं जिसने पाकिस्तान में मेरी मां की सुरक्षा के साथ छेड़छाड़ की थी।
अपहरणकांड से फायदे में रहे नक्सली
-अपहरणों के दौरान सुरक्षाबलों की कार्रवाई बंद होने मिला लाभ
-छत्तीसगढ़ और ओडिशा में नक्सलियों ने बिछाया बड़ा बारूदी सुरंग
-केंद्रीय खुफिया एजेंसियों ने दी जानकारी
नई दिल्ली। केंद्रीय एजेंसियों की रिपोर्ट के अनुसार ओडिशा और छत्तीसगढ़ में हाल ही में हुए अपहरणों के दौरान सुरक्षाबलों की कार्रवाई बंद रहने का माओवादियों ने फायदा उठाते हुए दोनों ही राज्यों में बारूदी सुरंग का मजबूत जाल बिछा लिया। साथ ही आधुनिक हथियारों की खरीद और नये कैडरों की भर्ती भी की है।
खुफिया एजेंसियों से जुड़े एक अधिकारी ने बताया कि बंधक संकट के दौरान राज्य पुलिस और केंद्रीय अर्द्धसैनिक बलों ने नक्सलियों के खिलाफ कार्रवाई स्थगित कर दी थी। इस दौरान नक्सली बारूदी सुरंग का बड़ा जाल बिछाने में कामयाब हो गये। अधिकारी ने नक्सल प्रभावित राज्यों को केंद्रीय एजेंसियों की ओर से भेजी गई एक विशेष रिपोर्ट के हवाले से कहा कि माओवादियों ने छत्तीसगढ़ के नारायणपुर, बीजापुर, सरगुजा, बस्तर, दंतेवाडा, कांकेर और राजनंदगांव में अपनी स्थिति मजबूत की है। उन्होंने बताया कि रिपोर्ट में ओडिशा के बारे में उल्लेख है कि वहां के मल्कानगिरि, संबलपुर, रायगढ़, गजपति और देवगढ़ में नक्सलियों ने बारूदी सुरंगों का जाल बिछाया है। अधिकारी ने कहा कि इतालवी पर्यटकों पाओलो बोसुस्को और कादियो कोलंगो, बीजद विधायक झीना हिकाका और सुकमा के कलेक्टर एलेक्स पाल मेनन के अपहरण से सुरक्षाबलों की नक्सल विरोधी कार्रवाई बाधित हुई।
उन्होंने बताया कि कार्रवाई स्थगित होने की स्थिति में नक्सलियों द्वारा नये कैडरों की भर्ती और बडेÞ पैमाने पर आधुनिक हथियार खरीदने की भी खबरें हैं।
यह होगी परेशानी
खुफिया विभाग का कहना है कि लगभग दो महीने तक नक्सलियों के खिलाफ कोई विशेष कार्रवाई नहीं की जा सकी। इससे अद्धसैनिक बलों को भारी झटका लगा है। परेशानी की बात यह भी है कि खुफिया जानकारी एकत्र करने का स्थानीय तंत्र भी नक्सलियों की गतिविधियों पर नजर रखने में दिक्कत महसूस कर रहा है। बारूदी सुरंगें सुरक्षाबलों को नक्सलियों का पीछा करने में दिक्कत करेंगी। विशेषकर तब जब नक्सल किसी एक राज्य से दूसरे राज्य में भाग रहे हों और सुरक्षाबल उनका पीछा कर रहे हों।
हताहत होंगे जवान
खुफिया अधिकारी के मुताबिक जंगली रास्तों से माओवादी अच्छी तरह वाकिफ हैं और उन्हें मालूम होता है कि बारूदी सुरंग कहां बिछायी गई है। सुरक्षाबलों के लिए कुछ इलाके एकदम अनजान हैं और यदि वे किसी ऐसे इलाके से गुजरते हैं, जहां बारूदी सुरंग बिछी है तो बड़े पैमाने पर जवान हताहत हो सकते हैं।
पेट्रोल हुआ महंगा, तो कारें हुर्इं सस्ती
पेट्रोल का असर कम करने के लिए कंपनियों ने दी सौगात
पेट्रोल कारों पर 50 हजार तक की छूट
पेट्रोल के दामों में अब तक सबसे भारी वृद्धि के कारण कार कंपनियों ने ग्राहकों को राहत का मलहम लगाने के लिए पेट्रोल कारों पर भारी छूट का ऐलान किया है। मारुति सुजुकी, टाटा मोटर्स और ह्यूंदै मोटर ने अपने पेट्रोल कारों की खरीद पर 50 हजार रुपये छूट का आॅफर दिया है। हालांकि यह भारी छूट सीमित समय के लिए ही है। पेट्रोल की कीमतों में लगातार वृद्धि से लोग डीजल कारों की खरीद में ज्याद रूचि दिखाने लगे हैं। कंपनियों का मनना है कि इस छूट से ग्राहक आकर्षित होंगे और पेट्रोल कारों की लगातार गिरती बिक्री भी रूकेगी। मारुति सुजुकी इंडिया अपनी सबसे ज्यादा बिकने वाली कार आॅल्टो पर 30 हजार रुपये तक की छूट का आॅफर दे रही है। वहीं, टाटा मोटर्स ने इंडिका और इंडिगो के पेट्रोल कार पर 10 हजार से 50 हजार के छूट का आॅफर दिया है। इस प्रतियोगिता में भला ह्यूंदै मोटर क्यों पीछे रहे। कंपनी ने पेट्रोलन मॉडल की पूरी रेंज पर तीन हजार रुपये तक की छुट का एलान किया है।
इनका कहना है---
बिक्री में आई कमी
हाल के महीनों में पेट्रोल के महंगा होने की वजह से एंट्री लेवल कारों की बिक्री में कमी आई है। आॅल्टो की सेल्स कम हो रही है। हम बेस्ट सेलिंग कार की सेल्स को रफ्तार देने के लिए इस महीने के आखिर तक के लिए 30,000 रुपए का डिस्काउंट आॅफर करेंगे।
-मयंक पारिख, मैैनेजिंग एग्जेक्युटिव आॅफिसर, मारुति सुजुकी
50 हजार तक की छूट
हम इंडिया और इंडिगो के पेट्रोल वैरिएंट्स पर 10 से 50 हजार रुपए तक की छूट दे रहे हैं। नैनो पर हर महीने डिस्काउंट स्कीम चलती है। मई में इस पर 10,000 रुपए का डिस्काउंट दिया जा रहा है।
-प्रवक्ता, टाटा मोटर्स
पेट्रोल के दाम का असर कम करने की कोशिश
31 मई तक कंपनी सभी पेट्रोल कारों पर 3 हजार रुपए तक का डिस्काउंट दे रही है। कस्टमर्स को ईआॅन, सैंट्रो, आई-10, आई-20, एसेंट और वेर्ना पर डिस्काउंट मिलेगा। पेट्रोल प्राइस लॉक अश्योरेंस स्कीम, कस्टमर्स पर पेट्रोल के बढ़े दामों का असर कम करने की कोशिश है।
-अरविंद सक्सेना, मार्केटिंग एवं सेल्स डायरेक्टर, हुन्दे दै मोटर इंडिया लिमिटेड
टाट पहनने वाले बाबा की खबरों की ठाठ
-गहरा सकता है बाबा जय गुरुदेव की संपत्ति के उत्तराधिकार का हक
टाट पहनने वाले की ठाठ
-अरबों का बैंक बैलेंस, 150 करोड़ की कारें
-कुल 4 हजार एकड़ से ज्यादा जमीन
- हर माह 10-12 लाख दान में
-ट्रस्ट के नाम पर स्कूल और पेट्रोल पंप भी
मथुरा। 18 मई को में ब्रह्मलीन हुए बाबा जय गुरुदेव की संपत्ति को जो ब्यौरा लोगों के सामने आ रहा है, वह किसी आश्चर्य से कम नहीं है। बाबा की संपत्ति के अनुमान के मुताबिक बाबा 12 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा का साम्राज्य छोड़ गए हैं। बाबा टाट के वस्त्र धारण करने की नसीहत देते थे, लेकिन उनकी संपत्ति से ठाठ का अंदाज लगाया जा सकता है। संभावना है कि अब इस संपत्ति के उत्तराधिकार का विवाद गहरा सकता है। बाबा के आश्रम को हर महीने दस-बारह लाख रुपए का दान मिलता रहा है, इसमें पूर्णिमा, गुरु पूर्णिमा और होली के आयोजनों पर आने वाला दान शामिल नहीं है।
बाबा के ट्रस्ट के मथुरा में आधा दर्जन से ज्यादा बैंकों में खाते व मियादी जमा रुपये हैं। भारतीय स्टेट बैंक के मंडी समिति शाखा में एक अरब रुपए जमा होने के बारे में जानकारी मिल रही है। मियादी जमा भी कई अरब रुपयों का है। अचल संपत्ति में ज्यादातर मथुरा-दिल्ली हाईवे पर एक तरफ साधना केंद्र से जुड़ी जमीनें हैं, तो दूसरी तरफ बाबा का आश्रम है। तीन सौ बीघे जमीन पर एक आश्रम इटावा के पास खितौरा में बन रहा है। एक अनुमान के मुताबिक बाबा के ट्रस्ट के पास चार हजार एकड़ से ज्यादा जमीन है। जय गुरुदेव के ट्रस्ट के नाम से मथुरा में स्कूल और पेट्रोल पंप भी हैं। बाबा के आश्रम में दुनिया की सबसे महंगी गाड़ियों का काफिला है। इसमें पांच करोड़ से ज्यादा कीमत की लिमोजिन गाड़ी भी है। करोड़ों की प्लेमाउथ, ओल्ड स्कोडा, मर्सडीज बेंज और बीएमडब्ल्यू सहित तमाम गाडियों की कीमत 150 करोड़ के आसपास आंकी जा रही है।
7 साल की उम्र में हुए थे अनाथ
बाबा जय गुरुदेव के बचपन का नाम तुलसीदास था। उनकी जन्म तिथि के बारे में कोई प्रमाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। सात साल की उम्र में ही तुलसीदास के मां-बाप का निधन हो गया था। तभी से वह मंदिर-मस्जिद और चर्च जाने लगे। कुछ समय बाद घूमते-घूमते अलीगढ़ के चिरौली गांव पहुंचे। वहां घूरेलाल शर्मा को उन्होंने अपना गुरु बना लिया। दिसंबर 1950 में उनके गुरु नहीं रहे। बाबा जय गुरुदेव ने दस जुलाई 52 को बनारस में पहला प्रवचन दिया था।
जेल गए, संसद चुनाव हारे
29 जून 75 के आपातकाल के दौरान वे जेल गए, आगरा सेंट्रल, बरेली सेंटल जेल, बेंगलूर की जेल के बाद उन्हें नई दिल्ली के तिहाड़ जेल ले जाया गया। वहां से वह 23 मार्च 77 को रिहा हुए। 1980 और 90 के दशक में दूरदर्शी पार्टी बनाकर संसद का चुनाव लड़ा, लेकिन जीत हासिल नहीं हुई।
अवतारी नहीं खुद को कट्टर हिंदू कहते थे
जय बाबा गुरुदेव ने कोलकाता में पांच फरवरी 1973 को सत्संग सुनने आए अनुयायियों के सामने कहा था कि सबसे पहले मैं अपना परिचय दे दूं- मैं इस किराए के मकान में पांच तत्व से बना साढ़े तीन हाथ का आदमी हूं। इसके बाद उन्होंने कहा था- मैं सनातन धर्मी हूं, कट्टर हिंदू हूं, न बीड़ी पीता हूं न गांजा, भांग, शराब और न ताड़ी। आप सबका सेवादार हूं। मेरा उद्देश्य है सारे देश में घूम-घूम कर जय गुरुदेव नाम का प्रचार करना। मैं कोई फकीर और महात्मा नहीं हूं। मैं न तो कोई औलिया हूं न कोई पैगंबर और न अवतारी।
मथुरा में बना पहला आश्रम
गुरु के आदेश का पालन करते हुए बाबा जय गुरुदेव ने कृष्णानगर (मथुरा) में चिरौली संत आश्रम बनाया। बाद में नेशनल हाइवे के किनारे एक आश्रम बनवाया। नेशनल हाइवे के किनारे ही उनका भव्य स्मृति चिन्ह जय गुरुदेव नाम योग साधना मंदिर है। यहां दर्शन 2002 से शुरू हुआ था। नाम योग साधना मंदिर में सर्वधर्म समभाव के दर्शन होते हैं। इस समय आश्रम परिसर में ही कुटिया का निर्माण करा रहे थे।
Wednesday, 2 May 2012
आ केहू खराब नइखे, सबे ठीक बा...
आ केहू खराब नइखे, सबे ठीक बा...
नीतीश के पहले दौर के शासन और अब के माहौल में खासा अंतर है। विकास की तेज रफ्तार पकड़ कर देश-दुनिया में नया कीर्तिमान रचने वाले राज्य के वर्तमान हालात जानने के लिए अप्रैल माह के अंतिम सप्ताह में घटित कुछ घटनाओं को देखना काफी होगा...
संजय स्वदेश
जब भी
किसी राज्य की सरकार बदलती है, समाज की आबोहवा करवट लेती है। भले ही इस
करवट से कांटे चुभे या मखमली गद्दे सा अहसास हो, परिर्वतन स्वाभाविक है।
बिहार में नीतीश से पहले राजद का शासन था। जब लालू प्रसाद का शासनकाल आया
था तब भी कमोबेश वैसे ही सकारात्मक बदलाव की सुगबुगाहट थी, जैसे नीतीश
कुमार की सत्ता में आने पर हुई।
लालू के
पहले चरण के शासनकाल में दबी-कुचली पिछड़ी जाति का आत्मविश्वास बढ़ा।
उन्हें एहसास हुआ कि वे भी शासकों की जमात में शामिल हो सकते हैं, लेकिन
धीरे-धीरे लालू के शासन से लोग बोर होने लगे। प्रदेश की विकास की रफ्तार
जड़ हो गई। लोग उबने लगे। नई तकनीक से देश-दुनिया में बदलाव का दौर चला।
बिहार की जड़ मनोदशा में भी बदलने की सुगबुगाहट हुई। जनता ने रंग दिखाया।
राजद की सत्ता उखाड़कर नीतीश को कमान सौंपी।
नीतीश के
पहले दौर के शासन और अब के माहौल में खासा अंतर है। विकास की तेज रफ्तार
पकड़ कर देश दुनिया में नया कीर्तिमान रचने वाले राज्य की वर्तमान हालात
जानने के लिए अप्रैल माह के अंतिम सप्ताह में घटित कुछ घटनाओं को देखिये।
गोपालगंज
जिले के जादोपुर थाना क्षेत्र के बगहां गांव में पूर्व से चल रहे भूमि
विवाद को लेकर कुछ लोगों ने एक अधेड़ की पीटकर हत्या कर दी। एक अन्य घटना
में गोपालगंज जिले के ही हथुआ थाना क्षेत्र के जुड़ौनी नाम की जगह पर एक
छात्र को रौंदने वाले जीपचालक को भीड़ ने मार-मार कर अधमरा कर दिया। जीप
में आग लगा दी। अधमरे जीप चालक के हाथ-पांव बांधकर जलती जीप में फेंक दिया।
तड़पते चालक ने आग से निकल कर भागने की कोशिश की तो भीड़ ने फिर उसे
दुबारा आग में फेंक दिया। एक तीसरी घटना देखिये-गोपालगंज के ही प्रसिद्ध
थावे दुर्गा मंदिर परिसर में आयोजित पारिवारिक कार्यक्रम में भाग लेने आई
एक महिला का उसके दो मासूम बच्चों के साथ अपहरण कर लिया गया।
जिस तरह
चावल के एक दाने से पूरे भात के पकने का अनुमान लगाया जा सकता है, उसी तरह
से बिहार के एक जिले की इन घटनाओं से 'सुशासन' में प्रशासनिक व्यवस्था की
पोल खुल जाती है। बिहार पर केन्द्रित 'अपना बिहार' नामक समाचार वेबसाइट पर
प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार 25 अप्रैल को विभिन्न समाचार पत्रों में
प्रकाशित समाचार के अनुसार अलग-अलग घटनाओं में कुल 19 हत्या, 29 लूट और
चोरी और दो बलात्कार की घटनाएं हुर्इं। जरा गौर करें, जिस समाज में एक ही
दिन में 19 हत्या हो, भीड़ कानून को हाथ में लेकर एक व्यक्ति के हाथ-पांव
बांध कर जिंदा आगे के हवाले कर दे, संपत्ति के लिए अधेड़ को पीट-पीटकर मौत
के घाट उतार दे, क्या ये मजबूत होते 'सुशासन' के लक्षण हैं।
सुनियोजित
और संगठित आपराधिक कांडों के आंकड़े भले ही बिहार में कम हुए हैं, लेकिन
आपराधिक गतिविधियों को अंजाम देने वाली क्रूरता जनमानस से निकली नहीं है।
इन दिनों सबसे ज्यादा पचड़े किसी न किसी तरह से संपत्ति मामले को लेकर हैं।
लालू राज
में बिहार की बदतर सड़कें कुशासन की गवाह होती थीं। अब यही सड़कें नीतीश के
विकास की गाधा गाती हैं। इन सड़कों को रौंदने के लिए ढेरों नये वाहन उतर
आए। आटो इंडस्ट्री को चोखा मुनाफा हुआ। सरकार की झोली में राजस्व भी आया,
लेकिन सड़कों पर रौंदने वाले वाहनों के अनुशासन पर नियंत्रण कहां है। जितनी
तेजी से सड़कें बनी हैं नीतीश के शासन में, उतनी ही तेजी से सड़क
दुर्घटनाएं बढ़ीं हैं।
बिजली की
समस्या बिहार के लिए सदाबहार रही। नीतीश के सुशासन में टुकड़ों-टुकड़ों में
6-8 घंटे जल्दी बिजली राहत तो देती है, लेकिन अभी यह बिजली किसी उद्योग को
शुरू करने का भरोसे लायक विश्वास नहीं जगाती। विज्ञापन और सत्ता से अन्य
लाभ के लालच में भले ही बिहार का मीडिया नीतीश के यशोगान में लगा है, लेकिन
गांव के अनुभवी अनपढ़ बुजुर्गों से नीतीश और लालू के राज की तुलना में कौन
अच्छा है, पूछने पर चतुराई भरा जवाब मिलता है- ...आ केहू खराब नइखे, सबे
ठीक बा...।
Tuesday, 3 April 2012
Sunday, 1 April 2012
एक वह छात्रसंघ, एक यह लोकतंत्र
दिल्ली देश की राजधानी है और संविधान की पटरानी है इसलिए हम अपने लोकतांत्रिक समस्याओं के लिए हमेशा दिल्ली की ओर देखते रहते हैं। लेकिन क्या रे वह ठूंठ संसद और क्या उसके निठल्ले सांसद। सरल सवालों का भी जटिल जवाब मिलता है। समस्या सुलझती नहीं बल्कि उलझ जाती है। अरविन्द केजरीवाल के संसदीय सवालों के गैर संसदीय जवाब जरूर मिल रहे हैं लेकिन जनतंत्र की समस्या बनते जनप्रतिनिधि क्या उस हिन्दू कालेज की तरफ देखेंगे जो अपने आपमें लोकतंत्र का अनूठा प्रयोग कर रहा है, सालों से। हमारी लोकतांत्रिक समस्याओं का जवाब शायद हिन्दू कालेज के छात्रसंघ के पास है, जो दिल्ली से दूर नहीं बल्कि दिल्ली में ही है।
संजय स्वेदश
स्कूलों में पढ़ते हुए ही हमें परिभाषा बताई जाती है कि- लोकतंत्र- जनता की सरकार, जनता के लिए जनता के द्वारा चुनी जाती है। कुल मिलाकर यह समझाया जाता है कि जनता अपने ऊपर शासन स्वयं करती है। इस लिहाज से देश में जनता ही सर्वोच्च हुई, लेकिन हकीकत ऐसी है नहीं। देश की बहुसंख्यक जनता को दरकिनार कर दिया जाता है। जनता ने जब अपने ऊपर अपने शासन के लिए जनप्रतिनिधियों को अधिकार दे दिया तो उन्होंने खुद को सर्वोच्च मान लिया। जितनी समय अवधि के लिए चुना गया, उसके लिए जनता के प्रतिनिधि कहीं से भी अपने आप को आम नहीं मानते हैं। आम के प्रतिनिधि होकर वे खास बादशाह की तरह व्यवहार करते हैं। ऐसा तब तक होता रहेगा, जब तक जनप्रतिनिधि चुनाव में हारने वाले ढेरों उम्मीदवारों के पीछे खड़ी कुल बहुसंख्यक जनता को सम्मान न मिले। जीत का ताज पहनने वाले प्रतिनिधि बहुसंख्यक का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। इसे असानी से समझने के लिए एक उदाहरण है-एक चुनाव क्षेत्र में मान ले कि साठ प्रतिशत मतदान हुआ। मतलब चालीस प्रतिशत जनता तो पहले ही चुनावी मैदान में उतरे उम्मीदवारों के साथ खड़ी नहीं है। बाकी बची साठ प्रतिशत जनता। इन्हीं बाकी बची जनता में जिन्हें सबसे अधिक मत मिलता है वह विजयी घोषित होता है। अंक गणित के सिद्धांत के अनुसार जिन्हें सबसे ज्यादा मत मिला वे जीते। उनकी जीत निकटतम प्रतिद्वंदी से हुई। अब यहां इस गणित को ऐसे समझते हैं। मान लीजिए एक चुनाव क्षेत्र में 100 वोट हैं। इन सौ वोटों में 40 ने पहले ही वोट देने से मना कर दिया। बाकी बचे साठ वोटों में जिन्हें सर्वाधिक वोट मिले वह विजेता घोषित हुआ। लेकिन इन साठ वोटों में भी छीना झपटी है। मारामारी है। कई बार बीस मत पानेवाला विजयी होता है और उन्नीस मत पानेवाला पराजित करार दे दिया जाता है। अब उन्नीस बीस या यह अंतर निर्णायक अंतर बन जाता है। लेकिन हकीकत में क्या होता है?
हकीकत में होता यह है कि 100 मतदाताओं में 20 मतदाताओं का समर्थन पानेवाला उम्मीदवार बाकी बचे 80 मतदाताओं का भी जनप्रतिनिधि मान लिया जाता है। क्या यह तर्कसंगत और न्यायसंगत है? क्या 100 में सिर्फ 20 मतदाताओं का समर्थन पानेवाला उम्मीदवार जनप्रतिनिधि घोषित किया जा सकता है? अगर उसे हम जनप्रतिनिधि मान भी लें और उन चालीस को भूल जाएं जिन्होंने मतदान प्रक्रिया में हिस्सेदारी नहीं की तो भी उन चालीस का क्या हुआ जिन्होंने मतदान प्रक्रिया में हिस्सेदारी की थी? हमारे लोकतंत्र के पास इस खामी को पाटने का कोई तरीका नहीं है और शायद इसी एक बड़ी खामी की वजह से राजनीति गंदा नाला बनती जा रही है और राजनीतिक नेता गंदी नाली के कीड़े। ऐसा इसलिए क्योंकि चुनाव के बाद बाकी बचे पांच साल के लिए जीतने वाले उम्मीदवार के पास प्रशासन की बागडोर होती है तो हारे हुए उम्मीदवार जनता के बीच से गायब हो जाते हैं और वह करते हैं जो न तो राजनीति होती है और न ही समाजसेवा।
लिहाजा, उपाय क्या है। एक सुझाव है। सुझाव की सफलता का पहले उदारहण देखे। दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित हिंदू कॉलेज में अन्य कॉलेज की तरह छात्रसंघ चुनाव होता है। लेकिन यहां की कार्यप्रणाली सभी कॉलेज के छात्र संघों से अलग है। अध्यक्ष पद के लिए जो भी छात्र जीतता है, उसे प्रधानमंत्री कहा जाता है और हारने वाले निकटम प्रतिद्वंदी को नेता प्रतिपक्ष का सम्मान मिलता है। ठीक देश की संसदीय प्रणाली की तरह। छात्रसंघ का जो बजट और कार्य होता है, उसे छात्रसभा में बहस के बाद मंजूरी मिलती है। इसमें नेता प्रतिपक्ष की भूमिका भी महत्वपूर्ण होती है। इस बहस में प्रस्तावों पर नेता प्रतिपक्ष के विचारों के अनुसार आवश्यक संशोधन भी हो जाते हैं।
मतलब हारने वाले निकटतम प्रतिद्वंद्वी के पक्ष में मतदान करने वाले छात्रों का मत भी व्यर्थ नहीं जाता है। उसके पीछे खड़े छात्रों की बात भी सुनी जाती है। लेकिन वहीं जन प्रतिनिधियों के चयन के मामले में स्थिति बिलकुल ही उलट है। यहां हारने वाले निकटतम प्रतिनिधियों का कोई महत्व नहीं है। भले ही वह लाखों वोट पा कर दो-चार मत से ही क्यों न पिछड़ गया हो। कुछ वोटों से जीतने वाला उसका बादशाह बन जाता है। कहने के लिए तो चुना हुआ प्रतिनिधि पूरी जनता का प्रतिनिधि हो जाता है। लेकिन तार्किक रूप से देंखे तो वह अल्पसंख्यक जनता का ही प्रतिनिधि होता है। अब अल्पसंख्यक जनता के प्रतिनिधि की बातें या विकास कार्य का सुझाव, विकास के लिए जगह का चयन या यूं कहें तो पूरी कार्यप्रणाली में उसकी ही मनमर्जी चलती है। बाकी जनता की भावना को कोई पूछने वाला नहीं है। विरोध करने वाले विरोध करते रहे, जीत से मिली पद के मद में चुर अपेक्षित जनता की सुध लेने जरूरत नहीं समझी जाती है।
क्या हिंदू कॉलेज के छात्र संघ कार्यप्रणाली की नकल अथवा संसदीय कार्यप्रणाली का तर्ज चुनावी क्षेत्र में लागू नहीं किया जा सकता है? कम से कम हारे हुए निकटतम प्रतिद्वंदी को किसी न किसी रूप में महत्व देकर जनता की गरीमा बढ़ाई जा सकती है। क्षेत्र में विकास के प्रस्ताविक कार्यों में हारे हुए प्रतिनिधि से भी अनिवार्य सुझाव व समहति लेने से लोकतंत्र का गौरव नहीं घेटेगा।
Monday, 12 March 2012
Thursday, 16 February 2012
शहर के पानी की बदबूदार कहानी
सुनीता नारायण
अगर जल जीवन है तो सीवेज इस जीवन की असली कहानी कहता है। स्टेट आॅफ इंडिया इन्वायरमेन्ट रिपोर्ट की सातवीं रिपोर्ट हमारा ध्यान जीवन की इसी कहानी की ओर आकर्षित कर रहा है। रिपोर्ट बता रही है अपनी जरूरतों के लिए कैसे हमारे शहर पानी सोख रहे हैं और नदियों को नष्ट कर रहे हैं। शहरों के पानी के बारे में जानना हो तो सिर्फ इतना पूछना जरूरी होगा कि हमारे शहर पानी पाते कहां से हैं और उनका सीवेज जाता कहां पर है? लेकिन पानी सिर्फ इस एक सवाल जवाब का सवाल नहीं है। सिर्फ प्रदूषण और बबार्दी का भी मसला नहीं है। मसला यह है कि हमारे शहर किस तरह से विकसित हो रहे हैं?
इसमें हमारे किसी भी योजनाकार को कोई शक नहीं है कि शहरीकरण जिस गति से बढ़ रहा है उसमें और अधिक तेजी आएगी। लेकिन इस तेज गति से बढ़ते शहरों को पानी कहां से मिलेगा और वे अपने सीवेज का निष्पादन कैसे करेंगे? जिस रिपोर्ट का हम यहां जिक्र कर रहे हैं, उस रिपोर्ट में सीएसई ने इसी सबसे महत्वपूर्ण सवाल का जवाब तलाशने की कोशिश की है। लेकिन अपनी पड़ताल के दौरान हमें बहुत आश्चर्य हुआ कि इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर देश में न तो कहीं ठीक से डाटा उपलब्ध है, न ही इस बारे में कोई महत्वपूर्ण शोध हुए हैं और सोच के स्तर पर भी गजब का खालीपन है। शहर में रहनेवाले लोगों को पानी उनके घर के अंदर मिल जाता है। वे पानी का उपयोग करने के बाद जो सीवेज निर्मित करते हैं, वह नदियों के हवाले कर दिया जाता है जिससे वही नदियां मरने लगती हैं जो शहरों को अपना पानी देकर जीवित रखती हैं। लेकिन हमारा शहरी समाज पानी और नदी के बीच इतना सा भी संबंध जोड़ना नहीं जानता है कि टायलेट फ्लश करने से नदी के मरने का क्या संबंध है? वे जानना तो नहीं चाहते, लेकिन उन्हें जानने की जरूरत है।
शहरी समाज की इस लापरवाही का कारण आखिर क्या है? क्या यह हमारे ऊपर भारतीय जाति व्यवस्था का असर है कि घर से कचरा हटाना हमारा नहीं बल्कि किसी और का काम है? या फिर हम इस बारे में इतने लापरवाह इसलिए हैं क्योंकि हमें लगता है कि यह काम तो सरकार का है इसलिए इस बारे में हमें सोचने की जरूरत नहीं है या फिर यह भारतीय समाज के अति अहंकार का प्रतीक है जो यह मानता है कि संपन्नता से सभी समस्याओं का समाधान निकाला जा सकता है? वैसे भी हमारी सरकारें हमें यही सिखाती हैं कि संपन्नता से हम बड़े बड़े इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट तैयार करेंगे और पानी तथा सीवेज की समस्या से निजात पा लेगें?
हम चाहे जिस रूप में ऐसा व्यवहार कर रहे हों लेकिन एक बात साफ है कि हम भारतीय पानी के बारे में बहुत अज्ञानी हो चले हैं। सीएसई में अपने इस शोध के दौरान हमने शहर दर शहर डाटा तलाशने के लिए ऐसे कार्यालयों के चक्कर लगाये जहां शायद ही कोई शोधार्थी कभी जाता हो। इस किताब में जिन 71 शहरों के बारे में हमने शोध किया है, उसमें उस शहर के पानी के वर्तमान की ही कहानी नहीं है, बल्कि उस शहर में पानी के अतीत और भविष्य का भी वर्णन है। 90 के दशक में ही पर्यावरणविद अनिल अग्रवाल ने कहा था कि इस देश में कचरा पैदा करने के राजनीतिक अर्थशास्त्र को समझने की जरूरत है जो कि अपनी सुविधा के लिए दूसरे के सिर पर अपनी गंदगी फेंक आता है। अब जबकि हम गंदगी फेंकने के राजनीतिक अर्थशास्त्र को समझने की कोशिश कर रहे हैं तो एक तथ्य ऐसा उभरकर सामने आ रहा है जो निश्चित रूप से हमें गुस्से से भर देता है। आज हम अपने शहर में जिसे गंदा नाला कहते हैं, अतीत में अधिकांश ऐसे गंदे नाले नदियां हुआ करती थीं। अपने अध्ययन के दौरान हमारे सामने यह चौंकानेवाला तथ्य सामने आया है।
अधिकतर शहरों के आज के गंदे नाले अतीत की साफ नदियां हुआ करती थीं। दिल्ली के लोग नजफगढ़ नाले के बारे में जानते होंगे। यह नजफगढ़ नाला रोजाना शहरी की गंदगी यमुना के हवाले करता है, लेकिन दिल्लीवालों को यह शायद नहीं मालूम है कि इस नाले का उद्गमस्थल शहरी घरों के टायलेट नहीं है बल्कि इसका उद्गम साहिबी झील से होता था। लेकिन अब साहिबी झील का भी कहीं पता नहीं है। कोढ़ में खाज यह है कि दिल्ली के ठीक बगल में आजकल जो नया शहर गुड़गांव दुनिया के सामने अपनी चमक दमक दिखा रहा है वह गुड़गांव साहिबी झील की तर्ज पर ही नजफगढ़ झील को अपने सीवेज से समाप्त कर रहा है।
लुधियाना का बुढ्ढा नाला अपनी गंदगी और बदबू के कारण जाना जाता है। लेकिन बहुत वक्त नहीं बीता है, जब बुद्धा नाला नहीं बल्कि बुढ्ढा दरिया होता था। सिर्फ एक पीढ़ी ने इस साफ पानी के दरिया को गंदे बदबूदार नाले में परिवर्तित कर दिया।
मुंबई की मीठी नदी तो सीधे सीधे इस शहर के शर्म की कहानी ही कहती है। 2005 में जब मुंबई में बाढ़ आई थी तो अचानक लोगों को मीठी नदी की याद आई। याद इसलिए कि मीठी नदी इतनी अधिक गाद से भरी हुई थी कि वह शहर का पानी समुद्र तक ले जाने में अक्षम साबित हुई। लेकिन इसके लिए मीठी नदी को शर्म करने की जरूरत कत्तई नहीं है। इसके लिए तो मुंबईवालों को शर्म करने की जरूरत है। मीठी नदी आज इतनी गंदी हो चुकी है कि इसे नाले के रूप में देखा जाता है, लेकिन यह नाला नहीं बल्कि समुद्र के किनारे मीठे पानी की ही नदी थी। हमारे सरकारी विभागों के रिकार्ड में भी अब मीठी नदी का नाम नहीं बचा है। वहां भी अब मीठी नदी को नाले के रूप में चिन्हित कर लिया गया है।
अपनी नदियों को इस तरह नालों में तब्दील करने पर भी क्या हमें किसी प्रकार की कोई शर्म आती है? क्या हमें कभी आश्चर्य होता है? हम अपने शहरी घरों और शहरी उद्योगों के लिए इन्हीं नदियों से पानी लेते हैं और गंदा करके नदियों को वापस कर देते हैं। अच्छी खासी साफ सुथरी नदी को अपने स्पर्श से हम नाले में तब्दील कर देते हैं। क्या हम शहरी लोग कभी इस बारे में सोचते हैं?
अगर अब तक हमने नहीं सोचा तो अब हमें सोचने की जरूरत है। अभी भी हमने अपने पानी के व्यवहार के बारे में नहीं सोचा और इसी तरह से नदियों को नालों में बदलते रहे तो बाकी बची हुई नदियां हमारा साथ छोड़ देंगी। आज हम नजफगढ़, मीठी और बुढ्ढा नदी को नाले के रूप में देख रहे हैं, हमारी आनेवाली पीढ़िया यमुना, दामोदर और कावेरी नदियों को भी नाले के रूप में पहचानेगी? क्या हम अपने आनेवाली पीढ़ियों को यही भविष्य देना चाहते हैं?
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अगर जल जीवन है तो सीवेज इस जीवन की असली कहानी कहता है। स्टेट आॅफ इंडिया इन्वायरमेन्ट रिपोर्ट की सातवीं रिपोर्ट हमारा ध्यान जीवन की इसी कहानी की ओर आकर्षित कर रहा है। रिपोर्ट बता रही है अपनी जरूरतों के लिए कैसे हमारे शहर पानी सोख रहे हैं और नदियों को नष्ट कर रहे हैं। शहरों के पानी के बारे में जानना हो तो सिर्फ इतना पूछना जरूरी होगा कि हमारे शहर पानी पाते कहां से हैं और उनका सीवेज जाता कहां पर है? लेकिन पानी सिर्फ इस एक सवाल जवाब का सवाल नहीं है। सिर्फ प्रदूषण और बबार्दी का भी मसला नहीं है। मसला यह है कि हमारे शहर किस तरह से विकसित हो रहे हैं?
इसमें हमारे किसी भी योजनाकार को कोई शक नहीं है कि शहरीकरण जिस गति से बढ़ रहा है उसमें और अधिक तेजी आएगी। लेकिन इस तेज गति से बढ़ते शहरों को पानी कहां से मिलेगा और वे अपने सीवेज का निष्पादन कैसे करेंगे? जिस रिपोर्ट का हम यहां जिक्र कर रहे हैं, उस रिपोर्ट में सीएसई ने इसी सबसे महत्वपूर्ण सवाल का जवाब तलाशने की कोशिश की है। लेकिन अपनी पड़ताल के दौरान हमें बहुत आश्चर्य हुआ कि इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर देश में न तो कहीं ठीक से डाटा उपलब्ध है, न ही इस बारे में कोई महत्वपूर्ण शोध हुए हैं और सोच के स्तर पर भी गजब का खालीपन है। शहर में रहनेवाले लोगों को पानी उनके घर के अंदर मिल जाता है। वे पानी का उपयोग करने के बाद जो सीवेज निर्मित करते हैं, वह नदियों के हवाले कर दिया जाता है जिससे वही नदियां मरने लगती हैं जो शहरों को अपना पानी देकर जीवित रखती हैं। लेकिन हमारा शहरी समाज पानी और नदी के बीच इतना सा भी संबंध जोड़ना नहीं जानता है कि टायलेट फ्लश करने से नदी के मरने का क्या संबंध है? वे जानना तो नहीं चाहते, लेकिन उन्हें जानने की जरूरत है।
शहरी समाज की इस लापरवाही का कारण आखिर क्या है? क्या यह हमारे ऊपर भारतीय जाति व्यवस्था का असर है कि घर से कचरा हटाना हमारा नहीं बल्कि किसी और का काम है? या फिर हम इस बारे में इतने लापरवाह इसलिए हैं क्योंकि हमें लगता है कि यह काम तो सरकार का है इसलिए इस बारे में हमें सोचने की जरूरत नहीं है या फिर यह भारतीय समाज के अति अहंकार का प्रतीक है जो यह मानता है कि संपन्नता से सभी समस्याओं का समाधान निकाला जा सकता है? वैसे भी हमारी सरकारें हमें यही सिखाती हैं कि संपन्नता से हम बड़े बड़े इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट तैयार करेंगे और पानी तथा सीवेज की समस्या से निजात पा लेगें?
हम चाहे जिस रूप में ऐसा व्यवहार कर रहे हों लेकिन एक बात साफ है कि हम भारतीय पानी के बारे में बहुत अज्ञानी हो चले हैं। सीएसई में अपने इस शोध के दौरान हमने शहर दर शहर डाटा तलाशने के लिए ऐसे कार्यालयों के चक्कर लगाये जहां शायद ही कोई शोधार्थी कभी जाता हो। इस किताब में जिन 71 शहरों के बारे में हमने शोध किया है, उसमें उस शहर के पानी के वर्तमान की ही कहानी नहीं है, बल्कि उस शहर में पानी के अतीत और भविष्य का भी वर्णन है। 90 के दशक में ही पर्यावरणविद अनिल अग्रवाल ने कहा था कि इस देश में कचरा पैदा करने के राजनीतिक अर्थशास्त्र को समझने की जरूरत है जो कि अपनी सुविधा के लिए दूसरे के सिर पर अपनी गंदगी फेंक आता है। अब जबकि हम गंदगी फेंकने के राजनीतिक अर्थशास्त्र को समझने की कोशिश कर रहे हैं तो एक तथ्य ऐसा उभरकर सामने आ रहा है जो निश्चित रूप से हमें गुस्से से भर देता है। आज हम अपने शहर में जिसे गंदा नाला कहते हैं, अतीत में अधिकांश ऐसे गंदे नाले नदियां हुआ करती थीं। अपने अध्ययन के दौरान हमारे सामने यह चौंकानेवाला तथ्य सामने आया है।
अधिकतर शहरों के आज के गंदे नाले अतीत की साफ नदियां हुआ करती थीं। दिल्ली के लोग नजफगढ़ नाले के बारे में जानते होंगे। यह नजफगढ़ नाला रोजाना शहरी की गंदगी यमुना के हवाले करता है, लेकिन दिल्लीवालों को यह शायद नहीं मालूम है कि इस नाले का उद्गमस्थल शहरी घरों के टायलेट नहीं है बल्कि इसका उद्गम साहिबी झील से होता था। लेकिन अब साहिबी झील का भी कहीं पता नहीं है। कोढ़ में खाज यह है कि दिल्ली के ठीक बगल में आजकल जो नया शहर गुड़गांव दुनिया के सामने अपनी चमक दमक दिखा रहा है वह गुड़गांव साहिबी झील की तर्ज पर ही नजफगढ़ झील को अपने सीवेज से समाप्त कर रहा है।
लुधियाना का बुढ्ढा नाला अपनी गंदगी और बदबू के कारण जाना जाता है। लेकिन बहुत वक्त नहीं बीता है, जब बुद्धा नाला नहीं बल्कि बुढ्ढा दरिया होता था। सिर्फ एक पीढ़ी ने इस साफ पानी के दरिया को गंदे बदबूदार नाले में परिवर्तित कर दिया।
मुंबई की मीठी नदी तो सीधे सीधे इस शहर के शर्म की कहानी ही कहती है। 2005 में जब मुंबई में बाढ़ आई थी तो अचानक लोगों को मीठी नदी की याद आई। याद इसलिए कि मीठी नदी इतनी अधिक गाद से भरी हुई थी कि वह शहर का पानी समुद्र तक ले जाने में अक्षम साबित हुई। लेकिन इसके लिए मीठी नदी को शर्म करने की जरूरत कत्तई नहीं है। इसके लिए तो मुंबईवालों को शर्म करने की जरूरत है। मीठी नदी आज इतनी गंदी हो चुकी है कि इसे नाले के रूप में देखा जाता है, लेकिन यह नाला नहीं बल्कि समुद्र के किनारे मीठे पानी की ही नदी थी। हमारे सरकारी विभागों के रिकार्ड में भी अब मीठी नदी का नाम नहीं बचा है। वहां भी अब मीठी नदी को नाले के रूप में चिन्हित कर लिया गया है।
अपनी नदियों को इस तरह नालों में तब्दील करने पर भी क्या हमें किसी प्रकार की कोई शर्म आती है? क्या हमें कभी आश्चर्य होता है? हम अपने शहरी घरों और शहरी उद्योगों के लिए इन्हीं नदियों से पानी लेते हैं और गंदा करके नदियों को वापस कर देते हैं। अच्छी खासी साफ सुथरी नदी को अपने स्पर्श से हम नाले में तब्दील कर देते हैं। क्या हम शहरी लोग कभी इस बारे में सोचते हैं?
अगर अब तक हमने नहीं सोचा तो अब हमें सोचने की जरूरत है। अभी भी हमने अपने पानी के व्यवहार के बारे में नहीं सोचा और इसी तरह से नदियों को नालों में बदलते रहे तो बाकी बची हुई नदियां हमारा साथ छोड़ देंगी। आज हम नजफगढ़, मीठी और बुढ्ढा नदी को नाले के रूप में देख रहे हैं, हमारी आनेवाली पीढ़िया यमुना, दामोदर और कावेरी नदियों को भी नाले के रूप में पहचानेगी? क्या हम अपने आनेवाली पीढ़ियों को यही भविष्य देना चाहते हैं?
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जंगल को जानने का असभ्य नजरिया
यदि झारखंड का ही उदाहरण लें तो हाल ही में आॅपरेशन एनाकोंडा के शिकार कितने आदिवासी हुए हैं। लोगों के आंखे फोड़ी जा रही है तो कहीं पुलिस बलात्कार कर रही है। खुद पुलिस भी इस बात को स्वीकार करती है कि चाईबासा जिले के गांव बलवा का रहने वाला मंगल की मौत गलती से हुई है। आज न जाने कितने मंगल देश के जंगलों में मिल जाएंगे।
अविनाश कुमार चंचल
यदि आप विदेशी हैं और केवल दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों तक घूमे हैं तो मुमकिन है आप इस देश को विकसित राष्ट्र के श्रेणी में आराम से रख सकते हैं। जैसा कि पिछले दिनों ओबामा ने भी माना। कभी सांप और जंगलों के लिए मशहूर भारत में आज जंगल शब्द के मायने ही बदल गये हैं। आज कथित विकसित भारत की आत्मा किसी गांव या जंगल में नहीं बसती। दिल्ली और बंगलौर को देखकर ही हम उसे भारत की आत्मा समझ लेते हैं। और इस भारत की नयी आत्मा में रहनेवाले लोग जंगल और जंगलवासियों को जैसे देखते हैं वह देखने का सभ्य तरीका तो बिल्कुल नहीं है। जंगल को वे निहायत जंगली सोच के साथ देखते हैं।
जिस तरह से सरकार जंगलों को कॉरपोरेट हाथों में बिना किसी हिचक के देती जा रही है उससे जंगलों में रहने वाले आदिवासियों के अस्तित्व पर ही खतरा मंडराता नजर आता है। एक तो साल-दर-साल जारी आंकड़े में जंगलों का क्षेत्रफल सिमटता जा रहा है। फिर भी यदि हमारी सरकार सचेत नहीं होती है तो यह चिंताजनक बात है।
जिस तरह से सारे विश्व में पर्यावरण को लेकर चिंताएं जतायी जा रही हैं। क्योटो से लेकर कोपनहेगन तक चर्चा और बहस का दौर गर्म है। ऐसे में चंद कॉरपोरेट हितों को साधने के लिए जंगलों को नष्ट करना न तो देश हित में है और न ही सदियों से जंगलो में रहते आ रहे समुदायों के हित में। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि जिस सरकार पर इन आदिवासियों के लिए विकास की व्यवस्था करने की जिम्मेदारी थी, वही सरकार इन पर गोलियां बरसा रही है। यदि झारखंड का ही उदाहरण लें तो हाल ही में आॅपरेशन एनाकोंडा के शिकार कितने आदिवासी हुए हैं। लोगों के आंखे फोड़ी जा रही है तो कहीं पुलिस बलात्कार कर रही है। खुद पुलिस भी इस बात को स्वीकार करती है कि चाईबासा जिले के गांव बलवा का रहने वाला मंगल की मौत गलती से हुई है। आज न जाने कितने मंगल देश के जंगलों में मिल जाएंगे।
दिल्ली मुंबई की चकाचौंध में हम अक्सर देश के जंगलों और वहां रहने वाले लोगों को भूल जाते हैं। हमारी मीडिया भी इन जंगलों की समस्या को नहीं दिखाना चाहती क्योंकि उनका दर्शक वर्ग अभिजात्य मध्य वर्ग है जिसकी दिलचस्पी कार और नये मोबाईल हैंडसेट में ज्यादा है। यदि मीडिया इन जंगलों के बारे में दिखाती भी है तो तब जब किशनजी या आजाद जैसे नक्स्ली नेताओं की कथित मुठभेड़ में मौत हो जाती है। किसी शहरी मध्यमवर्गीय परिवार के लड़की की हत्या पर जो मीडिया पानी पी-पी कर देश के कानून व्यवस्था को गाली देता है, वही मीडिया जब सोनी सोरी के साथ हुए अमानवीय पुलिसिया जुल्म के खिलाफ आह तक नहीं निकालती तो उसके जनसरोकारी होने का दावा खोखला साबित होता है.आखिर क्या कारण है कि जो मीडिया शहरी महिलाओं के खिलाफ हो रहे जूल्म के लिए आंदोलन करती है वही मीडिया आदिवासी महिलाओं के साथ हो रहे ज्यादतियां पर चुप्पी साधे रहती है।
समस्या तब और गहरी हो जाती है जब कथित सभ्य समाज रोज-ब-रोज आदिवासियों पर हो रहे जूल्म के खिलाफ चुप्पी धारण किये रहता है। वैसे भी जिस आधुनिक समाज ने आदवासियों को जंगलों की तरफ धकेल कर अपना जगह बनाया हो उससे इससे अधिक उम्मीद भी नहीं की जा सकती। मीडिया ने जंगलों की इस तरह से छवि निर्माण किया है कि आज जंगल शब्द का नाम सुनते ही माओवादी याद आते हैं, एक पिछड़ी हुई जगह याद आती है और साथ में डर भी। सरकार और माओवादियों के बीच आदिवासी मरने को विवश हैं। पुलिस माओवादी होने के नाम पर पकड़ लेती है तो दूसरी और माओवादी जबरदस्ती हाथों में बंदुक थमा देते हैं। या तो सरकारों के द्वारा कोई स्कुल नहीं बनाया जाता और यदि भूले-भटके ऐसा किया भी जाता है तो उसे माओवादी विस्फोट कर उड़ा देते हैं।
झारखंड में तो कॉरपोरेट ताकतों की गिद्ध नजर जंगलों और प्राकृतिक संपदा पर टिकी हुई है. उनकी इच्छा तो सिर्फ सस्ता खनिज अयस्क, सस्ते मजदूर, और मोटा मुनाफा कमाने की है। वे पहाड़ खोद रहे हैं, नदियों को सुखा रहे हैं, आदिवासियों को सस्ते मजदूर के रुप में इस्तेमाल कर रहे हैं और अपना घर भर रहे हैं। माओवादियों के नाम पर सरकार जंगलों में पुलिसिया राज कायम कर रही है। आम लोगों को डराया धमकाया जा रहा है, जिससे ये लोग जंगल खाली करने पर मजबूर हैं.और यह सब इसलिए हो रहा है कि कॉरपोरेट कंपनियां आसानी से प्राकृतिक संसाधनों को लूट सके।
पिछले दस सालों में झारखंड सरकार ने बड़ी-बड़ी कॉरपोरेट कंपनियों के साथ लगभग 104 समझौते पर दस्तखत किए हैं। चढ़ते-फिसलते सेंसेक्स की
ऊचाइयों में हमें याद भी नहीं रहता कि आज भी हमारे जंगलों में रहने वाले लोग बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं. आज भी उन तक पीने का पानी, स्वास्थ्य सुविधायें आदि पहुँचा पाने में हमारी सरकार असफल रही है। इस तथाकथित विकास ने बड़े पैमाने पर इन आदिवासियों का विस्थापन किया है। आज कोई नहीं जानता कि वे कहां हैं, किस दशा में हैं. आज जंगलों की पहचान, भाषा, इतिहास, संस्कृति, पहाड़ प्रकृति सब कुछ दांव पर लगा हुआ है औ? इनकों बचाने के लिए उनका संघर्ष भी जारी है।
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अविनाश कुमार चंचल
यदि आप विदेशी हैं और केवल दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों तक घूमे हैं तो मुमकिन है आप इस देश को विकसित राष्ट्र के श्रेणी में आराम से रख सकते हैं। जैसा कि पिछले दिनों ओबामा ने भी माना। कभी सांप और जंगलों के लिए मशहूर भारत में आज जंगल शब्द के मायने ही बदल गये हैं। आज कथित विकसित भारत की आत्मा किसी गांव या जंगल में नहीं बसती। दिल्ली और बंगलौर को देखकर ही हम उसे भारत की आत्मा समझ लेते हैं। और इस भारत की नयी आत्मा में रहनेवाले लोग जंगल और जंगलवासियों को जैसे देखते हैं वह देखने का सभ्य तरीका तो बिल्कुल नहीं है। जंगल को वे निहायत जंगली सोच के साथ देखते हैं।
जिस तरह से सरकार जंगलों को कॉरपोरेट हाथों में बिना किसी हिचक के देती जा रही है उससे जंगलों में रहने वाले आदिवासियों के अस्तित्व पर ही खतरा मंडराता नजर आता है। एक तो साल-दर-साल जारी आंकड़े में जंगलों का क्षेत्रफल सिमटता जा रहा है। फिर भी यदि हमारी सरकार सचेत नहीं होती है तो यह चिंताजनक बात है।
जिस तरह से सारे विश्व में पर्यावरण को लेकर चिंताएं जतायी जा रही हैं। क्योटो से लेकर कोपनहेगन तक चर्चा और बहस का दौर गर्म है। ऐसे में चंद कॉरपोरेट हितों को साधने के लिए जंगलों को नष्ट करना न तो देश हित में है और न ही सदियों से जंगलो में रहते आ रहे समुदायों के हित में। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि जिस सरकार पर इन आदिवासियों के लिए विकास की व्यवस्था करने की जिम्मेदारी थी, वही सरकार इन पर गोलियां बरसा रही है। यदि झारखंड का ही उदाहरण लें तो हाल ही में आॅपरेशन एनाकोंडा के शिकार कितने आदिवासी हुए हैं। लोगों के आंखे फोड़ी जा रही है तो कहीं पुलिस बलात्कार कर रही है। खुद पुलिस भी इस बात को स्वीकार करती है कि चाईबासा जिले के गांव बलवा का रहने वाला मंगल की मौत गलती से हुई है। आज न जाने कितने मंगल देश के जंगलों में मिल जाएंगे।
दिल्ली मुंबई की चकाचौंध में हम अक्सर देश के जंगलों और वहां रहने वाले लोगों को भूल जाते हैं। हमारी मीडिया भी इन जंगलों की समस्या को नहीं दिखाना चाहती क्योंकि उनका दर्शक वर्ग अभिजात्य मध्य वर्ग है जिसकी दिलचस्पी कार और नये मोबाईल हैंडसेट में ज्यादा है। यदि मीडिया इन जंगलों के बारे में दिखाती भी है तो तब जब किशनजी या आजाद जैसे नक्स्ली नेताओं की कथित मुठभेड़ में मौत हो जाती है। किसी शहरी मध्यमवर्गीय परिवार के लड़की की हत्या पर जो मीडिया पानी पी-पी कर देश के कानून व्यवस्था को गाली देता है, वही मीडिया जब सोनी सोरी के साथ हुए अमानवीय पुलिसिया जुल्म के खिलाफ आह तक नहीं निकालती तो उसके जनसरोकारी होने का दावा खोखला साबित होता है.आखिर क्या कारण है कि जो मीडिया शहरी महिलाओं के खिलाफ हो रहे जूल्म के लिए आंदोलन करती है वही मीडिया आदिवासी महिलाओं के साथ हो रहे ज्यादतियां पर चुप्पी साधे रहती है।
समस्या तब और गहरी हो जाती है जब कथित सभ्य समाज रोज-ब-रोज आदिवासियों पर हो रहे जूल्म के खिलाफ चुप्पी धारण किये रहता है। वैसे भी जिस आधुनिक समाज ने आदवासियों को जंगलों की तरफ धकेल कर अपना जगह बनाया हो उससे इससे अधिक उम्मीद भी नहीं की जा सकती। मीडिया ने जंगलों की इस तरह से छवि निर्माण किया है कि आज जंगल शब्द का नाम सुनते ही माओवादी याद आते हैं, एक पिछड़ी हुई जगह याद आती है और साथ में डर भी। सरकार और माओवादियों के बीच आदिवासी मरने को विवश हैं। पुलिस माओवादी होने के नाम पर पकड़ लेती है तो दूसरी और माओवादी जबरदस्ती हाथों में बंदुक थमा देते हैं। या तो सरकारों के द्वारा कोई स्कुल नहीं बनाया जाता और यदि भूले-भटके ऐसा किया भी जाता है तो उसे माओवादी विस्फोट कर उड़ा देते हैं।
झारखंड में तो कॉरपोरेट ताकतों की गिद्ध नजर जंगलों और प्राकृतिक संपदा पर टिकी हुई है. उनकी इच्छा तो सिर्फ सस्ता खनिज अयस्क, सस्ते मजदूर, और मोटा मुनाफा कमाने की है। वे पहाड़ खोद रहे हैं, नदियों को सुखा रहे हैं, आदिवासियों को सस्ते मजदूर के रुप में इस्तेमाल कर रहे हैं और अपना घर भर रहे हैं। माओवादियों के नाम पर सरकार जंगलों में पुलिसिया राज कायम कर रही है। आम लोगों को डराया धमकाया जा रहा है, जिससे ये लोग जंगल खाली करने पर मजबूर हैं.और यह सब इसलिए हो रहा है कि कॉरपोरेट कंपनियां आसानी से प्राकृतिक संसाधनों को लूट सके।
पिछले दस सालों में झारखंड सरकार ने बड़ी-बड़ी कॉरपोरेट कंपनियों के साथ लगभग 104 समझौते पर दस्तखत किए हैं। चढ़ते-फिसलते सेंसेक्स की
ऊचाइयों में हमें याद भी नहीं रहता कि आज भी हमारे जंगलों में रहने वाले लोग बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं. आज भी उन तक पीने का पानी, स्वास्थ्य सुविधायें आदि पहुँचा पाने में हमारी सरकार असफल रही है। इस तथाकथित विकास ने बड़े पैमाने पर इन आदिवासियों का विस्थापन किया है। आज कोई नहीं जानता कि वे कहां हैं, किस दशा में हैं. आज जंगलों की पहचान, भाषा, इतिहास, संस्कृति, पहाड़ प्रकृति सब कुछ दांव पर लगा हुआ है औ? इनकों बचाने के लिए उनका संघर्ष भी जारी है।
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साजिश का शिकार हो गई अफीम
समूची दुनिया में कमाई देने वाले कारोबार पर कब्जा जमाने की होड़ मची है। लगता है, मालवा-मेवाड़ के लोग भी इसी कारोबारी साजिश का शिकार हो रहे है। अफीम से मार्फिन निकालने का काम निजी हाथों में सौंपे जाने का केन्द्र सरकार का निर्णय तो ये ही संकेत देता नजर आ रहा है। ये फैसला एनडीए सरकार के वक्त हुआ था और इस पर अमल अब यूपीए सरकार में होता नजर आ रहा है।
सुरेन्द्र सेठी
नियम, शर्तंे पहले ही तय हो गई थी और दो कंपनियों को इस कारोबार करने के लायक भी मान लिया गया था। अब केन्द्रीय केबिनेट की मोहर लग जाने के बाद दोनों चुनी गई कंपनियां अपना काम काज संचालन की दिशा में आगे बढ़ा सकेगी! नई तकनीक से ये कंपनिया सीधे पापी केप्सुल( डोडा) से मार्फिन निकालेगी। अफीम का उत्पादन लेने के झंझट से ही मुक्ति। ना अफीम होगी और न होगी उसकी तस्करी।
साफ जाहिर है, ये धंधा ही मानों हुआ खत्म! पर, हकीकत ये नहीं है। वास्तविकता कुछ और है। धंधा खत्म नहीं हुआ। वे खत्म होंगे जो अफीम से मादक पदार्थ बना रहे थे। जब अफीम से ही तैयार मार्फिन की डिमांड है तो वो ही तो उन कंपनियों के कारखानों में बनेगा जो सीधे पापी केप्सुल से निकाला जाएगा। डोडा चूरी की खरीदी का झंझट भी खत्म होगा। अभी ये भी नहीं बताया गया है कि नई तकनीक से मार्फिन निकाले जाने पर पोस्ता दाना का क्या होगा। वो निकलेगा या नद्द हो जाएगा। कुल मिलाकर साफ दिख रहा है, मालवा मेवाड़ का अकुत धन संपदा देने वाला अफीम उद्योग अन्तर्राष्ट्रीय कारोबारी ताकतो की साजिश का शिकार हो रहा है। ये भी कांच की तरह साफ नजर आ रहा है, इस भारी भरकम उद्योग को कुचलने में कांग्रेस और भाजपा दोनों उन अन्तर्राष्ट्रीय ताकतों की साजिश का शिकार होने में बराबर की दोषी है।
जाहिर है, मालवा मेवाड़ के किसान की इस आर्थिक ताकत को कुचलने के पीछे उनके भी कोइ बड़े हित सधे होंगे जिन्होंने यह फैसला करवाया है। आश्चर्य है, इतना बड़ा फैसला हो जाने के उपरांत भी मालवा मेवाड़ का अफीम उत्पादक किसान चुप्पी साधे बैठा है। लगता है,वो किसान भी अफीम के खेतों में काम करते करते उसकी महक का शिकार होकर गाफिल हो गया है।
अफीम के पौधों से निकलने वाले मादक द्रव्यों के प्रसंस्करण का काम निजी हाथों में सौंपे जाने के फैसले से मालवा मेवाड़ के अफीम उत्पादक इस इलाके में दोनों मुख्य राजनीतिक दलों के समीकरण भी बदलते नजर आ रहे है! चूंकि फैसला (कांग्रेस)यूपीए सरकार के वक्त हुआ है तो अब सांसद मिनाक्षी मेडम सहित कांग्रेस के दुसरे नेताओं की मजबूरी हो गई है कि वे अब इस फैसले का स्वागत कर लोगों को ये बताये कि इससे तस्करी पर अंकुश लग जायेगा ! इधर भाजपा के नेताओं का सुर कांग्रेसी नेताओं के उलट है। वे इस प्रस्ताव का जोर शोर से विरोध करते हुवे यूपीए सरकार को कौसने में जुट गये है। विचित्र बदलाव दोनों दलों की राजनीति में सामने आया है।
आरंभिक प्रस्ताव एनडीए सरकार के वक्त हुआ था। वो भाजपा तो खुलकर किसानों के हित में खड़ी नजर आ रही है और कांग्रेस की भूमिका खलनायक की नजर आने लगी है। इतना बड़ा फैसला अफीम की खेती को लेकर कांग्रेस की सरकार ने कर लिया और हमारी जागरूक और ताकतवर मानी जाने वाली सांसद मीनाक्षी नटराजन इस पर संसद में एक शब्द भी नहीं बोल पाई। मीनाक्षी मैडम के लोक सभा सदस्य रहते हुए इस फैसले का खामियाजा अतंत: कांग्रेस को ही भोगना पड़ेगा।
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सुरेन्द्र सेठी
नियम, शर्तंे पहले ही तय हो गई थी और दो कंपनियों को इस कारोबार करने के लायक भी मान लिया गया था। अब केन्द्रीय केबिनेट की मोहर लग जाने के बाद दोनों चुनी गई कंपनियां अपना काम काज संचालन की दिशा में आगे बढ़ा सकेगी! नई तकनीक से ये कंपनिया सीधे पापी केप्सुल( डोडा) से मार्फिन निकालेगी। अफीम का उत्पादन लेने के झंझट से ही मुक्ति। ना अफीम होगी और न होगी उसकी तस्करी।
साफ जाहिर है, ये धंधा ही मानों हुआ खत्म! पर, हकीकत ये नहीं है। वास्तविकता कुछ और है। धंधा खत्म नहीं हुआ। वे खत्म होंगे जो अफीम से मादक पदार्थ बना रहे थे। जब अफीम से ही तैयार मार्फिन की डिमांड है तो वो ही तो उन कंपनियों के कारखानों में बनेगा जो सीधे पापी केप्सुल से निकाला जाएगा। डोडा चूरी की खरीदी का झंझट भी खत्म होगा। अभी ये भी नहीं बताया गया है कि नई तकनीक से मार्फिन निकाले जाने पर पोस्ता दाना का क्या होगा। वो निकलेगा या नद्द हो जाएगा। कुल मिलाकर साफ दिख रहा है, मालवा मेवाड़ का अकुत धन संपदा देने वाला अफीम उद्योग अन्तर्राष्ट्रीय कारोबारी ताकतो की साजिश का शिकार हो रहा है। ये भी कांच की तरह साफ नजर आ रहा है, इस भारी भरकम उद्योग को कुचलने में कांग्रेस और भाजपा दोनों उन अन्तर्राष्ट्रीय ताकतों की साजिश का शिकार होने में बराबर की दोषी है।
जाहिर है, मालवा मेवाड़ के किसान की इस आर्थिक ताकत को कुचलने के पीछे उनके भी कोइ बड़े हित सधे होंगे जिन्होंने यह फैसला करवाया है। आश्चर्य है, इतना बड़ा फैसला हो जाने के उपरांत भी मालवा मेवाड़ का अफीम उत्पादक किसान चुप्पी साधे बैठा है। लगता है,वो किसान भी अफीम के खेतों में काम करते करते उसकी महक का शिकार होकर गाफिल हो गया है।
अफीम के पौधों से निकलने वाले मादक द्रव्यों के प्रसंस्करण का काम निजी हाथों में सौंपे जाने के फैसले से मालवा मेवाड़ के अफीम उत्पादक इस इलाके में दोनों मुख्य राजनीतिक दलों के समीकरण भी बदलते नजर आ रहे है! चूंकि फैसला (कांग्रेस)यूपीए सरकार के वक्त हुआ है तो अब सांसद मिनाक्षी मेडम सहित कांग्रेस के दुसरे नेताओं की मजबूरी हो गई है कि वे अब इस फैसले का स्वागत कर लोगों को ये बताये कि इससे तस्करी पर अंकुश लग जायेगा ! इधर भाजपा के नेताओं का सुर कांग्रेसी नेताओं के उलट है। वे इस प्रस्ताव का जोर शोर से विरोध करते हुवे यूपीए सरकार को कौसने में जुट गये है। विचित्र बदलाव दोनों दलों की राजनीति में सामने आया है।
आरंभिक प्रस्ताव एनडीए सरकार के वक्त हुआ था। वो भाजपा तो खुलकर किसानों के हित में खड़ी नजर आ रही है और कांग्रेस की भूमिका खलनायक की नजर आने लगी है। इतना बड़ा फैसला अफीम की खेती को लेकर कांग्रेस की सरकार ने कर लिया और हमारी जागरूक और ताकतवर मानी जाने वाली सांसद मीनाक्षी नटराजन इस पर संसद में एक शब्द भी नहीं बोल पाई। मीनाक्षी मैडम के लोक सभा सदस्य रहते हुए इस फैसले का खामियाजा अतंत: कांग्रेस को ही भोगना पड़ेगा।
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